विदेश नीति में बदलाव की दरकार | Sarabjeet Singh

विदेश नीति में बदलाव की दरकार

विदेश नीति में बदलाव की दरकार आलोक कुमार राव

पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में सरबजीत सिंह की हत्या के बाद कई तरह की बातें की जा रही हैं। कुछ का कहना है कि सरबजीत की रिहाई के लिए भारत सरकार को जितना जोर लगाना चाहिए था, उतना उसने नहीं लगाया। तो कुछ का मानना है कि कूटनीति के लिहाज से सरबजीत का मसला कभी प्राथमिकता में रहा ही नहीं और समय-समय पर भारत की ओर से जो थोड़ी-बहुत दिलचस्पी दिखाई गई वह एक तरह से खाना-पूर्ति थी।

भारत सरकार यह बार-बार कहती आई है कि सरबजीत की रिहाई का मसला उसने पाकिस्तान के समक्ष बार-बार उठाया। यहां तक कि मानवीय आधार पर उसे रिहा करने की अपील की। लेकिन सवाल उठता है कि क्या इतना काफी था। यह बात छिपी नहीं है कि पाकिस्तान की विदेश नीति की दिशा वहां के हुक्मरान नहीं बल्कि सेना और आईएसआई तय करती है। वहां के सत्ता प्रतिष्ठानों में कट्टरपंथी संगठनों का दखल ज्यादा है। पाकिस्तान की सिविल सोसायटी इतनी मजबूत नहीं है कि वह सरकार पर दबाव बना सके। क्या भारत सरकार को पाकिस्तान के राजनीतिक दलों, सेना, आईएसआई, कट्टरपंथी संगठनों और सिविल सोसायटी से एक साथ संजीदगी से बात नहीं करनी चाहिए थी। कूटनीतिक सफलता के लिए यह जरूरी होता है कि देश में प्रभाव और पकड़ रखने वाले आप सभी चैनलों से सीधे अथवा पिछले दरवाजे से बातचीत जारी रखें।

सवाल यह भी उठ सकता है कि पाकिस्तान में जब एक चुनी हुई लोकतांत्रिक सरकार है तो सत्ता के अन्य घटकों (पाकिस्तानी सेना, आईएसआई) के साथ बातचीत करने का औचित्य क्या है? पाकिस्तानी सेना से बातचीत का औचित्य कितना महत्वपूर्ण है इसे वर्ष 2007 में लाल मस्जिद पर हुई कार्रवाई के संदर्भ में समझा जा सकता है। लाल मस्जिद के कट्टरपंथी छात्रों ने वेश्यावृत्ति का आरोप लगा चीन के 10 नागरिकों को उठा लिया था। लाल मस्जिद पर कार्रवाई को लेकर इस तरह की रिपोर्टें भी आईं कि चीन ने अपने नागरिकों को छुड़ाने के लिए पाकिस्तान की सरकार के साथ बातचीत करने के साथ-साथ पाक सेना और आईएसआई पर भी दबाव बनाया।

विदेश नीति में बदलाव की दरकार

एक चुनी गई और लोकतांत्रिक सरकार के साथ बातचीत करने में कोई गुरेज नहीं होनी चाहिए लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि किसी देश की वास्तविक सत्ता किन शक्तियों के हाथ में है और पाकिस्तान जैसे देश में सत्ता का असली प्रतीक कौन है यह बताने की जरूरत नहीं है।

पाकिस्तानी सेना, आईएसआई और वहां की कट्टरपंथी ताकतों से बातचीत करना कितना महत्वपूर्ण है, यह एक और घटना से समझा जा सकता है। वर्ष 2011 में अमेरिकी राजनयिक रेमंड एलन डेविस ने लाहौर में दो पाकिस्तानी नागरिकों की गोली मारकर हत्या कर दी। अदालत ने उसे दो पाकिस्तानी नगारिकों की हत्या करने का दोषी पाया। वह जेल गया। लेकिन अमेरिकी सरकार ने डेविस को पाकिस्तान से निकालने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। ओबामा प्रशासन ने पाकिस्तानी सरकार के साथ बातचीत जारी रखने के साथ-साथ अन्य चैनलों सेना, आईएसआई पर भी दबाव बनाता रहा और उसकी यह कोशिश रंग लाई। बात जाकर ब्लड मनी पर बनी। डेविस घटना के मात्र तीन महीने बाद (मार्च 2011 में) पाकिस्तान से रवाना हो गया।

अमेरिकी सरकार केवल पाकिस्तानी सरकार से बातचीत करती तो क्या डेविस की रिहाई संभव थी, शायद नहीं। सरबजीत की रिहाई मामले में भारत सरकार पाक सेना, आईएसआई और चरमपंथी संगठनों से किस कदर संपर्क में थी, यह कोई नहीं जानता।

सरबजीत की हत्या के बाद भारत में पाकिस्तान के खिलाफ जबर्दस्त आक्रोश फूटा है। कुछ लोगों का कहना है कि सरबजीत के मसले को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाकर पाकिस्तान को अलग-थलग कर देना चाहिए। ऐसे लोगों की ज़ज्बातों की कद्र होनी चाहिए लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि हम सरबजीत के मसले को यदि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उठाते भी हैं तो हमारा समर्थन चीन, श्रीलंका, बांग्लादेश, म्यांमार, मालदीव, नेपाल कौन करेगा?

समय आ गया है कि सरबजीत के बहाने भारत अब अपनी विदेशी नीति की पुनर्समीक्षा करे और आज के परिवेश एवं हालात के मद्देनजर अपनी कूटनीति को एक नई दिशा दे।

First Published: Sunday, May 5, 2013, 14:33

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