Last Updated: Sunday, July 1, 2012, 08:56
कृष्ण किशोर पांडेयसंसदीय लोकतंत्र प्रणाली की एक बहुत बड़ी विशेषता यह मानी जाती है कि उसमें विपक्ष भी काफी मजबूत होती है। इस प्रणाली की सरकार ब्रिटेन में है जहां सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों इस बात पर सहमत हैं कि अलिखित संविधान होने के बावजूद जिन मजबूत परंपराओं के बल पर उनकी शासन व्यवस्था चलती आई है उसपर वे कायम रहेंगे। ब्रिटेन में तो यहां तक व्यवस्था है कि जो दल विपक्ष में होता है वह एक अपना अलग मंत्रिमंडल बनाता है जिसे छाया मंत्रिमंडल या सैडो कैबिनेट कहते हैं। सत्ता पक्ष के मंत्री जिस जिस तरह अपने विभागों की देखरेख करते हैं और जनता की जरूरतों के ध्यान में रखकर कार्यक्रम बनाते हैं उस तरह छाया मंत्रिमंडल के सदस्य भी अपने-अपने विभाग में हो रहे कामों पर पूरा ध्यान रखते हैं और जहां उन्हें सत्ता पक्ष की कमियां दिखाई देती है वहां सरकार का ध्यान भी आकर्षित करते हैं। वे सिर्फ सत्ता पत्र की आलोचना और छीछालेदार को ही अपना एकमात्र कार्यक्रम नहीं मानते बल्कि जरूरत के अनुसार, सत्ता पक्ष को पूरा सहयोग भी देते हैं और अपनी जनता को यह एहसास दिलाते हैं कि भले ही जनता ने सत्ताधारी दल के प्रति अपना विश्वास जताया है और उसे बहुमत दिया है। परंतु विपक्ष भी मौका मिलने पर अपनी जिम्मेदारियों को पूरी तरह निभाने के लिए तैयार है। विपक्ष में भी जो दल होता है वह जनता को बार-बार विश्वास दिलाता है कि जनता के हित और राष्ट्रहित के प्रति इनकी जिम्मेदारियों में कभी कोई कमी नहीं आई है और न ही आने की आशंका है। ब्रिटेन में ऐसा नहीं दिखता कि विपक्ष सुबह-शाम सरकार को अपदस्थ करने के किसी एकमुश्त एजेंडे पर काम कर रहा हो। कमियां और खूबियां तो हर संगठन में होती है परंतु इतना जरूर है कि ब्रिटेन का विपक्ष इस बात के लिए तैयार है कि यदि किसी कारणवश सरकार गिर जाती है या इस्तीफा दे देती है तो वह तत्काल जिम्मेदारी संभालने को तैयार है। तात्पर्य यह कि अगर सत्ता पक्ष इस्तीफा देता है तो छाया मंत्रिमंडल के सदस्य सत्ता पक्ष के मंत्रियों की जगह काम करना शुरू कर देंगे। वहां की जनता भी सत्ता पक्ष और सरकार के बीच सूक्ष्म अंतर को समझती है। सत्ता पक्ष में जो दल बैठा हुआ है वह सरकार चला रहा है लेकिन वह सरकार नहीं है। जो दल विपक्ष में है उसे भी जनता मौका दे सकती है और सरकार नामक तंत्र को चलाने का काम उसे सौंपा जाएगा। लोकतंत्र की जड़ें वहां इसीलिए काफी मजबूत है कि विपक्ष अपनी मर्यादाओं को अच्छी तरह समझता है। यदि सत्ता पक्ष जनता के हितों के अनुरूप कार्यक्रम बनाता है और उनपर अमल करता है तो विपक्ष उसे सहयोग देने में किसी तरह की कोताही नहीं बरतता।
राजनीतिक विश्लेषक यह अच्छी तरह समझते हैं कि किसी भी राज्य को राज्य कहलाने के लिए चार मूलभूत तत्वों की आवश्यकता है। ये तत्व हैं एक निश्चित भूभाग, एक निश्चित जनसंख्या, एक सरकार और सरकार में प्रभुत्व संपन्नता का गुण। जाहिर है कि सरकार एक तंत्र है अर्थात वह एक ऐसी गाड़ी है जिसकी ड्राइविंग सीट पर वह राजनीतिक दल बैठता है जिसे जनता ऐसा करने का आदेश देती है। एक बात को और काफी गहराई से समझने की जरूरत है। राजनीतिक दलों को चाहे वह सत्ता पक्ष में हो या विपक्ष में जनता के सामने अपना रिपोर्ट कार्ड पेश करने का अधिकार है। जो दल विपक्ष में है उसे जनता के सामने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट रूप से रखने का अधिकार भी है। लेकिन राजनीतिक दलों के बारे में निर्णय लेने का अधिकार सिर्फ जनता को है। इस संदर्भ में यह बताना भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है की भूमिका यही है कि वह जनता के सामने तथ्यों को उनके वास्तविक रूप में पेश करे। मीडिया को खबर पहुंचाने से लेकर अपने विश्लेषणों, टिप्पणियों और विचारों की अभिव्यक्ति तक में यह मानकर चलना चाहिए कि उनकी हैसियत जज की नहीं है। जनता खुद निर्णय लेती है, वही जज है और लोकतंत्र के लिए माने गए चार स्तंभों की कार्यप्रणाली को वह सतर्क निगाहों से देखती है।
भारत का संसदीय लोकतंत्र कई अर्थों में विशिष्ट गुणों से विभूषित है। भारत का संविधान बनाते समय यह सही है कि निर्माताओं ने ब्रिटिश संविधान से काफी कुछ ग्रहण किया परंतु यह संविधान किसी एक संविधान की नकल नहीं है। भारत की जनता और यहां की जरूरतों को समझते हुए संविधान को एक नया और विशिष्ट रूप प्रदान करने की कोशिश की गई। संविधान सभा में संविधान की हर व्यवस्था पर पूरी बहस हुई और फिर आम सहमति से उसे स्वीकृत, अंगीकृत और आत्मार्पित किया गया। इसीलिए कहा जाता है कि भारत का संविधान न तो अमेरिका के संविधान की तरह कठोर है और न ही ब्रिटेन की संविधान की तरह लचीला है। इसमें जरूरत के अनुसार संशोधन किए जा सकते हैं लेकिन उसमें भी प्रक्रिया बहुत सरल नहीं होगी। इसके साथ ही उच्चतम न्यायालय ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि संविधान में संशोधन तो हो सकता है लेकिन ऐसा संशोधन नहीं हो सकता जो संविधान की मूल धारणा के खिलाफ जाता हो। यहां के राजनीतिक दलों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के किसी भी संविधान में सिर्फ लिखित व्यवस्था ही अपने आप में पर्याप्त नहीं है बल्कि समय-समय पर ऐसी सर्वमान्य परंपराएं भी स्थापित होती हैं जो कम महत्वपूर्ण नहीं है।
इन तमाम बातों पर गौर करने के बाद कोई भी यह आसानी से समझ सकता है कि भारतीय लोकतंत्र और खासकर इसके संसदीय प्रणाली की सफलता और इसका भविष्य दोनों इस बात पर निर्भर है कि विपक्ष कितना मजबूत है। विपक्ष से तात्पर्य सिर्फ उन्हीं दलों से नहीं है जो आज विपक्ष में बैठे हैं बल्कि उस धारणा से है जो विपक्षी दलों को उनका वास्तविक स्वरूप प्रदान करती है। जो दल आज विपक्ष में है वे कल सत्ता पक्ष में भी आ सकते हैं और जो सत्ता पक्ष में हैं वे विपक्ष में भी जा सकते हैं। यह एक सामान्य प्रक्रिया है। विचार का मुख्य बिंदू यह है कि भारत के विपक्षी दल इतने मजबूत हैं कि जनता उनपर भरोसा कर सके और जरूरत पड़ने पर उन्हें सत्ता सौंप सके। सही बात तो यह है कि आज जो दल विपक्ष में है जनता उन्हें मौका भी दे चुकी है और उन्हें परख भी चुकी है। 1977 में कांग्रेस के खिलाफ जनता में काफी आक्रोश था। जनता ने विपक्षी दलों को पूरा सहयोग दिया और उनकी सरकार भी बनी। वह सरकार ढाई साल में ही टूट गई और सारे दल तितर-बितर हो गए। 1980 में लोकसभा का दोबारा चुनाव हुआ और कांग्रेस पार्टी फिर बहुमत में आ गई। यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि आज भी हमारा विपक्ष तितर-बितर की स्थिति में है।
राजनीतिक दलों का गठन स्पष्ट नीतियों, कार्यक्रमों और विचारधारा के आधार पर होता है। राष्ट्रहित से संबंधित नीतियों और कार्यक्रमों से किसी भी राजनीतिक दल का विरोध नहीं हो सकता। हां, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से नीतियों में मतभिन्नता हो सकती है। वस्तुगत दृष्टिकोण से देखने पर विपक्षी दलों की स्थिति बहुत ही विचित्र है। वामपंथी विचारधारा पर आधारित चार दलों का एक गठबंधन है। दूसरी ओर दक्षिणपंथी विचारधारा पर आधारित दलों ने राजग नाम से एक गठबंधन बनाया था परंतु आज की स्थिति में उसमें भाजपा, अकाली दल और शिवसेना ही प्रमुख रूप से शामिल है। कांग्रेस पार्टी जो सत्ता में है के नेतृत्व में मध्यमार्गी विचारधारा वाले दलों का एक गठबंधन बना हुआ है। किंतु लगता है कि इतना काफी नहीं था। ऐसे दल भी थे जो किसी भी गठबंधन में शामिल नहीं हैं। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, बीजू जनता दल, अन्नाद्रमुक आदि पार्टियां इस श्रेणी में आती हैं। इन दलों की ओर से जो संकेत मिलते हैं उनसे ऐसा लगता है कि वे स्थायी रूप से न तो सत्ता पक्ष में है और न ही विपक्ष में। अपने राजनीतिक लाभ के लिए वे कभी भी किसी भी पक्ष में जा सकते हैं। इससे भी बड़ी विचित्र स्थिति यह है कि एक पार्टी तृणमूल कांग्रेस सत्ताधारी गठबंधन में शामिल भी है और विपक्षी दल की भूमिका भी निभा रही हैं। शायद यह पार्टी राजनीतिक रूप से यह संदेश देना चाहती है कि वह किसी मर्यादा से बंधी नहीं है और उसे अपने मन मुताबिक नीतियां निर्धारित करने का पूरा अधिकार है। यह पार्टी केंद्र सरकार में अपने मंत्रियों को अपने मन मुताबिक विभाग दिलवाती है लेकिन सरकार की आलोचना भी करती है। विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी भारतीय जनता पार्टी है। संविधान की व्यवस्था के अनुसार, लोकसभा में इस पार्टी के नेता को ही विपक्ष के नेता का दर्जा मिला हुआ है। लेकिन वास्तविक स्थिति यह है कि विपक्ष के अधिकांश बड़े दलों से इसके विचार नहीं मिलते। वामपंथी दल ही नहीं जिसके साथ इस पार्टी के नीतिगत मतभेद हैं, उन विपक्षी दलों के साथ भी इसका तालमेल नहीं बैठता जो दल धर्मनिरपेक्षता को अपनी नीतियों का प्रमुख आधार मानते हैं। समाजवादी पार्टी, बसपा, बीजद, अन्नाद्रमुक और तृणमूल कांग्रेस के साथ भी इस पार्टी का तालमेल नहीं बैठता। तालमेल नहीं बैठने सबसे बड़ा कारण नीतिगत ही है। पार्टी के अंदर भी इस बात को लेकर जबरदस्त खींचतान है कि भविष्य में इसका नेतृत्व कौन करेगा। शायद यह खींचतान इस बात को लेकर है कि पार्टी का नेतृत्व नरेंद्र मोदी जैसे कट्टरपंथी के हाथ में रहे या सुषमा स्वराज, यशवंत सिन्हा, अरुण जेटली जैसे उदारपंथी के हाथ में। कुछ बातें इस पार्टी में ऐसी हो रही है जो बहुत अटपटी लगती है। पार्टी का अध्यक्ष बाबा रामदेव का चरण छू रहे हैं और उन्हें यह भी पता नहीं कि वह बाबा रामदेव को महिमामंडित कर रहे या संसद के सबसे बड़े विपक्षी दल की आभाहीनता का संकेत दे रहे। इस दल के बारे में आम धारणा यह बन गई है कि इस पार्टी का धर्मनिरपेक्षता की नीति में भरोसा नहीं है। बिहार में सत्तारुढ़ गठबंधन ने जदयू के साथ यह पार्टी भी शामिल है लेकिन दोनों दलों के आपसी संबंध बहुत मधुर नहीं चल रहे। बार-बार उनकी असहजता सामने आ रही है। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की मुंबई में हुई बैठक में जिस तरह नरेंद्र मोदी ने पूरी पार्टी को अपनी मांग के आगे झुका दिया वह आम कार्यकर्ता को अच्छा नहीं लगा। कार्यकारिणी की बैठक में नरेंद्र मोदी को बुलाने के लिए एक सदस्य संजय जोशी को कार्यकारिणी की सदस्यता से इस्तीफा देने को मजबूर किया गया अब वही संजय जोशी पार्टी के लिए मुसीबत बन रहे हैं।
कहने का लब्बोलुवाब यह है कि जब विपक्ष में इतने ज्यादा दल हैं और उनमें भी ज्यादा फैसले राजनीतिक लाभ हानि को ध्यान में रखकर किए जाते हैं तब राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़े बिपक्षी दल को ऐसा जरूर होना चाहिए जो इन दलों के बीच किसी न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर तालमेल कराने में सक्षम हो और उनका नेतृत्व कर सके। विडंबना यह है कि संसद की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी भाजपा अपने ही अंतरविरोध से जूझ रही है। वामपंथी दलों स्थिति इससे भी खराब है। उनमें भी अंतरविरोध का जाल ऐसा फैला हुआ है कि उसकी वजह से उनके मजबूत गढ़ भी ढहते जा रहे हैं। पश्चिम बंगाल और केरल दोनों राज्यों में सत्ता उनके हाथ से चली गई। केरल में तो आंतरिक विरोध बहुत खुलकर सामने आ गया है। ले-देकर त्रिपुरा में वामपंथी सरकार किसी तरह अपना अस्तित्व बचाए हुए है। वामपंथी दल अगर विपक्षी एकता की दिशा में खुद प्रयास करें तो भी उनको सफलता मिलने की गुंजाइश नहीं है। अनेक विपक्षी दल वामपंथी सिद्धांतों के ही खिलाफ हैं। अतीत में ऐसा भी देखने को मिला कि अपने सैद्धांतिक मतभेदों को भुलाकर सिर्फ कांग्रेस विरोध के नाम पर विपक्षी दलों को एकजुट किया गया। किंतु यह प्रयास भी बहुत सफल नहीं रहा। असल में कांग्रेस विरोध या किसी एक पार्टी के विरोध में कुछ समय के लिए विपक्षी दल इकट्ठे भी हो जाएं तो यह एकता ज्यादे समय तक चल नहीं पाती। क्या वजह थी कि 1977 में मोरारजी देसाई की सरकार गिरने के बाद उसमें शामिल सभी दल बिखर गए। सरकार का गिर जाना या चुनाव में हार जाना ऐसा कोई कारण नहीं है जो सभी दलों को बिखरने की मजबूरी दिखाता हो। जाहिर है राजनीतिक लाभ के लिए मिलने और बिछड़ने की जो प्रक्रिया देश की राजनीति में शुरू हुई वह आज समस्याएं पैदा कर रही है। सत्तारुढ़ गठबंधन के खिलाफ चाहे जितनी भी आलोचना की जाए उसे दिशाहीन, सुश्त, कमजोर, भ्रष्ट, निकम्मा आदि संबोधनों से पुकारा जाए तो इससे विपक्ष का कोई लाभ होने वाला नहीं है। सरकार की कमजोरियों को सामने लाना विपक्ष का मुख्य कर्तव्य है। लेकिन साथ ही अगर सत्ता पक्ष कुछ अच्छे काम कर रहा है तो उसकी तारीफ करके विपक्षी दल अपनी साख बढ़ाते हैं। अगर कोई एक विपक्षी दल होता तो संभव है जनता यह सोचती कि एक बार उसे मौका दिया जाए। अतीत में भारत की जनता ने भाजपा के नेतृत्व में बनी सरकार को दो बार इसी आधार पर समर्थन दिया कि उसे अपनी नीतियों को लागू करने का पूरा मौका नहीं मिल रहा है। लोगों को निराशा तब हुई जब उनसे किए गए वायदों को पूरा नहीं किया गया।
इसमें कोई दो राय नहीं कि भारतीय लोकतंत्र को एक मजबूत विपक्ष की जरूरत है। अगर विपक्षी दल आपस में विचार विमर्श के बाद ऐसा कोई मोर्चा बनाने पर सहमत हो जाएं तो जनता उसका स्वागत करेगी। परंतु सबसे बड़ा सवाल यह है कि यह होगा कैसे। दक्षिणपंथी और वामपंथी सैद्धांतिक दृष्टि से ऐसे दो ध्रुव हैं जो आपस में मिल नहीं सकते। एक संभावना यह हो सकती है कि राजनीतिक दृष्टि से विभिन्न दल तीन गठबंधनों में बंट जाएं। दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित दल भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में शामिल हों, वामपंथ की विचारधारा से तालमेल बिठा सकने वाले दल वामपंथी गठबंधन में शामिल हों और मध्यमार्गी विचारधारा से प्रभावित दल कांग्रेस के नेतृत्व में संगठित हों। तीन गठबंधनों के बीच अगर चुनाव होगा तो जनता के सामने हर चुनाव में विकल्प मौजूद रहेगा। तीनों गठबंधनों के कामकाज की परीक्षा करने की भी जनता को अवसर मिलेगा। जनता से यह उम्मीद नही करनी चाहिए कि वह विधान सभाओं और नगर निगम के चुनावों में जिस तरह मतदान करती है उसी तरह लोकसभा के चुनावों में करेगी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आजादी के बाद पिछले 65 वर्षों में देश की जनता राजनीतिक दृष्टि से काफा परिपक्व हो चुकी है। वह चाहेगी कि केंद्र में एक ऐसी सरकार बने जो कम से कम पांच साल के लिए मजबूत रहे और देश के विकास को आगे बढ़ा सके। अगर उसने लोकसभा के चुनाव में समझदारी नहीं दिखाई तो उसे पछताना होगा। जनता के दरबार में जहां सत्ता पक्ष के पांच साल के कामकाज की समीक्षा की जाएगी वहीं विपक्षी दलों के रिपोर्ट कार्ड को भी देखा जाएगा और इसके लिए विपक्षी दलों को तैयार रहना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
First Published: Sunday, July 1, 2012, 08:56