Last Updated: Friday, December 30, 2011, 12:49
बिमल कुमार राज्यसभा में लंबी बहस के बाद लोकपाल विधेयक का जो हश्र हुआ, उससे साफ है कि कोई भी राजनीतिक दल इस विधेयक को पारित नहीं होने देना चाहता है। किसी ने इसके लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया तो किसी ने विपक्ष को लेकिन यह संसदीय लोकतंत्र के लिए काफी दुर्भाग्यपूर्ण रहा। राज्यसभा में आधी रात को हुए इस नाटकीय घटनाक्रम को संसद के इतिहास में एक अभूतपूर्व दिवस की संज्ञा दी जा सकती है, जहां राष्ट्र का हित पीछे छूटता दिखा और सांसद अपने हितों को लेकर ज्यादा चिंतित नजर आए।
उच्च सदन में आधी रात की इस कार्यवाही को देखने के बाद तो यही लगता है कि सदन में लोकपाल को लेकर जो कुछ हुआ उसकी पटकथा पहले से तैयार थी और सब कुछ पूर्व नियोजित था। इसे देखकर मुझे ही नहीं बल्कि सभी को आश्चर्य हुआ होगा। वोटिंग करवाने से सरकार का पीछे हटना, विपक्ष की ओर से संघीय ढांचे पर सवाल उठाना, सदन में एक दिन के अंदर एक ही विधेयक को लेकर 180 से अधिक संशोधनों को पेश करना, विधेयक की प्रति फाड़ा जाना, बहस को अनावश्यक तौर पर देर रात तक खींचना, लोकायुक्त के प्रावधान पर अनावश्यक तर्क गढ़ना आदि तमाम ऐसे कारण हैं, जो यह संकेत करता है कि सब कुछ पूर्वनियोजित था।
राज्यसभा में लोकपाल बिल के लटकने के पीछे राजनैतिक कारण जो भी रहे, लेकिन इनका आधार बिल में राज्यों में लोकायुक्त बनाने का प्रावधान भी बना, जिसकी आड़ में क्षेत्रीय दलों ने संघीय ढांचे पर चोट बताते हुए बिल का विरोध किया। नजीजतन बिल का यह हश्र हुआ। शायद सबकी रणनीति यह थी कि बिल पास न हो, लेकिन उसका ठीकरा सामने वाले के सिर फूटे।
गौर करने वाली बात यह है कि जिन पार्टियों के नेताओं ने लोकसभा में बिल को पास होने में सहयोग दिया था, उन्हीं पार्टियों के राज्यसभा सांसदों ने उसमें कई संशोधन पेश किए। अगर अन्ना संसद का सत्र खत्म होने का इंतजार करते तो इसकी पटकथा शायद दूसरे ढंग से लिखी जाती।
राज्यसभा में लोकपाल विधेयक पारित नहीं होने को लेकर मैच पहले से ही फिक्स होने की बात को नकारने की दलों की ओर से पूरी कोशिश की गई लेकिन सदन के अंदर का घटनाक्रम तो यही इशारा कर रहा है। लेकिन जो भी हो अब तो लोकपाल विधेयक अधर में लटक गया है, पिछले अन्य महत्वपूर्ण बिलों की तरह।
सांसदों ने संघीय ढांचे पर सवाल उठाए लेकिन इस बात में दम है कि यदि लोकायुक्त को अनिवार्य नहीं किया गया तो ज्यादातर राज्य इसे लागू करने के प्रति इच्छुक नहीं दिखेगा। कहीं न कहीं इस बात के लिए केंद्र सरकार जिम्मेदार है। संसद सर्वोच्च है और सरकार को राज्यसभा में मत विभाजन के लिए विधेयक को रखना चाहिए था। संभवत: संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में यह वाकई एक अभूतपूर्व स्थिति है, जो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और संसदीय लोकतंत्र के इतिहास पर बुरा दाग है।
सवाल यह भी है कि क्या कोई व्यवस्था नहीं है कि बिना राष्ट्रपति की मंजूरी के आधी रात के बाद इस तरह की कार्यवाही जारी नहीं रहेगी। यह तो ऐसा ही है कि सरकार एक तुच्छ से बहाने पर मत विभाजन से बच निकली। क्या राज्यसभा केवल विधेयक में संशोधन सुझा सकती है और यह निर्णय करना लोकसभा का काम है कि सिफारिशों को मंजूर किया जाए या खारिज किया जाए। विधेयक को पारित नहीं करने की मंशा के चलते ही सदन के भीतर इतना गतिरोध हुआ।
राज्यसभा में गुरुवार रात मध्यरात्रि में हंगामा होने पर सरकार ने अपनी ओर से यह तर्क दिया कि लोकपाल विधेयक पर मतदान और उसे पारित कराने का समय नहीं बचा है। विधेयक पर 187 संशोधन पेश किए गए हैं तथा सरकार को उन पर विचार करने के लिए समय चाहिए। सवाल यह उठता है कि इस बिल पर लोकसभा जैसी तत्परता क्यों नहीं दिखाई गई। विपक्ष के इस आरोप में दम दिखा कि सरकार के पास बहुमत नहीं होने के कारण वह सदन से भाग रही है। संशोधनों को पढ़ने और फिर इसे शामिल करने का वास्ता देना तो यही इंगित कर रहा था कि सरकार किसी भी दृष्टिकोण से इस बिल को पारित करने को लेकर गंभीर नहीं है। इस बात का जवाब भी किसी दल के पास नहीं है कि यदि सभी चाहते थे तो लोकपाल राज्यसभा में पास क्यों नहीं हो पाया, जबकि उस दिन पूरे देश की निगाहें उच्च सदन पर लगी हुई थी।
सरकार को इस बात का डर भी था कि वह उच्च सदन में अल्पमत में है और विधेयक गिरने से उसकी किरकिरी होगी। सहयोगी दलों को साथ लेने की उसकी कोशिश भी रंग नहीं लाई। उच्च सदन में लोकपाल विधेयक पर करीब 12 घंटे तक चर्चा चली, फिर भी विधेयक पारित नहीं हो पाया। उसके बाद राज्यसभा की कार्यवाही को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। एक सरकार जिसके पास सदन में संख्याबल नहीं है उसने जानबूझ कर चर्चा की पटकथा इस तरह लिखी ताकि वह रात बारह बजे से पहले खत्म न हो सके।
हंगामे के बीच सभापति हामिद अंसारी का यह कहना कि सदन में एक अभूतपूर्व स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि शोर-शराबा और हंगामा कितना बढ़ गया था। जिससे इस बिल पर आखिरकार पूरी तरह गतिरोध कायम हो गया। राज्यसभा में वोटिंग वाले दिन शाम तक यह स्पष्ट हो गया था कि सरकार मतदान का सामना करने के लिए तैयार नहीं है।
राज्यसभा में लोकपाल विधेयक की प्रति फाड़ते दिखने वाले राजद सांसद राजनीति प्रसाद ने सफाई दी कि विधेयक पर मत विभाजन से बचने के लिए उनकी पार्टी और कांग्रेस के बीच कोई ‘मैच फिक्सिंग’ नहीं हुआ था, जो वाकई में ऐसा ही लग रहा था। राज्यसभा में इस नाटक को रचा गया ताकि एक मजबूत भ्रष्टाचार विरोधी संस्था नहीं बन सके।
राज्यसभा में लोकपाल विधेयक पारित नहीं होने का यह कोई पहला मामला नहीं है। 40 वर्ष का संसदीय इतिहास भी गवाह है कि यह विधेयक अभी तक एक पहेली बना हुआ है। अब तक जब भी संसद में लोकपाल विधेयक पर विचार हुआ सदन की कार्यवाही स्थगित हो चुकी थी। यह सिलसिला 1968 से ऐसा ही देखने में आया है।
वहीं, लोकपाल विधेयक को पारित कराने में विफल रहने पर टीम अन्ना ने भी सरकार को खूब कोसा और कहा कि हम इस सरकार पर विश्वास नहीं कर सकते। अब सरकार का यह कहना कि यह विधेयक समाप्त नहीं हुआ है और इसे बजट सत्र में लाया जाएगा, इस पर कितना यकीन किया जाए। कयोंकि भरोसे का कोई आधार तो बचा ही नहीं है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि बजट सत्र तक पार्टियों की रणनीति क्या होती है।
उधर, लोकपाल विधेयक के लटक जाने के चलते सरकार और विपक्ष के बीच राजनीतिक जंग छिड़ गई और एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने का सिलसिला तेज हो गया। इस विधेयक के हश्र को लेकर अब संसद के बाहर सत्तापक्ष और विपक्ष में खुद को पाक-साफ साबित करने की होड़ सी लग गई है। सबने कहा कि लोकतंत्र की हत्या हुई है, लेकिन इसके लिए आखिर कसूरवार कौन है? विपक्ष ने धोखा दिया कि सरकार की मंशा नहीं थी, लेकिन इस वाकयुद्ध में तो अब लोकपाल हाशिये पर चला गया है, लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है।
First Published: Wednesday, January 11, 2012, 23:05