Last Updated: Saturday, August 25, 2012, 19:00

नई दिल्ली : देश के प्रधान न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस एच कपाड़िया ने आज कहा कि न्यायाधीशों को देश का शासन नहीं चलाना चाहिए और न ही नीतियां विकसित करनी चाहिए। उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को ‘सोने के अधिकार’ को मूल अधिकार बनाने जैसे कुछ फैसलों पर व्यवहारपरकता कसौटी का इस्तेमाल करना चाहिए।
न्यायपालिका के कामकाज पर कुछ स्पष्ट आत्ममंथन करते हुए न्यायमूर्ति कपाड़िया ने सवाल किया कि यदि कार्यपालिका न्यायपालिका के उन निर्देशों का पालन करने से इनकार कर दे जो लागू करने योग्य नहीं हों, तो क्या होगा? उन्होंने कहा, हमने कहा है कि जीवन के अधिकार में पर्यावरण सुरक्षा और मर्यादा के साथ जीने का अधिकार है। अब हमने उसमें सोने का अधिकार भी शामिल कर दिया, हम कहां जा रहे हैं? यह आलोचना नहीं है क्या यह लागू करने योग्य है? जब आप अधिकार का दायरा बढ़ाते हैं तो न्यायाधीश को उसके अमल की व्यवहारपरकता की संभावना भी तलाशनी चाहिए।
न्यायमूर्ति कपाड़िया ने सवालिया लहजे में कहा,‘न्यायाधीशों को (खुद से) यह प्रश्न पूछना चाहिए क्या वे (उनके फैसले) लागू करने योग्य है। न्यायाधीशों को इन्हें व्यवहारपरकता की कसौटी का इस्तेमाल करना चाहिए। आज यदि कोई न्यायाधीश नीतिगत मामले पर प्रस्ताव करता है और सरकार कहती है कि हम उसका पालन नहीं करने जा रहे तो क्या आप अदालत की अवमानना की कार्यवाही शुरू करेंगे या (खुद) उसे लागू करेंगे।
न्यायमूर्ति कपाड़िया ने यहां इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में ‘संवैधानिक ढ़ांचे का न्यायशास्त्र’ विषय पर अपने संबोधन में रामलीला मैदान में रात में सो रहे बाबा रामदेव के समर्थकों पर पुलिस की कार्रवाई पर उच्चतम न्यायालय के फैसले की ओर भी इशारा किया। इसी निर्णय में ‘सोने के अधिकार’ को मौलिक अधिकार घोषित किया गया था।
न्यायमूर्ति कपाड़िया ने कहा, न्यायाधीशों को देश का शासन नहीं चलाना चाहिए। हमें कड़े सिद्धांतों के अनुसार चलने की जरूरत है। जब कभी आप कानून प्रतिपादित करें तो उसे शासन में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हम जनता के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। संविधान के मूल सिद्धांतों में निहित वस्तुनिष्ठता एवं यथार्थवाद को महत्व देना होगा।
न्यायमूर्ति कपाड़िया ने कहा कि न्यायाधीशों को संवैधानिक सिद्धांतों के अनुसार ही चलना चाहिए जिसने स्पष्ट रूप से न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका के बीच शक्तियां बांट रखी है। उन्होंने कहा कि केन्द्र-राज्य संबंधों और संघीय नीति से जुड़े मसलों पर विचार और घोटालों से जुड़े मामलों पर विचार के दौरान न्यायाधीशों को संविधान के सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि वह ‘कोलगेट’ प्रकरण का जिक्र नहीं कर रहे हैं।
एस आर बोम्मई प्रकरण में न्यायमूर्ति बी पी जीवन रेड्डी का हवाला देते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि संविधान संघीय नहीं है बल्कि यह केंद्र की ओर थोड़ा झुका हुआ है। उन्होंने कहा कि इसके साथ ही न्यायमूर्ति रेड्डी ने आगाह भी किया था कि इसका मतलब यह नहीं होना चाहिए कि राज्यों की शक्तियां कम कर दी जाएं।
उन्होंने कहा, मैं एक उदाहरण दूं। मै कोलगेट के बारे में कुछ नहीं कहना चाहता। इसे समझ लिया जाए। उन्होंने कहा, जब हम विश्लेषण करते हैं कि क्या केंद्र (राज्य की) शक्तियां कम करना चाहता है, यदि भूमि राज्य का विषय है तो इसका आशय क्या है, यदि राज्य को किसी नीति पर आपत्ति है तो क्या केंद्र उसे दरकिनार कर सकता है? उन्होंने कहा कि इस तरह के विषयों पर निर्णय करते समय न्यायाधीशों को संविधान के सिद्धांतों को ध्यान में रखना चाहिए।
न्यायमूर्ति कपाड़िया ने कर्नाटक के बेल्लारी जिले में खनन गतिविधियां स्थगित रखने के शीर्ष अदालत के निर्देश का जिक्र करते हुए पर्यावरण की चिंता का सतत पोषणीय विकास के साथ संतुलन रखना चाहिए। उन्होंने कहा, इसी के साथ बेरोजगारी भी है। इससे अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा। अतएव हमें संतुलन बनाना होगा। उन्होंने न्यायाधीशों के लिए देश में सतत विकास पर भी विचार करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया। न्यायमूर्ति कपाड़िया ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर अपने भाषण का हवाला भी दिया जिसमें उन्होंने कानून मंत्री सलमान खुर्शीद से कहा था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति की बेहतर वैकल्पि व्यवस्था होने तक वर्तमान व्यवस्था बनाए रखनी चाहिए और संविधान के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए।
न्यायिक व्यवस्था से जुड़ी कानूनी बिरादरी ही नहीं बल्कि आम आदमी के लिए भी संवैधानिक कानून के महत्व पर बल देते हुए प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि देश में हर व्यक्ति को यह विषय पढ़ाया जाना चाहिए ताकि ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकार एवं कर्तव्यों को समझ सके। (एजेंसी)
First Published: Saturday, August 25, 2012, 18:55