Last Updated: Friday, April 6, 2012, 08:38
कोझिकोड : भारत में वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा व्यापक तौर पर ‘पहचान की राजनीति’ के सिद्धांत पर चर्चा की जा रही है, जिसमें राजनीति को आकार देने में जाति, धर्म और लिंग अहम भूमिका निभाते हैं, लेकिन आज यहां पार्टी की 20वीं कांग्रेस में पेश किए जाने वाले सैद्धांतिक दस्तावेज के मसौदे में इस विचारधारा को जगह नहीं दी गई है। बैठक में इस मुद्दे पर गहन चर्चा होने की उम्मीद है।
पोलित ब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी ने नए दस्तावेज का मसौदा पेश किया है जिसमें दुनियाभर में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्षों के परिप्रेक्ष्य में समाजवाद का कोई ‘भारतीय मार्ग’ ढूंढ़ने की बात कही गई है। वर्ष 1992 में चेन्नई में हुए पार्टी सम्मेलन के बाद पहली बार वैचारिक रेखा की समीक्षा की जा रही है। 1992 में पार्टी की कांग्रेस का आयोजन सोवियत संघ के पतन और पूर्वी यूरोप में कम्युनिस्ट शासनों के धराशाई होने के बीच हुआ था।
पार्टी नव उदार सुधारों की चुनौतियों से निपटने के लिए लोगों को उन देशों के अनुभव से सबक लेने के लिए प्रोत्साहित करती है जो वैश्वीकरण से संघर्ष में अपने तरीके अपना रहे हैं। पर्यवेक्षकों का कहना है कि पार्टी में एक मजबूत तबका है जो यह मानता है कि वामपंथी भारत में तब तक अपना जनाधार नहीं बढ़ा सकते जब तक कि वह लोगों द्वारा अपनी राजनीतिक पसंद के चयन में जाति और धर्म के व्यापक प्रभाव के बारे में व्यापक स्तर पर विचार नहीं करते। इस बारे में बहुत से वामपंथी बुद्धिजीवी मंथन कर रहे हैं।
सिद्धांत को खारिज करते हुए माकपा का मसौदा कहता है कि जब राजनीतिक गतिशीलता जाति, धर्म और नस्ल पर आधारित हो जाती है तो यह एक कामकाजी वर्ग की अवधारणा को नकारती है, जो पहचान का एकमात्र घटक माना जाता है। आम तौर पर यह लोगों का राजनीतिकरण नहीं करता।
(एजेंसी)
First Published: Friday, April 6, 2012, 14:08