`चश्मे बद्दूर` (review) : हंसी के फुहार से सराबोर है फिल्म -‘Chashme Baddoor’ review: A veritable laugh riot, this one!

`चश्मे बद्दूर` (review) : हंसी के फुहार से सराबोर है फिल्म

`चश्मे बद्दूर` (review) : हंसी के फुहार से सराबोर है फिल्मज़ी न्यूज ब्यूरो

नई दिल्ली: अभिनेता फारूख शेख और दीप्ति नवल की लव स्टोरी वाली चश्मे बद्दूर 1980 में रिलीज हुई थी । निर्देशक डेविड धवन ने भी इसी दौर में रिलीज हुई सई परांजपे की फिल्म के सीक्वल को रिलीज किया। यह मूल से बिल्कुल अलग फिल्म है।

डेविड धवन ने मूल फिल्म से तीन दोस्त और एक लड़की का सूत्र लिया है और उसे नए ढंग से पिरोने की कोशिश की है। डेविड धवन हास्य निर्देशक के तौर पर जाने जाते हैं लिहाजा उन्होंने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी है।

इस फिल्म फिल्म की कहानी तीन दोस्तों के इर्द-गिर्द घूमती है। गोवा की एक बस्ती में सिड यानी अली जाफर, जय (सिद्धार्थ नारायण) और ओमी (दिव्येंदू शर्मा) एक साथ रहते हैं। यूं तो कहने को ये तीनों तीनों पक्के दोस्त हैं, लेकिन बात जब लड़की की हो तो ओम और जय बाजी मारने के लिए आगे हो जाते है। एक दिन जब इनके पड़ोस में एक खूबसूरत लड़की सीमा यानी तापसी पन्नू रहने आती है, तो जय और ओमी दोनों उसे अपना बनाने में लग जाते हैं। इस तरह फिल्म आगे बढ़ती है। हंसी के पल आते जाते है।

फिल्म की एक अच्छी बात यही है कि डेविड धवन की `चश्मे बद्दूर` मूल से अलग होने के बावजूद निराश नहीं करती। एक नई मनोरंजक फिल्म का एहसास देती है।

`चश्मे बद्दूर` आज की फिल्म है। आज के युवा दर्शकों को यह फिल्म पसंद आएगी। फिल्म में तकरीबन हर जगह हास्य को उकेरा गया है। फिल्म में गुदगुदी, हंसी की भरमार है जो कभी थमती नजर नहीं आती। अगर फिल्म में ऐक्टिंग की बात की जाए तो अली जाफर को छोड़ हर कोई निराश करता हैं। लेकिन अगर आप इसकी तुलना मूल फिल्म से करेंगे तो गलत है क्योंकि सई की फिल्म चश्मे बद्दूर के आसपास यह फिल्म नहीं ठहरती। लेकिन थिएटर में जाकर एक बार हंसने के लिए जरूर देखी जा सकती है।


First Published: Friday, April 5, 2013, 15:15

comments powered by Disqus