Last Updated: Sunday, April 8, 2012, 12:11
नई दिल्ली : फिल्म 'माइ नेम इज खान' का रिजवान खान तो याद ही होगा, वह पीला रंग देखते ही खबरा जाता है। लेकिन उसके जैसे बहुत से लोग हैं, जो असल जिंदगी में क्रोमाटोफोबिया (रंगों से डरने का रोग) से पीड़ित हैं। विशेषज्ञों की माने तो इस रोग को चिकित्सा और परामर्श से ठीक किया जा सकता है।
वेदीक्योर वैलनेस क्लीनिक के एस के लव के अनुसार अनुमानित पांच से दस प्रतिशत लोग क्रोमाटोफोबिया से पीड़ित हैं। लव ने कहा, जिंदगी के पूर्व अनुभवों के साथ मिलकर आनुवांशिकता और मस्तिष्क रसायन शास्त्र फोबिया के विकास में मुख्य भूमिका अदा करता है। पूर्व के अधिक नकारात्मक अनुभव क्रोमाटोफोबिया का कारण बन सकते हैं।
विशिष्ट रंगों के लिए विशेष फोबिया होते हैं। सफेद रंग के फोबिया को लेयूकोफोबिया और काले रंग के फोबिया को मेलानोफोबिया कहा जाता है। बैंगनी रंग से भय को पोरफायरोफोबिया, पील रंग से भय लगने को जेंथोफोबिया, लाल रंग से डर को इरिथ्रोफोबिया और नीले रंग से डर लगने को स्यानोफोबिया कहा जाता है।
वर्णअंधता (कलर ब्लाइंडनेस) से पीड़ित लोगों में भी क्रोमाटोफोबिया के विकास का अंदेशा होता है। चिकित्सकों का कहना है कि यह रोग इलाज योग्य है। क्लीनिक के अनिल पाटिल ने बताया, इस बिमारी का इलाज करते वक्त यह जानने की जरूरत होती कि रंग का भय उत्पन्न क्यो हो रहा है।
उन्होंने कहा, अगर फोबिया वर्णअंधता व प्रकाश के प्रति सम्वेदनशीलता से जुड़े चिकित्सकिय मुद्दों पर आधारित हो तो आतंक उपचार या मनोचिकित्सा के साथ-साथ अच्छी चिकित्सकिय देखभाल और शिक्षा भी दी जानी चाहिए। वैकल्पिक रूप से रंग चिकित्सा का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। इसे अकेले या फिर किसी दूसरी चिकित्सा पद्धति के साथ प्रयोग में लाया जा सकता है।
क्रोमाटोफोबिया के इलाज की कामयाब प्रक्रिया में आत्मविश्वास पाने, शांत और खुश रहने जैसे विशेष कदमों के अलावा गुस्सा, डर, उदासी, चोट, अपराध और चिंता पर काबू पाना भी शामिल है। (एजेंसी)
First Published: Sunday, April 8, 2012, 17:41