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खेलों के 'महाकुंभ' में भारत का फीका प्रदर्शन

Thursday, July 5, 2012, 16:42
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खेलों के 'महाकुंभ' में भारत का फीका प्रदर्शनअभी तक ओलंपिक खेलों के इतिहास में भारत अब तक सिर्फ 15 पदक ही अपनी झोली में कर पाया है। इनमें से 11 पदक तो उसे हॉकी में मिले हैं। एक अरब से ज़्यादा आबादी वाले देश की ओलंपिक में उपलब्धि कोई बहुत अच्छी नहीं है। ओलंपिक खेलों में भारत की कहानी शुरू होती है 1900 के पेरिस ओलंपिक से जहाँ कोलकाता के रहने वाले एक `एंग्लो इंडियन` ने 200 मीटर और 200 मीटर बाधा दौड़ में रजत पदक जीता था।

इस नौजवान का नाम था नॉर्मन गिलबर्ट प्रिटिहार्ड. नॉर्मन न सिर्फ़ पदक जीतने वाले पहले एशियाई
थे बल्कि हॉलीवुड में काम करने वाले पहले ओलंपियन भी थे। 1897 में भारतीय पर किसी फ़ुटबॉल टूर्नामेंट में पहली हैट्रिक बनाने का रिकॉर्ड भी नॉर्मन के नाम है। पेरिस से जीतने के बाद वो अपनी जन्मभूमि कोलकाता लौटे लेकिन फ़रवरी 1905 में वो जूट का व्यापार करने इंग्लैंड चले गए।

हॉकी में भारत के सफ़र की शुरुआत हुई 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में जब जयपाल सिंह के नेतृत्व में भारत ने हॉलैंड को तीन-शून्य से हराकर स्वर्ण पदक जीता। 1932 में लॉस एंजिल्स का स्वर्ण पदक भी भारत के नाम रहा। भारत ने अमरीका को 24-1 के ज़बरदस्त अंतर से हराया जो रिकॉर्ड आज तक नहीं टूट पाया है।

भारत के जाने-माने अख़बार स्टेट्समैन ने 13 अगस्त 1932 के अपने अंक में लिखा है, ये तो सबको उम्मीद थी कि भारत आसानी से जीत जायेगा लेकिन उसके सबसे बड़े समर्थकों ने भी नहीं सोचा था कि हर तीन मिनट के अंतर पर एक गोल किया जाएगा।

हाफ्स और फ़ारवर्ड्स के फ़्लिक पास अमरीकियों के लिए बिल्कुल नए थे. उनके खेल ने उन्हें इस कदर मोहपाश में भर लिया था कि वो खेलने की बजाए अपने तेज़-तर्रार प्रतिद्वंदियों को निहारते भर रहे गए। 1936 के बर्लिन ओलंपिक का आयोजन जर्मनी के तानाशाह हिटलर के लिए एक प्रतिष्ठा का सवाल बन गया था। 1932 से 1936 के बीच यूरोपीय हॉकी का स्तर काफी बढ़ गया था। ध्यानचंद के नेतृत्व में गई भारतीय हॉकी टीम को इसका स्वाद तब मिला जब एक अभ्यास मैच में जर्मनी ने भारत को 4-1 से हरा दिया। भारतीय खेमा इतना घबरा गया कि उसने तार भेजकर झेलम में तैनात दारा को हवाई जहाज़ से बर्लिन बुलाया।

फ़ाइनल में बहरहाल जर्मनी की एक नहीं चली और भारत ने उसे 8-1 से हरा कर लगातार तीसरी बार स्वर्ण पदक जीता. ध्यानचंद ने इनमें से तीन गोल किए। यहीं से उन्हें हॉकी का जादूगर कहा जाने लगा। बाद में ध्यानचंद की याद में वियना में एक मूर्ति लगाई गई, उन्हें दुनिया का सबसे अच्छा हॉकी खिलाड़ी घोषित किया गया।

1936 के बाद द्वितिय विश्वयुद्ध के कारण बारह साल तक ओलंपिक खेल नहीं हुए। 1948 के लंदन ओलंपिक खेलों में पहली बार आजाद भारत की हॉकी टीम मैदान में उतरी और उसने वेम्बले में हुए फ़ाइनल में ब्रिटेन की टीम को 4-0 से हराया। इसमें दो गोल टीम के सेंटर फ़ॉरवर्ड बलबीर सिंह ने किए। ग़ौरतलब है कि जब तक ब्रितानिया ने भारत पर राज किया उसने भारत की हॉकी टीम के साथ कोई मैच नहीं खेला। 1948 में लंदन हॉकी फ़ाइनल उनका आपस में पहला हॉकी मैच था। 1952 में हेलसिंकी ओलंपिक में भी भारत की विजय गाथा जारी रही और उसने फ़ाइनल में हॉलैंड को 6-1 से हराया।

पहली बार हॉकी के अलावा कुश्ती में केएल जाधव ने बैंटमवेट में भारत के लिए कांस्य पदक जीता। 1956 के मेलबोर्न ओलंपिक में भारतीय हॉकी खिलाड़ियों की दिली इच्छा पूरी हुई जब उन्होंने फ़ाइनल में पाकिस्तान को एक-शून्य से हराया। 1956 के ओलंपिक खेलों में पहली बार भारतीय फ़ुटबॉल टीम ने भी झंडे गाड़े. पहली बार हुआ कि भारतीय टीम मेज़बान ऑस्ट्रेलिया को 4-2 से हराकर सेमीफ़ाइनल में पहुँची. नेविन डिसूज़ा ने हैट्रिक गोल किए। सेमीफ़ाइनल में भारत यूगोस्लाविया से 1-4 से हार गया. लेकिन उसके खेल की हर जगह तारीफ़ हुई।

1960 के रोम ओलंपिक में पहली बार भारत की हॉकी में बादशाहत ख़त्म हुई और पाकिस्तान ने उसे एक-शून्य से हराया। लेकिन रोम ओलंपिक याद किया जाएगा मिल्खा सिंह के 400 मीटर दौड़ में ऐतिहासिक लेकिन दिल तोड़ देने वाले प्रदर्शन के कारण। उन्होंने विश्व रिकॉर्ड तोड़ ज़रूर दिया लेकिन सिर्फ़ चौथा स्थान ही हासिल कर सके। 1964 के टोक्यो ओलंपिक में भारत ने पाकिस्तान से बदला ले लिया और मोहिंदर लाल के पेनल्टी स्ट्रोक से किए गए गोल की बदौलत 1-0 से जीत हासिल की। लेकिन इस मैच के हीरो थे भारतीय गोलकीपर शंकर लक्ष्मण ने, जिन्होंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए भारत की तरफ़ कोई गोल नहीं होने दिया।

टोक्यो ओलंपिक के एक और भारतीय हीरो थे गुरबचन सिंह रंधावा जिन्होंने 110 मीटर बाधा दौड़ में न सिर्फ 14 सेकेंड का राष्ट्रीय रिकॉर्ड बनाया बल्कि, विश्व स्तर के धावकों के बीच पाँचवाँ स्थान प्राप्त किया।

टोक्यो ओलंपिक के बाद भारतीय हॉकी का जो पतन शुरू हुआ वो आज तक नहीं रुका। मैक्सिको और म्यूनिख़ में उसे कांस्य मिला और मॉन्ट्रियल में तो उसे पदक की दौड़ से ही बाहर हो जाना पड़ा। लेकिन 1976 का मॉन्ट्रियल ओलंपिक याद रखा जाएगा श्रीराम के 800 दौड़ में प्रदर्शन के कारण। इस स्पर्धा में अलबर्टो जुआनटोरेना ने विश्व रिकॉर्ड बनाया। श्रीराम सिंह सातवें स्थान पर रहे लेकिन क्यूबन एथलीट ने श्रीराम सिंह को जीत का श्रेय दिया।

1984 के लॉस एंजिल्स ओलंपिक को हमेशा याद रखा जाएगा पीटी ऊषा के प्रदर्शन के कारण। महिलाओं की 400 मीटर बाधा दौड़ में वो एक सेकेंड के सौवें हिस्से से कांस्य पदक चूक गईं और चौथे स्थान पर रहीं। इसके बाद 1996 के अटलांटा ओलंपिक में अपने से वरीयता में कहीं ऊंचे खिलाड़ियों को हराकर लियेंडर पेस ने टेनिस की एकल स्पर्धा में कांस्य पदक जीता। केएल जाधव के बाद एकल स्पर्धा में दूसरी बार किसी भारतीय ने पदक जीता था।

2000 में सिडनी ओलंपिक में मल्लेश्वरी महिला भारोत्तोलन में कांस्य लाईं तो 2004 के एथेंस ओलंपिक में राज्यवर्धन राठौर डबल ट्रैप शूटिंग में रजत पदक जीतकर मिनटों में राष्ट्रीय हीरो बन गए। अब बीजिंग ओलंपिक में देखना होगा कि भारतीय निशानेबाज़ या तीरंदाज़ों में से कौन सटीक निशाना लगाता है? महेश भूपति और लिएंडर पेस अपनी टेनिस युगल की विश्व रैंकिंग के साथ इंसाफ़ कर पाते हैं या नहीं? मुक्केबाज़ी में अखिल कुमार में विश्वमंच पर प्रदर्शन करने का दम है या नहीं?

First Published: Thursday, July 5, 2012, 16:42

टिप्पणी

PankajKumar - Kudarkot,Dist-Auraiya,
we say about my hocky team,as dhanraj &major dhyanchand take many newly terms and find many medals & grow up my countries famously in all word then we want present indian hocky team growing up as them>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>thanx i love u............my indians hocky players......
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