Last Updated: Saturday, February 9, 2013, 21:01

रामानुज सिंह
‘अन्ना नहीं यह आंधी है देश का दूसरा गांधी है।’ पिछले साल यह नारा पूरे देश भर में इस कदर गूंजा, जैसे लगा राष्ट्रपिता महात्मा गांधी एक बार फिर अन्ना हजारे के रूप में अवतार लिए हों। पूरा देश एक सूत्र में बंध गया था। हर जगह अन्ना की जय-जयकार होने लगी थी। 16 अगस्त 2011 की क्रांति, आजादी की लड़ाई के दौरान हुई अगस्त क्रांति की यादें ताजा कर दी। देश की जनता 70 हजार करोड़ रुपए के कॉमनवेल्थ घोटाले, एक लाख 76 हजार करोड़ के टू स्पेक्ट्रम घोटाले, महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त थी। उसे एक ऐसे नेता की तलाश थी जो उसकी समस्यायों का निदान कर सके। लोगों ने अन्ना हजारे को अपना नेता मानकर उनमें विश्वास जताया।
फलस्वरूप लाखों लोग सड़क पर उतरकर अन्ना के आंदोलन में शरीक होने रामलीला मैदान पहुंचे। देश की राजधानी दिल्ली आंदोलनकारियों से पट गया। क्या छात्र, क्या किसान, क्या कर्मचारी, क्या व्यापारी सबके-सब इंडिया गेट, जंतर-मंतर, संसद मार्ग और देश के करीब सभी राज्यों में तिरंगा लेकर भारत माता की जय करते हुए नए भारत के निर्माण के लिए अन्ना का समर्थन कर रहे थे। केंद्र सरकार हिल गई थी। संसद में अन्ना के लोकपाल विधेयक पर बहस हुई और यह विधेयक लोकसभा में पारित कर दिया गया। अन्ना को खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सलाम किया।
महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता का देश की सभी राजनीतिक पार्टियों पर से विश्वास उठ चुका था। ऐसे में अन्ना हजारे जैसे ईमानदार और निष्पक्ष छवि वाले नेता का मिलना आम जनता के लिए संजीवनी से कम नहीं था। लेकिन 16 अगस्त 2011 के आंदोलन के सफल होने के बाद अन्ना ने मुंबई में आंदोलन किया जो असफल रहा। उसके बाद मई 2012 में दिल्ली के जंतर-मंतर पर टीम अन्ना ने फिर आंदोलन किया, इस आंदोलन में भी जनता की भागीदारी अपेक्षा अनुरूप नहीं रही। मई 2012 के आंदोलन में अनशन तुड़ावाने आए जनरल वीके सिंह, अभिनेता अनुपम खेर और योगेंद्र यादव समेत कई नामचीन हस्तियों ने अन्ना और टीम अन्ना को देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के हिसाब से राजनीतिक पार्टी बनाने की सलाह दी ताकि जनता को एक विकल्प मिल सके।
टीम अन्ना ने इस पर गहन मंथन किया। उसके बाद राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए जनता से एसएमएस और ईमेल के द्वारा उनकी राय मांगी। ज्यादातर लोगों ने राजनीतिक पार्टी बनाने के पक्ष में अपने विचार रखे। लोगों के विचार जानने के बाद टीम अन्ना ने ऐलान किया कि दो अक्टूबर को राजनीतिक पार्टी के नाम का ऐलान किया जाएगा।
राजनीतिक पार्टी बनाने को लेकर 19 सितंबर को दिल्ली में टीम अन्ना की बैठक हुई। इस बैठक में अन्ना ने राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए इंडिया एगेंस्ट करप्शन द्वारा कराए गए जनमत सर्वेक्षण को भी खारिज कर दिया और कहा, मुझे फेसबुक, इंटरनेट के माध्यम से कराए गए सर्वेक्षण पर भरोसा नहीं है। उन्होंने कहा, मैं राजनीतिक पार्टी बनाने के पक्ष में नहीं हूं और न किसी पार्टी शामिल होऊंगा। अगर कोई पार्टी बनाना चहता है तो बनाए, पर मैं किसी प्रचार अभियान में शामिल नहीं होऊंगा। साथ ही अन्ना ने कहा, ना ही कोई मेरा फोटो और नाम राजनीतिक के लिए इस्तेमाल करे।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश, जहां जनता को लोकतंत्र में पूरा विश्वास है। जनता हर पांच साल में देश का शासन चलाने के लिए अपना जनप्रतिनिधि संसद भेजती है। और जनप्रतिनिधि का काम है जनता के हित में कानून बनाना। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया है। जनता के लिए कानून संसद में बनता है ना कि सड़क पर। अन्ना सही मायने में जनता का हित चाहते हैं तो आम चुनाव लड़कर देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद में जाकर जनहित का कानून बनाएं। जिससे जनता को सही हक मिल सके। अगर वो ऐसा नहीं करते तो यह उनकी सबसे बड़ी भूल है क्योंकि आंदोलन और अनशन से सिर्फ जनता को जगाया जा सकता है पर उसका अधिकार नहीं दिया जा सकता।
राष्ट्रपति महात्मा गांधी ने भी अंग्रेजों की क्रूरता से आजादी दिलाने के लिए आंदोलन किया था। फिर भी गांधी ने आंदोलन के बावजूद तात्कालीन कांग्रेस पार्टी से अपना नाता बनाए रखा। इतना ही नहीं वे बेलगाम अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष भी बने। संपूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण ने भी 1974 में देश भर में आंदोलन किया था, पर उन्होंने भी संसदीय राजनीति का सहारा लिया, फलस्वरूप 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी। तो फिर अन्ना को राजनीति से तौबा क्यों?
आंदोलन और अनशन जनता के अधिकारों की रक्षा करने का हथियार है लेकिन लंबे समय तक आंदोलन और अनशन जनता के हित में नहीं है। क्योंकि इससे समय और धन की बर्बादी होती है। जिसकी वजह से अन्ना के आंदोलन में लोगों की संख्या धीरे-धीरे कम होती गई और आंदोलन असफल हो गया। इसलिए बना समय गवाएं अन्ना को राजनीति में आना चाहिए।
First Published: Monday, September 24, 2012, 18:25