आतंक के रक्तबीज को रोको

आतंक के रक्तबीज को रोको

आतंक के रक्तबीज को रोकोराकेश उपाध्याय

आंतकवाद और अमन-चैन की जंग में हैदराबाद जैसे दोहरे धमाके आगे नहीं होंगे, कहने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि जंग में कुछ भी नाज़ायज नहीं है। शत्रु खुले तौर पर चुनौती देता आ रहा है और दुनिया की कोई सरकार उसे हमेशा के लिए कुचल देने का दावा नहीं कर सकती। गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे हों या कोई और, प्रधानमंत्री की कुर्सी पर मनमोहन सिंह हों या फिर धुर राष्ट्रवाद के झंडाबरदार, कौन कह सकता है कि वो आतंकी हमले न होने देने की गारंटी दे सकता है। फिर सवाल है कि आख़िर रास्ता क्या है?

हैदराबाद धमाकों के पहले पाकिस्तान के क्वेटा में, पेशावर में, कराची में लगातार धमाके हुए हैं, सैकड़ों निर्दोष लोगों की जानें गईं। क्वेटा में तो शिया समुदाय के लोगों ने शवों को दफ़नाने तक से इंकार कर दिया, ज़ाहिर है, आतंक पाकिस्तान के लिए भी अब भस्मासुर बन गया है, जिसे पालने- पोषने और बड़ा करने के आरोपों में पाकिस्तान हमेशा दुनिया भर में अब तक लताड़ा गया। लेकिन जो हालात पाकिस्तान में हैं, उसमें पाकिस्तान पर आरोप मढ़कर ज़िम्मेदारी से दूर नहीं भागा जा सकता, क्योंकि आतंक -फैक्टर पाकिस्तान के स्टेट- एक्टर पर इतना भारी है कि लगाम लगा पाना उसके वश में नहीं। भले ही आईएसआई या पाकिस्तानी सेना पर हम उंगली उठाएं लेकिन, आतंक को आईएसआई के संरक्षण की जो हक़ीक़त है, उसमें हमारे आरोप और सुबूत तब तक बहुत काम नहीं कर सकते जब तक कि अंतर्राष्ट्रीय कुटनीतिक मोर्चे पर पाकिस्तान का साथ देने वाली शक्तियों के मुक़ाबले भारत की आर्थिक और सामरिक ताक़त न खड़ी कर ली जाए।

सवाल अब भारत के सामने ही नहीं, पाकिस्तान और बांग्लादेश के सामने भी खड़ा है कि आतंक के आकाओं को कैसे समाज और राज्य से बिल्कुल अलग-थलग खड़ा कर दिया जाए, क्योंकि हमारे पड़ोस भी आतंक की आग़ से कम नहीं झुलस रहे हैं। दरअसल, आतंक और उसके समर्थकों को जब राज्य की ओर पनाह मिलती है तो ऐसा ही होता है, यही होता आया है। आतंक की बंदूकें अक्सर अपने समर्थकों के ऊपर ही लोगों के ऊपर आग उगलने लगती हैं, उदाहरण भरे पड़े हैं। सोवियत रूस को अस्थिर करने के लिए जिस आतंक को अमेरिका ने पाला और पोसा, अलकायदा के उसी आतंक ने अमेरिका तक को ख़ून के आंसू रुला दिए। स्पष्ट तौर पर राज्य को उस हक़ीकत को पहचानना होगा कि कांटे से कांटा निकालने की तरक़ीब और ज्यादा भयावह हो सकती है अग़र दोनों कांटों के ख़ात्मे का सही इंतज़ाम न कर लिया जाए।

रक्तबीज देश में ही पैदा हों और ज़मीन पर ख़ून की बूंदे गिरने से उनकी संख्या बढ़ने लगे तो आख़िर ख़ात्मा कैसे होगा। अफ़ज़ल गुरु और कसाब के ख़ात्मे के बाद कई गुना अफ़जल और कसाब अग़र पैदा हो जाएं तो क्या समस्या ख़त्म हो जाएगी, जबकि रक्तबीजों को ख़ाद पानी देने वाले संगठन और उनके आका देश के भीतर, और सीमा के उस पार भी किसी ना किसी रूप में बेलग़ाम हैं, सक्रिय हैं।

ज़ाहिर है, तब बड़ी-बड़ी शक्तियों की रणनीति काम नहीं आती और आतंक के ख़िलाफ़ रण में काली- चंडी का मारक मंत्र फूंकना अनिवार्य हो जाता है जिसके एक हाथ में खप्पर हो और दूसरे में कटारी, खून फैलाने नहीं, ख़ून पीने और ज़मीन पर न गिरने देने की सिद्धता के काली -चंडी पाठ को आज समझने की ज़रूरत है, जिसका अभियान शुरु होता है तो, शायद शांति के शिव को भी कुछ वक्त के लिए पैरों तले रौंद देने की ज़रूरत आन पड़ती है।

मतलब यह कि, बग़ैर भावनाओं पर ज़ख्म डाले, आतंक के आकाओं को सिरे से निपटाने की ज़रूरत है, उनके संपर्क- स्रोत चाहे आर्थिक हों या सामाजिक, सभी को काट फेंकने की ज़रूरत है। ज़ाहिर है, ये काम किसी समाज या समुदाय या संगठन पर आरोप मढ़कर नहीं पूरे हो सकते। हमें ये भी समझ लेना चाहिए और आतंक समर्थकों को समझा देना चाहिए, बतौर एक राज्य और देश, भारत सरकार आतंक की किसी मांग के आगे कभी नहीं झुकेगी। इस मामले में हमें डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी और इंदिरा गांधी दोनों के जीवन से सबक लेने की ज़रूरत है। डॉ. मुखर्जी ने कश्मीर के सवाल पर जान देकर देश का रुख साफ कर दिया था कि एक देश में दो विधान, दो निशान और दो प्रधान नहीं चलेंगे। इंदिरा गांधी ने देश की एकता- अखंडता के सवाल पर बलिदान देकर हमें भविष्य का रास्ता बता दिया था कि क्या करना है , कैसे करना है , नेतृत्व के तौर पर हमें आगे का रास्ता कैसे तय करना है?

आतंक के ख़िलाफ युद्ध में पहली तैयारी राज्य को करनी है और जो कर रहा है क्योंकि संविधान ने राज्य को ये ज़िम्मेदारी दी है कि वो अपने हर नागरिक की सुरक्षा का पुख्ता बंदोबस्त करे। राज्य के लिए ज़रूरी है कि जिन बातों और जिन विचारों से आतंक पनपता है, फैलता है, उन पर वोट बैंक की चिंता किए बग़ैर लगाम लगाए। आतंक की विदेशी चाल और देसी भटकाव में अंतर समझे, विदेशी नेटवर्क देश में न फैलने दे और ना ही देश के युवकों को उनके जाल में फंसने दे, यानी भटकाव का प्रबंध बेहद ज़रुरी है। देश में आतंक के स्लीपर सेल बन चुके संगठनों को साम - दाम-दंड - भेद के ज़रिए खत्म करे। राजनीतिक तौर पर भी, देश की राजनीतिक को तय करना होगा कि आतंक के ख़िलाफ़ लड़ाई, सियासी नफ़ा- नुक़सान से इतर है और सत्ता में कोई भी हो, कभी भी आतंक के मसले पर चुनावी वितंडावाद नहीं खड़े किए जाने चाहिए। जो चीज़ नीति और रणनीति के स्तर पर तय हो रही है, उसमें कम से कम वोटबैंक के लिए तो रद्दोबदल न करे। इस लिहाज़ से अहम सवाल आतंक के खिलाफ़ ताक़तवर समर्थ केंद्रीय एजेंसी का भी है जिसे मिलने वाली गिरफ्तारी और छापेमारी की ताक़त पर राज्य सरकारों ने सवाल उठा रखे हैं।

इस बारे में जल्द गतिरोध खत्म कर, ताक़तवर स्वतंत्र केंद्रीय एजेंसी खड़ी करना वक्त की सबसे बड़ी ज़रूरत है। सवाल आतंक के मुज़रिमों को सिर्फ सजा दिलाने भर का नहीं रह गया है, उससे बड़ा मुद्दा है, देश में आतंक की ख़ुराक़ बांटने वाले तंत्र पर लगाम लगाने की, इस तंत्र की पहचान और इसे ख़ाद-पानी देने वाली चीजों की रोकथाम आज कैसे हो?

ज़ाहिर तौर पर, इसके लिए अहम तैयारी गांव-गांव और गली-गली करनी पड़ेगी क्योंकि आतंक समर्थकों का ख़ुला ऐलान यही है कि वो देश के हर शहर, हर कस्बे को दहला देंगे। ये तैयारी सचेत, ज़ागरुक और सतर्क रहने की है जिसमें हर व्यक्ति की हिस्सेदारी है। संदिग्ध की पहचान ज़रूरी है, संदिग्ध हरकतों की टोह लेने की कुशलता ज़रूरी है। इस मामले में ख़ुफिया इंतज़ामों से अलग, पंचायत, वार्ड, स्कूल और थानों के स्तर पर प्रशिक्षण और बंदोबस्त पर नए सिरे से विचार की ज़रूरत है।

आतंक के युद्ध से लड़ने की तैयारी युद्धस्तर पर ही करनी पड़ेगी, लडाई लड़ने का काम सरकार का है, सुरक्षा एजेंसियों का है, और इनके पीछे अग़र समाज की ताक़त नहीं खड़ी होगी, तो इस आतंक की आग में न राज्य बचने वाला है और न समाज।

(लेख में व्यक्त विचार निजी हैं, लेखक ज़ी न्यूज़ से जुड़े हैं)


First Published: Friday, February 22, 2013, 17:07

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