Last Updated: Saturday, March 23, 2013, 19:59
वासिंद्र मिश्र127 साल पुरानी गांधी-नेहरु की विरासत को संभालने का दावा करने वाली और राजीव गांधी के आदर्शों पर देश को 21वीं शताब्दी में लेकर आने वाली पार्टी के सामने आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी है कि नैतिक, कूटनीतिक और सैद्धांतिक मूल्यों को दरकिनार कर वो मनमोहन सरकार को बचाने की हरसंभव जुगत करती नज़र आ रही है।
पंडित नेहरु की निर्गुट नीति, पंचशील का सिद्धांत, इंदिरा-राजीव का पड़ोसियों से बेहतर रिश्ता बनाने की नीति के साथ-साथ इंडियन सब कॉन्टिनेंट में भारत का दबदबा बनाए रखने जैसी नीतियों की अनदेखी करते हुए मौजूदा कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए-2 सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में तमिलों के मसले पर जो स्टैंड लिया है उसे न तो सामरिक और न ही कूटनीतिक दृष्टि से भारत के हित में कहा जा सकता है। गठबंधन के इस दौर में नैतिक और सैद्धांतिक मूल्यों की अपेक्षा करना वैसे भी बेमानी है लेकिन कश्मीर के सवाल पर, अंतरराष्ट्रीय मंच पर पाकिस्तान के खिलाफ मुहिम चलाने वाला भारत अब किस मुंह से संयुक्त राष्ट्र में लिए अपने स्टैंड को जायज़ ठहराएगा।
श्रीलंकाई तमिलों के मसले पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत का श्रीलंका के खिलाफ वोट करना कई सवाल खड़े करता है। इसी कांग्रेस की सरकार ने श्रीलंका के मदद मांगने पर 1987 में वहां इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (आईपीकेएफ) भेजा था । राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे और उस दौरान श्रीलंका में सिंहली और तमिलों के आपसी विवाद की वजह से गृहयुद्ध चल रहा था। श्रीलंका में शांति सेना ने तमिलों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और नतीजा ये हुआ कि भारत में मौजूद तमिल भी नाराज हो गए। जिसकी वजह से 21 मई 1991 को श्रीपेरंबटूर में एक जनसभा को संबोधित करने गए राजीव गांधी की नृशंसता से हत्या कर दी गई।
आज उसी कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार तमिलों के हितों के मसले पर श्रीलंका के खिलाफ है, ऐसे में तमिल तो खिलाफ थे ही, पड़ोसी देश श्रीलंका से भी भारत के रिश्ते मधुर नहीं रह गए हैं। इसका देश की आंतरिक राजनीति पर भी पड़ रहा है। तमिलों के मसले पर डीएमके ने कांग्रेस सरकार से हाथ खींच लिया है वहीं अन्नाद्रमुक और सीपीआई भी अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। 127 साल की हो चुकी कांग्रेस के नेता पार्टी के शानदार इतिहास पर गर्व करते हैं, इसकी विरासत को संजोकर रखने की बात करते हैं। अभी-अभी सोनिया गांधी ने अध्यक्ष पद पर 15 साल पूरे किए हैं जो अपने आप में एक कीर्तिमान है। क्या यही कांग्रेसी इस बात का जवाब दे सकते हैं कि ये कौन सी वैचारिक और कूटनीतिक राजनीति हो रही है। अपनी आंतरिक नीतियों की वजह से सरकार अपने सहयोगियों को नाराज तो कर ही रही है, विदेश नीति भी पर भी इनका रवैया ढुलमुल दिखता है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इन सवालों का जवाब देंगे कि क्या नेहरु, इंदिरा और राजीव गांधी की बनाई नीतियां अब प्रासंगिक नहीं रहीं और इन नीतियों को बदलकर भारत को हासिल क्या हुआ है?
तमिल और सिंहालियों के बीच के मतभेद की वजह से श्रीलंका 25 साल तक गृहयुद्ध की आग में झुलसता रहा। यह गृहयुद्ध तभी खत्म हो पाया जब श्रीलंका की सेना ने 2009 में तमिल उग्रवादी संगठन लिट्टे के चीफ प्रभाकरन को मार गिराया। इस युद्ध के खात्मे के पहले से ही तमिलों के मानवाधिकार के मसले पर बहस चल रही है लेकिन लिट्टे के चीफ रहे प्रभाकरन के बेटे की हत्या की तस्वीरों ने इस बहस को और तेज कर दिया है और कई सवाल खड़े हो गए हैं। इन सवालों के जवाब जानने के लिए इस तमिल और श्रीलंका सरकार के बीच के मतभेद की जड़ तक जाना ज़रूरी होगा।
श्रीलंका में गृहयुद्ध 1983 में शुरू हुआ था लेकिन इसकी बुनियाद ब्रिटिश राज में ही पड़ गई थी और श्रीलंका की आज़ादी के बाद ये मसला बढ़ता ही चला गया। औपनिवेशिक काल में भारत से तमिलों को चाय बागान में काम करने के लिए श्रीलंका ले जाया गया था। बाद में ये वहीं के होकर रह गए थे। लेकिन बहुसंख्यक सिंहला समुदाय इन्हें कभी भी अपने देश का हिस्सा नहीं मान पाया। आज़ादी मिलने के साथ ही सिलोन नागरिकता कानून लाया गया जिसे विवादों की वजह से मान्यता नहीं मिली। इस कानून के मुताबिक उस वक्त सिलोन रहे श्रीलंका में तमिलों को नागरिकता इस बुनियाद पर नहीं मिलती कि वो भारतीय मूल के हैं।
लागू नहीं हो पाने के बावजूद इस कानून ने श्रीलंका में अल्पसंख्यक रहे तमिलों के मन में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी जिसे 1956 में सिंहाली भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाए जाने के बाद और हवा मिली। भाषा की समस्या से तमिलों को नौकरी मिलनी बंद हो गई और जो नौकरी में थे उनसे नौकरी छीन ली गई। शिक्षा के मानकीकरण के नाम पर कानून लाया गया जिसके बाद विश्वविद्यालयों में तमिल छात्रों का दाखिला रुक गया। हर जगह तमिलों से भेदभाव होने लगा लिहाज़ा तमिल खुलकर इसके विरोध में आ गए। धरने से शुरू हुआ विरोध बाद में हिंसक झड़पों में तब्दील हो गया और एक वक्त ऐसा आया जब तमिल विरोधी दंगे होने लगे। सरकार ने तमिल किताबों, साहित्य और सिनेमा पर प्रतिबंध लगा दिया। वो संगठन भी सरकार के निशाने पर आ गए जो तमिलों के पक्षधर थे और उनकी आवाज़ उठाया करते थे।
इन सारी गतिविधियों की वजह से अपने ही देश में तमिलों की हालत बद से बदतर होती चली गई और फिर मजबूरन उन्होंने विद्रोह का रास्ता अख्तियार कर लिया। तमिल अलग राष्ट्र की मांग करने लगे जिसके बाद 1983 में गृहयुद्ध शुरू हो गया। श्रीलंका की सरकार ने कई बार लिट्टे से बातचीत कर मसले का हल निकालने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। इस गृहयुद्ध में कई निर्दोष लोग मारे जा रहे थे लिहाजा श्रीलंका की सरकार ने भारत से मदद मांगी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मदद के लिए इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (शांति सेना) को श्रीलंका भेज दिया। इंडियन पीस कीपिंग फोर्स ने तमिलों के खिलाफ जो कार्रवाई की उसने भारत में रह रहे तमिलों को नाराज कर दिया। इसका नतीजा राजीव गांधी की हत्या के रूप मे दुनिया के सामने आया।
अब 25 साल तक चलने के बाद श्रीलंका का गृहयुद्ध खत्म हो चुका है लेकिन तमिलों के मानवाधिकार का संघर्ष जारी है। भारत सरकार ने इस मसले पर श्रीलंका सरकार के खिलाफ वोट किया है, लिहाजा पड़ोसी देश से रिश्ते तो खराब हो ही गए हैं, अपने ही देश के तमिल नेताओं से भी सरकार ने दुश्मनी मोल ले ली है। क्योंकि प्रस्ताव में जिस भाषा के प्रयोग की मांग डीएमके कर रही थी सरकार ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में इसका कोई ज़िक्र नहीं किया। ऐसे में कांग्रेस की अगुवाई वाली इस सरकार की नीतियों पर सवाल उठने लाजिमी ही हैं।
(लेखक ज़ी न्यूज़ उत्तर प्रदेश/उत्तराखंड के संपादक हैं।)
First Published: Saturday, March 23, 2013, 19:55