Last Updated: Saturday, September 29, 2012, 22:45
बिमल कुमार आर्थिक सुधारों की पटरी पर दौड़ रही यूपीए सरकार जहां आम जनता का भरोसा तोड़ने पर आमादा है, वहीं अपने फैसलों को पूरी तरह जायज ठहराने के लिए तर्कों और दलीलों का सहारा ले रही है। इन फैसलों को आम हित में साबित करने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी हर दिन अपनी कथनी को धार दे रही है, लेकिन वास्तव में आम हित और सरोकार की बात कहीं छिप सी गई है। ऐसा नहीं है कि सुधारों का सकारात्मक असर देश की समूल अर्थव्यवस्था पर नहीं पड़ेगा, पर इसका लाभ समाज के हर तबके तक कितना पहुंचेगा, इसमें संदेह है। आज विभिन्न क्षेत्रों में राजस्व के दुरुपयोग के चलते सच्चे मायनों में निम्न एवं मध्यम वर्ग का विकास बेमानी हो गया है। ऐसे में आम जन का सरकार के प्रति भरोसा टूटना तो लाजिमी है।
वैसे इस भरोसे के टूटने के पीछे कई कारण हैं। बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, भुखमरी, खोखले वायदों आदि से जनता हर दिन दो-चार हो रही है। नतीजा वही ढाक के तीन पात। आर्थिक सुधारों पर लिए गए फैसले के बाद सरकार यह कहने पर मजबूर है कि भरोसा बनाएं रखें। रोजमर्रा से जुड़ी चीजें जब आम आदमी के हद से बाहर होने लगी हैं तो फिर इस भरोसे का क्या मायने है। भरोसा जिंदगी का या फिर जिंदगी छीनने का। आज बाजार में महंगाई को आम आदमी किस अनुपात में भुगत रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। सामानों की कीमत बढ़ने का खौफ और बेरोजगारी के डर ने लोगों को भीतर तक हिलाकर रख दिया है।
अंदरुनी सच्चाई पर गौर करें तो विकसित देशों और कॉरपोरेट जगत के दबाव में रिटेल में एफडीआई पर लिए फैसले के बाद सरकार को अब कहीं न कहीं जनता का विश्वास खोने का भी डर सताने लगा है। इसकी झलक तो प्रधानमंत्री के बयानों से ही मिल जाती है। वैसे भी ‘लाइसेंस राज’ से ‘सुधारों के राज’ तक का सफर तय कर चुकी भारतीय अर्थव्यवस्था ने बीते दो दशकों में कई खट्टे-मीठे अनुभव किए हैं। इस दरम्यान जनता को ही सबसे ज्यादा कीमत चुकानी पड़ी।
आर्थिक सुधारों से जुड़े सरकार के फैसलों पर मची हाय तौबा पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बीते दिनों देश की जनता से अपील की कि सरकार पर भरोसा बनाएं रखें। पीएम ने तर्क दिया कि केंद्र ने जो भी फैसले लिए हैं, वे पूरी तरह देशहित में हैं और इसका फायदा आखिरकार जनता को ही होगा। सवाल यह उठता है कि क्या आर्थिक सुधार को गति देने का यही सबसे उपयुक्त तरीका है और विकास की मंद गति को खत्म किया जा सकता है। महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता से सरकार किस आधार पर दम भर रही है कि भरोसा बनाएं रखें।
राजस्व लूट, घोटालों का प्रपंच, नीतिगत बेइमानी, भ्रष्टाचार आदि से देश का नुकसान तो पहले ही काफी हो चुका है, ऐसे में सरकार आम लोगों से कैसे यह अपेक्षा कर सकती है कि वह उस पर भरोसा करे। ठीक है कि सुधारों से जुड़े फैसले जरूरी थे, लेकिन आम जनता के हितों एवं जरूरतों की पूर्ति क्या सही मायनों में इन फैसलों से हो पाएगी।
इसमें कोई शक नहीं है कि अमेरिका और यूरोप में बिगड़ते हालात के बीच आज देश की अर्थव्यवस्था मुश्किल हालात से गुजर रही है। मगर आम लोगों को रोजमर्रा की दुश्वारियों से निजात दिलाने के लिए सुधार के ठोस कदम अब तक नहीं उठाए गए हैं। डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी, सब्सिडी युक्त रियायती रसोई गैस सिलेंडरों की संख्या सीमित करने और रिटेल मल्टीब्रांड में एफडीआई लागू कर देने के फैसले से ही पूरी तरह आर्थिक संतुलन तो नहीं हो पाएगा। आज देश की दो-तिहाई आबादी चंद रुपये कमाकर अपना पेट पाल रही हो, ऐसे में आर्थिक सुधारों का फैसला इनके पैमाने पर कहां आकर टिकता है। खाने-पीने की चीजें पहले से ही बेहद महंगी है। ऐसे में आम जनता हैरान और परेशान है कि ये क्या हो रहा है। आर्थिक असंतुलन के इस दौर में वह अपना आर्थिक संतुलन कैसे साधे, ये सवाल अब उसे मथ रहे हैं।
देश में बड़े पैमाने पर आर्थिक सुधारों की बात करें तो इसकी शुरुआत 1991 में हुई। उस समय मनमोहन सिंह ही वित्त मंत्री थे। लेकिन देश में समग्र विकास का चेहरा आज तक नहीं दिखा।
पीएम यह दलील देते हैं कि डीजल के मूल्य 17 रुपये प्रति लीटर बढ़ाने की जरूरत थी, पर सिर्फ पांच रुपये बढ़ाए। देश की आधी आबादी छह या उससे कम रसोई गैस सिलेंडर इस्तेमाल करते हैं। इसलिए बाकी लोगों को भी रियायती दर पर छह सिलेंडर मिलेंगे। एफडीआई पर खुदरा व्यापारियों का डर बेबुनियाद है। इससे करोड़ों रोजगार पैदा होंगे और किसानों को लाभ होगा। वहीं, इन दलीलों के खिलाफ हकीकत यह है कि डीजल की मूल्य बढ़ोतरी से किसानों की लागत बढ़ेगी। सार्वजनिक व अन्य यातायात महंगा होगा। माल ढुलाई की कीमतों में वृद्धि से महंगाई में और इजाफा होगा। गौर करने वाली बात यह है कि देश में 80 फीसदी माल ढुलाई सड़क के जरिये होती है। सिलेंडर में सब्सिडी खत्म करने से आम लोगों का बजट बिल्कुल ही बिगड़ जाएगा। एक आम परिवार को साल में कम से कम दस सिलेंडर जरूरत होती है। सब्सिडी वाले सिलेंडरों की संख्या सीमित होने से ज्यादातर लोगों की जेब पर आर्थिक बोझ पढ़ेगा। दूसरी ओर, रिटेल में मल्टीब्रांड एफडीआई से छोटे खुदरा व्यापार से जुड़े करोड़ों लोग बेरोजगार हो जाएंगे। कंपनियां विदेशों में बना सामान अपने स्टोर में बेचेंगी और इसका असर देश के उद्योग पर पड़ेगा। नतीजा यह होगा कि एक तरफ रोजगार बढ़ने की सूरत में दूसरी ओर रोजगार पर शामत भी आएगी।
दावा यह किया जा रहा है कि रिटेल में विदेशी निवेश से किसानों को फायदा ही होगा। उपभोक्ताओं को सस्ता माल मिलेगा और किसानों को उनके उत्पादों के बेहतर दाम। यह न भूलें कि बीते सात-आठ सालों से कुछ कंपनियां मल्टीब्रांड रिटेल में भारतीय बाजार में पहले से है, लेकिन किसानों को अब तक इसका फायदा नहीं मिला है। इन फैसलों से किसानों के लिए बड़े फायदे गिनाने का तर्क कतई गले नहीं उतरता है। जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की काफी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी है।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि आर्थिक सुधार के सरकारी फैसलों का समर्थन करके कांग्रेस ढोल पीट रही है। अर्थव्यवस्था की बेहतरी तभी हो सकती है, जब सरकार की पहल को पूरा जनसमर्थन हासिल हो। आज भी भारतीय राजनीति में आर्थिक उदारीकरण और सुधारों को लेकर दोहरे मानदंड हैं। राजनीतिक तबका सुधारों के फायदे तो खूब उठाता है, लेकिन जनता के सरोकार पूरी तरह दरकिनार कर दिए जाते हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि बिना बड़े सुधारों के अर्थव्यवस्था का फिर से मजबूत होना भी नामुमकिन है। पर सुधार की इस प्रक्रिया में जनता की अनदेखी नहीं होनी चाहिए। साल 2009 की मंदी के बाद ही अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए सरकारी स्तर पर सक्रियता जरूरी थी, मगर ऐसा किया नहीं गया। देश के बढ़ते राजकोषीय घाटे पर चिंता हमेशा जताई गई, लेकिन समय पर उचित कदम उठाए नहीं गए। जिसका नतीजा यह हुआ कि यह घाटा सरकार के लिए सिरदर्द बन गया। जब पानी सिर के ऊपर से बहने लगा तो सरकार की नींद एकाएक टूटी और कर डाले ताबड़तोड़ फैसले। यदि सुधार की प्रक्रिया पहले से सतत जारी रहती तो आज अचानक जनता के ऊपर इतना बोझ नहीं पड़ता।
सवाल यह भी उठता है कि क्या ज्यादा निवेश, उत्पादन बढ़ाने और सब्सिडी खर्च कटौती के अलावा कोई और विकल्प नहीं था। जीडीपी में वृद्धि के लिए क्या समयबद्ध कदम नहीं उठाए जाने चाहिए। कोशिश यह होनी चाहिए कि इन कदमों के तहत आम जनता के सरोकार न पिसे। ढांचागत सुधार, भूमि सुधार, बीमा क्षेत्र सुधार, विनिर्माण क्षेत्र का विकास, एफडीआई नीति में सुधार, कर सुधार, वित्तीय सुधार, कृषि सुधार, सार्वजनिक वित्त सुधार आदि जरूरी हैं। इन सुधारों पर फैसले लिए जाने से पहले यह देखना ज्यादा जरूरी होगा कि अर्थव्यवस्था को कितनी मजबूती मिलेगी और शहरी व ग्रामीण क्षेत्र का पूरा विकास होगा या नहीं।
साल 1980 से लेकर 1990 के बीच देश में उदारीकरण का दौर चला। इसके बाद 1991 से धीरे-धीरे सुधारों का दौर शुरू हुआ जो 2012 तक जारी है। इस बीच देश के समक्ष कुछ मुश्किलें भी आई। 1991 में भारत को विदेशी विनिमय के स्तर पर सबसे खराब दौर से गुजरना पड़ा और सरकार को आर्थिक मदद मिलने से पहले बतौर गारंटी अपना सोना गिरवी रखना पड़ा। बीते कुछ सालों में ज्यादातर क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को खोल दिया गया। अधिकतर उद्योगों को लाइसेंस मुक्त कर दिया गया। स्टॉक मार्केट और बीमा नियामक को ज्यादा अधिकार देकर मजबूती प्रदान की गई। इस दौरान विकास तो हुआ, पर आम आदमी इससे अछूता ही रहा और उसकी जिंदगी में रोशनी नहीं फैली।
मौजूदा समय में सरकार राजस्व में घाटे के बुरे दौर से गुजर रही है। तमाम तरह की सब्सिडी, राजस्व में घाटा, महंगाई दर में इजाफा और वोट बैंक की राजनीति, इन सबने मिलकर एक विचित्र सी स्थिति बना दी है। आर्थिक संतुलन साधने की कोशिश में बाजार की स्थितियों में ऐसे परिवर्तन होते हैं कि जो किसी न किसी तरह से चीजों के दाम बढ़ाते हैं और महंगाई दर में वृद्धि होती है। इन हालातों में राजस्व में घाटे पर नियंत्रण रखना आज सरकार की सबसे पहली वरीयता होनी चाहिए।
First Published: Friday, September 28, 2012, 17:29