सुनवाई में देरी होने पर SC ने 15 मुजरिमों की फांसी की सजा उम्र कैद में बदली

सुनवाई में देरी होने पर SC ने 15 मुजरिमों की फांसी की सजा उम्र कैद में बदली

सुनवाई में देरी होने पर SC ने 15 मुजरिमों की फांसी की सजा उम्र कैद में बदलीनई दिल्ली : उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि मौत की सजा के फैसले पर अमल में अत्यधिक विलंब मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील करने का आधार हो सकता है। न्यायालय ने चंदन तस्कर वीरप्पन के चार सहयोगियों सहित 15 मुजरिमों की मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील करते हुये यह व्यवस्था दी।

शीर्ष अदालत ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि मौत की सजा पर अमल में अत्यधिक विलंब का ऐसे मुजरिमों पर ‘अमानवीय असर पड़ता’ है जो अपनी दया याचिकायें लंबित होने के कारण सालों तक मौत के साये में वेदना का सामना करते हैं।

शीर्ष अदालत के आज के फैसले ने राजीव गांधी हत्याकांड में संथन, मुरूगन और पेरारिवलन उर्फ अरिवु सहित मौत की सजा पाये अन्य मुजरिमों की सजा कम करने का मार्ग प्रशस्त करेगा। इन कैदियों ने भी 11 साल के विलंब से दया याचिकायें अस्वीकार किये जाने के बाद न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।

प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम, न्यायमूर्ति रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति शिवकीर्ति सिंह की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने अपने फैसले में दया याचिकाओं के निबटारे और ऐसे मुजरिमों की मौत की सजा पर अमल के लिये अनेक दिशानिर्देश प्रतिपादित किये।

न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि कोई कैदी मानसिक रोग से ग्रस्त हो तो उसकी भी मौत की सजा को उम्र कैद में तब्दील किया जा सकता है।

न्यायाधीशों ने कहा, ‘चूंकि यह सुविचारित व्यवस्था है कि इस सजा के सुनाये जाने से संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त जीने का अधिकार समाप्त नहीं होता है, मौत की सजा पर अमल करने में अत्यधिक विलंब का मुजरिम पर अमानवीय असर होता है। कैदी के दायरे से परे विलंब होने की परिस्थितियां उसकी मौत की सजा को कम करने का हक देती हैं।’

न्यायाधीशों ने कहा कि दया याचिकाओं के निबटारे में अत्यधिक विलंब और ऐसे कैदियों को उनके भाग्य के बारे में इंतजार कराना मौलिक अधिकारों का हनन है। न्यायाधीशों ने कहा कि अपराध की संगीनता विलंब का आधार नहीं हो सकता है और भारतीय दंड संहिता या आतंकवाद निरोधक कानून के तहत मौत की सजा पाने वाले सभी कैदी सजा में छूट के हकदार हैं।

न्यायाधीशों ने कहा, ‘राष्ट्रपति द्वारा सालों तक दया याचिका विचारार्थ रखे जाने के दौरान कैदी को अनिश्चितता की स्थिति में रखा जाना निश्चित ही उसके लिये वेदनापूर्ण है। यह मौत की सजा पाने वाले कैदी की शारीरिक स्थिति पर प्रतिकूल असर और मानसिक तनाव पैदा करता है।’

न्यायाधीशों ने कहा कि निर्विवाद रूप से, यह न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 21 के संदर्भ में अनुच्छेद 32 के तहत राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका ठुकराये जाने के सवाल पर विचार करते हुये ऐसे कैदी के अपराध के आधार पर विलंब की पीड़ा से बच नहीं जा सकता है।

गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार दया याचिका के निबटारे में केन्द्र आठ से नौ साल लगाता है और एक मामले में तो उसने 14 साल लगाये थे। मौत की सजा पाने वाले कुछ कैदियों ने राष्ट्रपति द्वारा दया याचिका खारिज करने के बाद अदालतों का दरवाजा खटखटाया था।

न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल के अधिकार ‘अनुकंपा’ या ‘विशेषाधिकार’ नहीं है बल्कि यह प्राधिकारियों का ‘कर्तव्य’ है कि दया याचिका का शीघ्रता से निबटारा किया जाये। दया याचिकाओं के निबटारे हेतु राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिये समय सीमा निर्धारित करने से इंकार करते हुये शीर्ष अदालत ने आशा व्यक्त की कि ऐसी याचिकाओं का निबटारा अब अधिक तीव्र गति से किया जायेगा।

न्यायाधीशों ने कहा, ‘हालांकि राष्ट्रपति के लिये दया याचिकाओं के निबटारे हेतु कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती लेकिन हम निश्चित ही संबंधित मंत्रालय से अनुरोध कर सकते हैं कि वह अपने नियमों का सख्ती से पालन करे जिनसे काफी हद तक विलंब कम किया जा सकता है।’(एजेंसी)

First Published: Tuesday, January 21, 2014, 12:00

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