भ्रष्ट तंत्र और बेबाक मीडिया

भ्रष्ट तंत्र और बेबाक मीडिया

ज़ी मीडिया/अंबुजेश कुमार के साथ ब्यूरो रिपोर्ट

निन्दक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। बिना पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय। कबीरदास का सिखाया ये सबक वक्त के साथ बदल चुका है। अब निन्दक को नियरे यानी अपने पास तो छोड़िए। उसे दूर भी चैन से कोई रहने देने को तैयार नहीं है। आलोचना अब इस कदर बेचैन करने लगी है कि जो समर्थ है वो आलोचक को कुचलने तक से परहेज नहीं करना चाहता। ये एक ऐसा सवाल है जो वक्त के साथ बड़ा होता जा रहा है और इसका शिकार बन रहा है मीडिया और मीडिया जैसे वो तमाम प्लेटफॉर्म जिनके जरिए अभिव्यक्ति की आजादी का सूकून महसूस करने की कोशिश होती है, लेकिन बीते कुछ सालों में अभिव्यक्ति की आजादी को अपनी सहूलियत के हिसाब से पारिभाषित करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। हैरानी की बात ये है कि इसमें कोई पीछे नहीं है।

दिन 5 अप्रैल 2011, जगह दिल्ली का जंतर मंतर, महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव से आए एक समाजसेवी का अन्न जल छोड़ देना सत्ता के शीर्ष नेतृत्व को इस कदर विचलित कर देगा ये किसी ने नहीं सोचा था। खुद सत्ता प्रतिष्ठान में बैठे लोगों ने भी, लेकिन जब इस दुबली पतली काया के आंदोलन के साथ पूरा देश खड़ा होने लगा तब जाकर सरकार की नींद टूटी और सरकार के कर्ता धर्ता वजहें तलाशने में जुट गए। इस तलाश का नतीजा निकला सोशल मीडिया यानी फेसबुक, ट्वीटर, यू ट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म। सरकार आनन-फानन में हरकत में आई। इसलिए नहीं कि भ्रष्टाचार से तंग अवाम का गुस्सा सड़कों पर क्यों फूटा उसकी पड़ताल की जाए बल्कि इसलिए कि इस गुस्से को एकजुट बनाने के प्लेटफॉर्म पर शिकंजा कसा जाए। याद करिए कपिल सिब्बल का वो बयान जिसमें उन्होने सोशल मीडिया की निगरानी की जरूरत बताई थी और इसके लिए आईटी एक्ट में संशोधन की सलाह भी दी थी। अब सवाल ये कि आखिर सरकार को सोशल मीडिया पर निगरानी का ख्याल तभी क्यों आया जब भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कड़े कानून की मांग ने जोर पकड़ा।

अतीत में ऐसी कितनी ही घटनाएं गिनाई जा सकती हैं जिसमें सत्तापक्ष ने मीडिया पर तभी आंखे तरेरी हैं जब मीडिया ने सत्ता के केन्द्र में बैठे लोगों और उनसे जुड़े किसी मामले को देश के सामने रखा है। फिर चाहे अगस्टा वेस्टलैंड घोटाले का जिक्र रहा हो, सेना के साजोसामान की खरीद में कमीशन से जुड़ीं खबरें रही हो, टूजी मामले और कोयला मामले में कैग की रिपोर्ट की जिक्र रहा हो, हर बार सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से नसीहतें, हिदायतें और कभी कभार धमकियां तक मिली हैं। रही बात सोशल मीडिया की तो यहां सरकार के पास आईटी एक्ट का हथियार पहले से मौजूद है। जिस पर सरकारी तन्त्र की भृकुटी टेढ़ी हुई तो एक के बाद एक ऐसे मामलों की बाढ़ आ गई जिसमें ऐसे ऐसे मामले सामने आए जिसने सवाल खड़े कर दिए कि सरकार के हाथ आवाज को दबाने की थोड़ी ताकत भी आए तो नतीजा क्या होगा? जरा सिलसिलेवार तरीके से इस फेहरिस्त पर नज़र डालिए।

साल 2012 में बाल ठाकरे के निधन के बाद मुंबई की पालघर पुलिस ने दो छात्राओं को गिरफ्तार किया। छात्राओं का गुनाह बस इतना था कि बाल ठाकरे के निधन पर मुंबई बंद को लेकर एक ने कमेंट किया और दूसरे ने लाइक कर लिया।

अक्टूबर 2012 में पुड्डुचेरी के एक छोटे से व्यापारी को सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उसने वित्तमंत्री पी चिदंबरम के बेटे कार्ती चिदंबरम को लेकर सोशल मीडिया पर कुछ टिप्पणियां कर दी थी।

सितंबर 2012 में मुंबई पुलिस ने कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को गिरफ्तार किया था सिर्फ इसलिए क्योंकि उसने सोशल मीडिया पर कुछ कार्टून बनाकर प्रकाशित कर दिए, मुंबई पुलिस को असीम की हरकत इतनी नागवार गुजरी कि उसने असीम पर देशद्रोह तक का मुकदमा ठोंक दिया था

सोशल मीडिया पर राजनीतिक टिप्पणियों के लिए एक सामाजिक कार्यकर्ता शीबा असलम फहमी के खिलाफ मामला दर्ज किया गया था

अगस्त 2013 में दलित चिंतक और लेखक कंवल भारती को यूपी पुलिस ने यूपी सरकार और दुर्गा नागपाल मामले में टिप्पणी के लिए गिरफ्तार कर लिया था।

अप्रैल 2012 में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कार्टून सोशल मीडिया पर डालने वाले जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर को गिरफ्तार किया गया था।

मई 2012 में एयर इंडिया के तमिलनाडु के दो कर्मचारियों को गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्होने फेसबुक और ऑर्कुट पर ट्रेड यूनियन के नेता के खिलाफ पोस्ट डाली थी

फेहरिस्त काफी लंबी है और यहां इसे बताने का मतलब सिर्फ इतना है कि इनमें से अधिकांश मामलों में पुलिस से चूक हुई और बाद में कोर्ट ने भी इसे लेकर पुलिस को फटकार लगाई, लेकिन सवाल ये नहीं कि पुलिस ने ऐसा क्यों किया बल्कि सवाल ये कि आखिर पुलिस की कार्यशैली से संदेश आखिर क्या गया। जिस आईटी एक्ट के तहत ये तमाम मामले सामने आए उस कानून में धारा 66 ए के तहत झूठे और आपत्तिजनक संदेश भेजने पर सजा का प्रावधान है। ऐसे संदेश जिनसे परेशानी, असुविधा, खतरा, विध्न,अपमान, चोट, आपराधिक उकसावा, शत्रुता या दुर्भावना प्रदर्शित होती हो।

लेकिन सवाल ये कि क्या जिन मामलों में इसका इस्तेमाल सामने आया वो सही था और क्या इन कार्रवाईयों के जरिए ये संदेश देने की कोशिश नहीं हुई कि आलोचना अब बर्दाश्त नहीं होगी। आखिर क्यों ताकतवर की आलोचना गुनाह बन जाती है? आखिर क्यों सत्ता के शीर्ष में बैठे लोगों पर सवाल उठाना भारी पड़ने लगा है? आखिर क्यों आलोचना से सीखने की बजाय आलोचक को कुचलने की कोशिश होती है? क्योंकि बहाना सोशल मीडिया भले है लेकिन निशाना मेनस्ट्रीम मीडिया भी है।

First Published: Sunday, April 6, 2014, 18:13

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