राम नाम की लूट है...

राम नाम की लूट है...

राम नाम की लूट है...वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स

राम और राजनीति एक दूसरे के पर्याय बनते जा रहे हैं। भारत में जब-जब चुनाव होते हैं, राम खुद-ब-खुद चर्चा में आ ही जाते हैं। राम के नाम का सहारा अपने-अपने ढंग से देश की लगभग सभी प्रमुख पार्टियां लेती रही हैं। ये अलग बात है कि राम नाम का सबसे ज्यादा राजनैतिक फायदा उठाकर सत्ता तक पहुंचने में भारतीय जनता पार्टी अपने सभी राजनैतिक विरोधियों को शिकस्त दे चुकी है।

देश में धीरे–धीरे 2014 के आम चुनाव को लेकर राजनैतिक माहौल बनता जा रहा है और इस माहौल को देखते हुए एक बार फिर ’राम नाम’ की लूट मची हुई है। दिलचस्प बात ये है कि राम के नाम का आधुनिक समाज के सांप्रदायिक, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी विचारधारा की राजनीति करने वाले लोग अपने-अपने ढंग से इस्तेमाल करते रहे हैं। भारतीय माइथॉलॉजी पर अगर भरोसा करें तो रावण का राम से युद्ध करने का मकसद उनका साक्षात्कार करना था। रावण जानता था कि उसका वक्त आ चुका है, लेकिन वो चाहता था कि राम के हाथों ही उसे मुक्ति मिले ताकि उसे सीधे स्वर्ग का सुख मिले।

राम के दर्शन का इस्तेमाल महान समाजवादी डा. लोहिया ने भी किया था और अपने मुकाबले कांग्रेस जैसे सशक्त राजनैतिक विरोधी को शिकस्त देने के लिए उत्तर प्रदेश के अयोध्या से रामायण मेले के आयोजन की शुरुआत की थी। डा. लोहिया के राम समाजवाद के प्रतिमूर्ति थे, और डा. लोहिया ने राम को समाज में गैर बराबरी मिटाने वाले नायक के रूप में देखा था। डा. लोहिया से हटकर कांग्रेस पार्टी ने भी समय-समय पर राम का सहारा लिया लेकिन एक दौर ऐसा भी आया जब पूरे देश में राम के नाम पर भारतीय जनता पार्टी ने कांग्रेस के खिलाफ राजनैतिक जनमानस तैयार कर लिया, तब उसको माकूल जवाब देने के लिए राजीव गांधी ने 1989 में आम चुनाव के लिए जनसभा की शुरुआत अयोध्या से की और रामराज्य स्थापित करने का अपना चुनावी नारा दिया। अब ये अलग बात है कि उस समय देश की जनता ने राजीव गांधी के रामराज्य स्थापित करने वाले वादे पर भरोसा नहीं किया और कांग्रेस को सत्ता से बेदखल होना पड़ा।

राम नाम का सहारा लेकर भारतीय जनता पार्टी देश के कई राज्यों सहित केंद्र की सत्ता तक पहुंच गई ये अलग बात है कि सत्ता सुख भोगते हुए भी वो अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण नहीं करा सकी। इसे अब राजनीति की विडंबना ही कहेंगे कि डॉ लोहिया के अनुयायी और समाजवाद के झंडाबरदार बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी कल तक अपने राजनैतिक मित्र रहे भारतीय जनता पार्टी के ही नक्शे कदम पर चलकर राम-नाम की राजनीति में सक्रिय हो गए हैं।

ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार का राम प्रेम अचानक जागा है, इसके पीछे बहुत ही सोची-समझी रणनीति है। बिहार के राजनैतिक गठबंधन से बीजेपी के अलग होने के बाद एक सोच विशेष के लोगों के वोट की भरपाई के मकसद से नीतीश ने 13 नवंबर को अपने कुछ भरोसेमंद पूर्व अधिकारियों के जरिए पटना से 120 किलोमीटर दूर मोतिहारी के केसरिया में तकरीबन 200 एकड़ में विराट रामायण मंदिर के मॉडल का अनावरण किया। मॉडल के अनावरण के मौके पर आयोजित कार्यक्रम में जो मुख्य अतिथि बुलाए गए उसके पीछे एक राजनैतिक एजेंडा है।राम नाम की लूट है...

स्वामी स्वरुपानंद और कांग्रेस के रिश्ते जगजाहिर हैं। नीतीश की नजर 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद बनने वाले राजनैतिक ध्रुवीकरण पर है। ये भी जगजाहिर है कि कांग्रेस के नए कर्णधार राहुल गांधी, लालू यादव के सामने नीतीश कुमार को ही तरजीह दे रहे हैं। इस मंदिर के मॉडल के अनावरण के साथ ही 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद देश में बनने वाले राजनैतिक ध्रुवीकरण या समीकरण का भी अनावरण हो गया है। यहां एक बात और जाननी होगी कि क्यों आज भी राम राज्य की बात होती है। क्यों आज भी राम के नाम पर राजनीति होती है, राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, जो भारतीय समाज के लिए आदर्श रहे हैं। राम को हम कितने रूप में जानते हैं, आज्ञाकारी अनुशासित शिष्य के रुप में जो गुरु के कहने पर आसुरी ताकतों से लड़ता है, गुरु के कहने पर बिना किसी संकोच और डर के शिवधनुष तोड़ता है, कि ये शिव का है और धनुष के टूटने से महाक्रोधी परशुराम का सामना करना पड़ सकता है। भारतीय समाज में जिस संयुक्त परिवार की मर्यादा निभाई जाती है, राम ने उसका भी संदेश दिया था जब वो अपने माता-पिता का ध्यान रखते थे और अपने छोटे भाइयों का ख्याल रखा था। जब राज्याभिषेक की तैयारी हो रही होती है तो अचानक अपने बुजुर्ग पिता के दिए गए वचन को पूरा करने के लिए राम सबकुछ ठुकराकर वनवास के लिए निकल पड़ते हैं।

अपने वनवास के दौरान भी राम ने अपने हर कदम पर अपनी मर्यादा को निभाते दिखते हैं चाहे वो सबरी और निषाद के साथ वक्त बिताना हो या फिर जटायु (गिद्ध), हनुमान, सुग्रीव (बंदर) की मदद लेना हो। चाहे लंका तक जाने के लिए रास्ता देने के लिए आखिरी समय तक समंदर से अनुनय विनय करना हो या फिर ज़रूरत पड़ने पर अपनी ताकत का अहसास कराना हो। चाहे वो युद्ध टालने की हरसंभव कोशिश करना हो या फिर मर्यादा के उच्चतम स्तर को स्थापित करने के लिए युद्ध के अंत में लक्ष्मण को घायल पड़े रावण से जाकर शिक्षा लेने को कहना।

ऐसे में सवाल ये उठते हैं कि जो लोग राम का नाम लेकर राजनीति करते रहे हैं क्या अपनी जिंदगी में उन्होंने राम की तरफ से स्थापित मर्यादा को उतारने की कोशिश की है। राम ने मर्यादा बचाने के लिए सत्ता को छोड़ना पसंद किया, अपनी सबसे प्रिय सीता को छोड़ना पसंद किया, लेकिन हमारे नेतागण सत्ता और धन के लिए मर्यादा की धज्जियां उड़ाना पसंद करते हैं।

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First Published: Thursday, November 14, 2013, 19:09

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