बदल गया जीत का मंत्र !

बदल गया जीत का मंत्र !

बदल गया जीत का मंत्र !वासिंद्र मिश्र
संपादक, ज़ी रीजनल चैनल्स

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जीत का मंत्र बदल गया है। ये मंत्र वो नहीं है पिछले 6 दशक से ब्रह्मास्त्र की तरह काम कर रहा था ना ही ये मंत्र वो है जिसने क्षेत्रीय दलों को भी उनकी उम्मीद से ज्यादा कामयाबी दिलाई थी। बात सिर्फ लोकसभा चुनाव के नतीजों की नहीं है बल्कि राज्यों में विधानसभा चुनाव के नतीजे भी ये बताते हैं कि भारत में एक नए युग की शुरुआत हो गई है।

देश में एक बार फिर जनादेश ने ये साबित कर दिया है कि अब सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला पहले जैसा असरदार नहीं रहा। ये बात भी साबित हो गई है कि लॉलीपॉप और मुफ्तखोरी के फॉर्मूलों से भी सवाल हल नहीं हो सकते। जनता इन फॉर्मूलों को सिरे से खारिज कर रही है, जाति संप्रदाय से ऊपर उठकर सोच रही है। विकास और पारदर्शिता को पसंद कर रही है और जो सरकारें जनता के वेलफेयर के लिए सजग हैं उन्हीं के पक्ष में वोट कर रही है।

इस लोकसभा चुनाव के नतीजों ने भी इस बात को साबित किया है कि जनता ने विकास के वादों पर मुहर लगाया है लेकिन इसके साथ ही अलग अलग राज्यों में आए विधानसभा चुनावों के नतीजों से भी यही बात साबित होती है। उड़ीसा में बीजू जनता दल की जीत भी इसी का नतीजा है। एक अच्छे लेखक के तौर पर भी अपनी पहचान रखने वाले नवीन पटनायक ने सिर्फ विकास की राजनीति के सहारे अपनी पार्टी को सत्ता के अर्श पर पहुंचाया है और विकास के मंत्र ने उन्हें लोकसभा के साथ साथ विधानसभा में भी प्रचंड बहुमत दिया और नवीन पटनायक चौथी बार उड़ीसा की सत्ता पर काबिज हुए हैं।

लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और तमिलनाडू में जयललिता की पार्टी AIADMK को मिली ऐतिहासिक कामयाबी भी इसी बात को बल देती है कि जीत का मंत्र अब बदल चुका है। अब चाहे नवीन पटनायक हों, जयललिता हों या फिर ममता बनर्जी हों। अगर ये जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे होते तो मोदी लहर में ये भी बह जाते। एक तरफ देश में मोदी लहर ने इतिहास रचा है तो दूसरी तरफ इन राज्यों में इन नेताओं ने इतिहास बनाया है। शायद इसीलिए क्योंकि बीजेपी ने जो समुचित विकास, और पारदर्शिता के वादे किए थे। इन राज्यों में जनता को पहले से ही वो सब कुछ हासिल हो रहा था इसीलिए जनता को किसी बदलाव की दरकार नहीं थी।

सिक्किम भी उन राज्यों में से एक है जहां सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट की सरकार बनी है। विधानसभा चुनावों में जीत हासिल कर पवन चामलिंग लगातार पांचवी बार मुख्यमंत्री बनकर नया इतिहास बना चुके हैं। अपने गठन से लेकर अब तक सिक्किम में पवन चामलिंग की पार्टी सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट को कोई मात नहीं दे पाया है और उनकी कामयाबी की सबसे बड़ी वजह विकास और शांति व्यवस्था ही बनाए रखना ही है। ऐसे में सवाल ये है कि जिस मोदी की लहर के बूते बीजेपी ने ऐतिहासिक कामयाबी हासिल की उस लहर में इन राज्यों की सत्तारूढ पार्टियां क्यों नहीं बह पाईं। क्या ये सत्तारूढ़ दल की जनता प्रति बरती गई ईमानदारी का नतीजा नहीं है।बदल गया जीत का मंत्र !

एक तरफ विकास को अपनी जीत का मंत्र बनाकर इन नेताओं और पार्टियों ने देश भर में मची उठापटक के बाद भी शानदार कामयाबी हासिल की तो दूसरी तरफ कई राज्य ऐसे हैं जहां सत्तारूढ़ पार्टियों के पास सिवाय मंथन करने के और कुछ नहीं बचा। ये वो पार्टियां हैं जो अपनी परंपरागत सियासत से ऊपर ना उठ पाने की वजह से अपनी साख भी नहीं बचा पाईं। उन राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियों को करारा झटका लगा है, जहां सत्तारूढ पार्टियां समय के साथ अपनी नीतियां बदलने में नाकामयाब रही हैं। जो इस बार भी चुनाव के मैदान में या तो कास्ट कार्ड प्ले करते रह गईं या फिर मुफ्तखोरी का मैनिफेस्टो बनाकर जीत हासिल करने की कोशिश की।

फिर चाहे वो बिहार में नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू ही क्यों ना रही हो, नीतीश की स्टेट्समैन बनने की कोशिशें कब खत्म हो गईं इसका अंदाजा शायद खुद नीतीश भी नहीं लगा पाए क्योंकि सेक्युलरिज्म के नाम पर बीजेपी से किनारा करने वाले नीतीश महादलितों और महापिछड़ा पंचायतों से ऊपर नहीं उठ पाए और उनके समझने से पहले उनके पैरों के नीचे से ज़मीन खिसक गई।

मुफ्तखोरी के मैनिफेस्टो को अपनी जीत का मंत्र बनाने वाले मुलायम सिंह यादव के साथ भी उत्तर प्रदेश में ऐसा ही हुआ। सरकार के दो साल के बुरे परफॉर्मेंस का जवाब जनता ने लोकसभा चुनावों में दिया। जनता ने विकल्प के तौर बीजेपी को पसंद किया जिसने सबको साथ लेकर सबका विकास करने का वादा किया है। उत्तराखंड में भी कांग्रेस के पिछले दो साल के काम काज का हिसाब जनता ने उनका सूपड़ा साफ करके दिया है। बदलाव की आंधी में यहां बड़े बड़े दिग्गज भी हवा हो गए।

यही हाल राजस्थान में भी हुआ जहां पहले विधानसभा से कांग्रेस के हाथ से सत्ता छिनी बाद में लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस को जनता ने पूरी तरह नकार दिया। जम्मू-कश्मीर में भी सत्तारूढ़ पार्टी से जनता का मन इतना खट्टा हो चुका था कि जनता ने किसी भी सीट पर नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन वाले उम्मीदवारों पर भरोसा नहीं जताया और प्रदेश में इस गठबंधन को अब तक की सबसे बड़ी हार का स्वाद चखना पड़ा। दरअसल ये नतीजे इस बात को साबित करते हैं कि देश में कई दशक से चली आ रही जाति पाति की राजनीति से जनता अब ऊब चुकी है और लहर उसी की है जो जनता की उम्मीदों पर खरा उतरता है।


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First Published: Thursday, May 22, 2014, 15:12

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