Last Updated: Saturday, December 28, 2013, 20:15
अतुल सिन्हाइस समय सोशल मीडिया, टीवी मीडिया और प्रिंट मीडिया अरविंद केजरीवाल के किस्सों से भरा पड़ा है। अचानक ऐसा लगने लगा है मानो कृष्ण ने नया अवतार ले लिया हो, बुराई पर अच्छाई की जीत के साथ भ्रष्टाचार का रावण धू-धू कर जल उठा हो और हम आप जैसे आम लोग मानो खुद को सत्ता का हिस्सेदार मानने लगे हों। ऐसा महसूस हो रहा है मानो दिल्ली विधानसभा या सचिवालय में आप धड़ल्ले से दाखिल हो सकते हैं। केजरीवाल साहब से मिलकर अपना दुख दर्द बयान कर सकते हैं, बिजली, पानी, सड़क, ट्रांसपोर्ट, स्कूल, अस्पताल, पुलिस और कानून व्यवस्था सब कुछ इस ‘आम आदमी’ के आते ही बस ढर्रे पर आ जाएगा। स्वराज आ जाएगा। देश सचमुच फिर से सोने की चिड़िया बन जाएगा (जैसा सीएम केजरीवाल साहब ने अपने भाषण में ‘अगर-मगर’ के साथ कहा)।
सीएम साहब एक बात और लगातार कह रहे हैं कि उनके हाथ में कोई जादू की छड़ी नहीं है कि रातों रात घुमाया और सब कुछ बदल दिया। अगर आप याद करें और इतिहास देखें तो यही भाषा और ठीक यही वाक्य हर नई सरकार के मुखिया की ज़बान पर रहता है। ‘जादू की छड़ी’ की उपमा भाजपाई भी देते रहे हैं, कांग्रेसी भी देते रहे हैं और जहां-जहां सरकारें बदलीं, उनके नए कर्ताधर्ता भी इन्हीं उपमाओं के सहारे सरकारें चलाते रहे और अपनी नाकामी का ठीकरा पिछली सरकारों पर फोड़ते रहे। ये जुमला भी सुनने को लगातार मिलता रहा कि जब हमें भ्रष्टाचार या बेईमानी विरासत में मिली है तो इसे रातों रात दूर कैसे किया जा सकता है।
पूर्व आयकर कमिश्नर और नए सीएम साहब का ‘वैगन-आर और मेट्रो फॉर्मूला’ और अनिल कपूर की तरह ‘नायक’ बन जाने का फिल्मी नज़रिया कितना असरदार होगा, सब देखेंगे लेकिन फिलहाल केजरीवाल सिंड्रोम का मीडिया पर गहरा असर दिख रहा है। देश की राजनीति में ये जो बदलाव की लहर इस बार दिल्ली में दिखी, उसका राष्ट्रीयकरण करने में कोई पीछे नहीं है। लोकसभा चुनाव सामने हैं और इन चंद महीनों में दिल्ली का ये प्रयोग देश की राजनीतिक दशा और दिशा तय कर सकता है। स्टिंग ऑपरेशन्स के ज़रिये ये बताने की कोशिश हो रही है कि केजरीवाल सिंड्रोम का कितना असर पड़ने वाला है, कितना डर और आतंक का आलम है, लाल बत्ती से लेकर सुरक्षा इंतज़ामात तक को लेकर सब कितने सतर्क हैं, फिजूलखर्ची रोकने को लेकर अचानक कितनी चेतना आ गई है, राहुल गांधी कितने बदल गए हैं, बाकी राज्यों के सीएम और नेतागण किस हद तक केजरीवाल के ‘सीधे सादे आभामंडल’ के शिकार हो गए हैं वगैरह-वगैरह।
सीएम साहब ने आते ही ये भी कह दिया है कि भ्रष्ट अफ़सरों को डरने की ज़रूरत नहीं है, फाइलें फाड़ने और कार्रवाई से घबराने की ज़रूरत नहीं है, तबादले की कोशिश करने की भी ज़रूरत नहीं है। एक लाइन में उन्होंने सबको ईमानदार करार दिया है और ये जताने की कोशिश की है कि ब्यूरोक्रेसी मूल रूप से ईमानदार है लेकिन उन्हें बेईमान बनाते रहे हैं राजनेता, मंत्री और राजनीतिक पार्टियां। जाहिर है कि ये सीएम नहीं पूर्व कमिश्नर केजरीवाल बोल रहे हैं। इसलिए उनका ये फार्मूला उन अफसरों को अपने साथ जोड़ लेने का है जिन्हें केजरीवाल से डरा हुआ बताया जा रहा है, जिन्हें शीला सरकार का खासमखास और भ्रष्टाचार में बराबर का हिस्सेदार साबित किया जा रहा है। केजरीवाल को भले ही राजनीति का कच्चा खिलाड़ी कहा जाए, लेकिन इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी मिलने के बाद और अपने थिंक टैंक योगेन्द्र यादव के ‘आम आदमी’ फार्मूले की कामयाबी के बाद अब वो भी समझ चुके हैं कि आम आदमी की नब्ज़ कैसे पकड़ते हैं।
1974 में जेपी के छात्र आंदोलन के बाद इंदिरा गांधी और कांग्रेस के खिलाफ जो लहर चली और 1977 में जिस तरह भारतीय जनसंघ, भारतीय लोकदल और कांग्रेस से टूटकर बने घटक दलों से मिलाकर बनाई गई जनता पार्टी ने कांग्रेस का सफाया कर दिया, केजरीवाल को उसी कड़ी का नया अवतार माना जा रहा है। जनता पार्टी का क्या हश्र हुआ, सबको पता है। बाद में कांग्रेस-बीजेपी विरोधी लहर से उपजी तीसरे मोर्चे की राजनीति और 1989 में बनी राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार का क्या नतीजा हुआ, ये भी सबको पता है। लेकिन गठबंधन सरकारों के इस फार्मूले ने कांग्रेस और बीजेपी को भी नया मंत्र ज़रूर दिया जिसका नतीजा सबने देखा चाहे बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए की सरकार हो या कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार, इनमें कुछ हद तक स्थायित्व तो दिखा ही। बेशक इसके पीछे जनता के सामने विकल्पहीनता की मजबूरी ही क्यों न रही हो। लेकिन क्या इन प्रयोगों के साथ केजरीवाल के आम आदमी के प्रयोग को जोड़ा जा सकता है?
दरअसल आम आदमी पार्टी और एनडीए, यूपीए या तीसरे मोर्चे में मौलिक अंतर है। बाकी गठबंधन तमाम छोटी बड़ी राजनीतिक पार्टियों को जोड़कर बनी हैं जिनमें अपने-अपने निजी हितों के अलावा अपनी-अपनी निजी महात्वाकांक्षाएं और तथाकथित विचारधाराएं हैं, जहां न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर समझौते होते हैं और इससे आपसी टकराव के कई कारण पैदा होते हैं। जबकि आम आदमी पार्टी कई पार्टियों का समूह या गठबंधन नहीं है, यह पूरी तरह नई पार्टी है और अपना अस्तित्व खुद बना रही है। इसे बनाने वाले या इसके नीति निर्धारक ये अच्छी तरह जानते हैं कि जेपी क्या थे, वीपी सिंह क्या थे और तीसरा मोर्चा क्या था। उन्हें ये अच्छी तरह पता है कि अरविन्द केजरीवाल सिर्फ एक चेहरा हैं और उस ‘एग्रेसिव यूथ’ का प्रतिनिधि हैं जो बदलाव चाहता है। लेकिन सीएम बनने के पहले और बाद का फर्क सत्ता का नशा चढ़ने के बाद पता चलता है।
देश में कांग्रेस और बीजेपी जैसी सीज़न्ड पार्टियों के वर्चस्व को तोड़ना एक बड़ी चुनौती है, हर राज्य की क्षेत्रीय पार्टियों के समानांतर खुद को खड़ा करना एक बड़ा काम है और अगर ‘आप’ने बाकी जगह गठबंधन की राजनीति में शामिल होने की कोशिश भी की तो उसका नतीजा भुगतने के लिए भी तैयार रहना होगा। दिल्ली में तो अन्ना के आंदोलन, महिलाओं की असुरक्षा और शीला दीक्षित के बड़बोलेपन ने ‘आप’ को मौका दे दिया लेकिन देश के अलग-अलग राज्यों का, इलाकों का सोशल डाइनॉमिक्स अलग है, ये समझना और अपना जनाधार बनाना आप की सबसे बड़ी चुनौती है।
(लेखक ज़ी रीजनल चैनल्स में एक्जिीक्यूटीव प्रोड्यूसर हैं।)
First Published: Saturday, December 28, 2013, 20:15