Last Updated: Wednesday, January 8, 2014, 14:14
वासिंद्र मिश्रसंपादक, ज़ी रीजनल चैनल्सदेश की सुरक्षा को जितना खतरा बाहरी ताकतों से है उतना ही खतरा आंतरिक भी है और शायद ये खतरा बाहर के तमाम खतरों से ज्यादा है क्योंकि बाहरी खतरों से निपटना आसान होता है। लेकिन अफसोस इस बात का है कि आंतरिक खतरे की चुनौती को भी राजनीतिक दल वोट बैंक के तराजू से तौलते नज़र आते हैं।
आखिर कब तक वोटों की राजनीति होती रहेगी, आखिर कब तक साम्प्रदायिकता, नक्सलवाद और आतंकवाद जैसे गंभीर मुद्दों पर सियासी चालें चली जाती रहेंगी और देश हित को तिलांजलि दी जाएगी ? हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि पैरों के नीचे बारूद बढ़ता जा रहा है लेकिन हमने आंखें बंद कर रखी है और एक शुतुरमुर्ग की तरह ये मानकर चल रहे हैं कि खतरा नहीं है।
सियासी बयानबाजी और वोटबैंक की राजनीति के बीच देखते ही देखते नक्सलवाल की जद में पश्चिमी उत्त्र प्रदेश भी आ चुका है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश सांप्रदायिक लिहाज से हमेशा संवेदनशील रहा है, यहां आतंक की आहट भी सुनाई दे जाती है लेकिन पश्चिमी यूपी में नक्सलवाद का असर अभी तक नहीं दिखा था, पर अब मेरठ से नक्सलियों के मोस्ट वांटेड जोनल कमांडर चंदन सिंह की गिरफ्तारी इस बात का संकेत दे रही है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नक्सलियों की गतिविधियां बढ़ रही हैं।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश पहले से सांप्रदायिकता और आतंकी गतिविधियों के लिहाज से काफी संवेदनशील माना जाता है। ऐसे में पश्चिमी यूपी में नक्सलियों की गतिविधियां बढ़ी तो क्या इस बात की आशंका नहीं है कि बदले हालात में नक्सलियों और आईएसआई का बड़ा गठजोड़ (ग्रैंड एलायन्स) हो सकता है और जो खतरा रेड कॉरिडोर में नज़र आता है। वही खतरा पश्चिमी यूपी में सिर उठा रहा है। ये आशंका इसीलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि छत्तीसगढ़ में नक्सलियों से अत्याधुनिक हथियार मिल चुके हैं जो पाकिस्तान से आए थे।
खुद सुरक्षा एजेंसियां भी मान चुकी हैं कि आईएसआई नक्सलियों के संपर्क में है। सुरक्षा एजेंसियां ये भी मान चुकी हैं कि भारत के प्रतिबंधित संगठन सिमी के लोगों से भी आईएसआई संपर्क में है। नक्सलियों के कैंप में भी सिमी के लोग नज़र आने लगे हैं तो क्या देश में धीरे-धीरे ये गठजोड़ अपने पैर जमा रहा है? क्या इसे तोड़ने के लिए राजनीति से ऊपर नहीं उठना चाहिए? बजाय इसके कि देश के नेता आतंकी-नक्सली के उभरते गठजोड़ से पैदा हो रहे संभावित खतरे से निपटने के लिए मिल-जुल कर नीतियां बनाते, पुलिस व्यवस्था चाक चौबंद करते, सियासी बयानबाजी में ज्यादा दिलचस्पी ले रहे हैं, फिर चाहे वो सत्ता पक्ष के लोग हों या फिर विपक्ष में बैठे लोग।
आपको राहुल गांधी का अक्टूबर में दिया गया बयान याद होगा जब राहुल ने कहा था कि आतंकी संगठन मुज़फ्फरनगर दंगा पीड़ित युवकों के संपर्क में हैं। राहुल ने ये बयान देने से पहले कहा था कि अगर देश में ऐसे हालात बनते हैं जहां किसी की लगातार उपेक्षा होती है तो इसका फायदा देश के दुश्मन उठा सकते हैं। खैर राहुल के बयान के बाद हो हल्ला मचा। नरेंद्र मोदी ने सवाल उठाए कि आखिर खुफिया एजेंसियां किस हैसियत से राहुल गांधी को इस तरह के संवेदनशील जानकारियां देती है, मोदी ने ये भी कहा कि राहुल गांधी अल्पसंख्यकों की छवि खराब कर रहे हैं। इन बातों का जिक्र इसीलिए कि भले ही उस वक्त इस मसले पर गृहमंत्रालय ने चुप्पी साध ली थी। आईबी के सूत्रों ने इस खबर को गलत करार दिया था लेकिन दो महीना बीतते-बीतते मेवात से पकड़े गए लश्कर के दो आतंकियों की डायरी में मुज़फ्फरनगर के बाशिंदों के नामों ने राहुल की बात पर मुहर लगा दी है।
यहां मुद्दा ये नहीं है कि राहुल गांधी को क्यों ये जानकारी दी गई थी, मुद्दा ये है कि मामला इतना संवेदनशील होते हुए क्या इस पर राजनीति होनी चाहिए थी? यहां राहुल गांधी की एक और बात सही नज़र आती है कि आखिर लश्कर-ए-तैयबा के आतंकियों ने मुज़फ्फरनगर के बाशिदों को ही अपने नापाक इरादों में शामिल करने की क्यों ठानी। क्या इसके लिए मुज़फ्फरनगर के हालात जिम्मेदार नहीं है जिस पर बीते 4 महीने से सियासत जारी है और राजनीतिक दलों में वहां के हालात को ज्यादा से ज्यादा भुनाने की होड़ लगी हुई है?

राजनीतिक दलों और नेताओं को वोटबैंक की सियासत से ऊपर उठकर सोचने की जरूरत इसीलिए भी है क्योंकि छह सात साल पहले तक जिस उत्तर प्रदेश के तीन जिले नक्सल प्रभावित थे, वहां नक्सली लगभग 30 जिलों में अपने पैर पसार चुके हैं। इन्हें रोकने और स्थानीय लोगों को नक्सलियों के प्रभाव से दूर रखने की कोशिश में अकेले उत्तर प्रदेश में सालाना सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च होते हैं। केंद्र सरकार भी इसमें मदद करती है लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात ही है। सवाल ये है कि क्या इसके पीछे राजनीतिक पार्टियों की दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी है?
मायावती की सरकार में भी नक्सलियों पर लगाम नहीं लगाया जा सका था लेकिन आतंकवाद को फैलने से रोकने में बीएसपी सरकार काफी हद तक कामयाब थी, हालांकि अब ऐसा नहीं है। शायद समाजवादी पार्टी सरकार की मंशा ही ऐसी नहीं है, वोट बैंक और तुष्टीकरण की राजनीति में समाजवादी पार्टी कई ऐसे लोगों पर भी मेहरबानी दिखा रही है जिसे खुद उस संप्रदाय विशेष के लोग खतरा मानते होंगे। इसीका नतीजा है कि लश्कर जैसे संगठन के लिए भी उपेक्षित और सियासत का शिकार हुए एक खास वर्ग तक पहुंचने में कामयाबी हासिल हो गई है।
बहरहाल हालात इस बात की तस्दीक करते हैं कि उत्तर प्रदेश बारूद की ढेर पर बैठा है, जिस समय पंजाब में आतंकवाद चरम सीमा पर था उस वक्त भी पंजाब के बाद सबसे ज्यादा प्रभावित राज्य उत्तर प्रदेश ही था, सियासी रूप से सबसे ज्यादा सशक्त ये राज्य हमेशा से आतंकियों के निशाने पर रहा है क्योंकि उत्तर प्रदेश में अगर अव्यवस्था होगी देश में अव्यवस्था फैलाना आसान हो जाएगा। तो क्या ऐसे वक्त में भी सियासी दलों के लिए सियासत ज्यादा मायने रखनी चाहिए, क्या आंतरिक सुरक्षा जैसे गंभीर मसले पर कभी फेडरल स्ट्रक्चर तो कभी किसी और बहाने हो रही राजनीति पर रोक नहीं लगनी चाहिए?
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First Published: Wednesday, January 8, 2014, 14:09