Last Updated: Sunday, October 6, 2013, 17:21
आलोक कुमार रावदागी सांसदों और विधायकों को बचाने वाले अध्यादेश की वापसी न तो किसी पार्टी की जीत है और न ही किसी पार्टी विशेष के युवराज की जीत है। यह जनतंत्र की जीत है। हकीकत में लोकतंत्र की यही ताकत होती है। लेकिन अध्यादेश को पेश किए जाने के समय और उसके बाद हुई राजनीति से यह संदेश साफ-साफ गया है कि सभी राजनीतिक दल दागी नेताओं को बचाने के लिए आपसी मतभेद भुलाकर एकजुट थे। ऐसा इसलिए क्योंकि अध्यादेश का विरोध तो राजनीतिक दलों ने किया, लेकिन जनप्रतिनिधि संशोधन विधेयक 2013 को लेकर सभी मौन थे। इस पूरे प्रकरण में हुई फजीहत के बाद सरकार ने अध्यादेश के साथ-साथ संसद में लंबित जनप्रतिनिधि संशोधन विधेयक 2013 को भी वापस ले लिया है।
केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा आनन-फानन में अध्यादेश किस लिए लाया गया यह सभी को पता है। अध्यादेश पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर होने के बाद फौरी राहत रशीद मसूद और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं को मिलती लेकिन ऐसा नहीं हो सका। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने इस अध्यादेश में पलीता लगाने का काम किया। राहुल को यह आत्मबोध हुआ कि यह अध्यादेश बकवास है और इसे फाड़ कर फेंक देना चाहिए।
अध्यादेश पर राहुल का नाटकीय अंदाज में अवतरित होना और इसका विरोध चौंकाने वाला रहा। समय-समय पर राहुल कुछ अलग सा दिखने के लिए ‘प्रकट’ होते और अपने जनसंपर्क अभियानों से हैरान करते आए हैं। राहुल के इशारे पर फिर पूरी कांग्रेस उनके पीछे खड़ी हो जाती है। इस बार भी ऐसा ही देखने को मिला। जिस वक्त कांग्रेस के सभी नेता अध्यादेश की प्रासंगिकता और उसके औचित्य के बारे में कसीदे पढ़ रहे थे, उसी समय राहुल ने अध्यादेश को बकवास बता दिया। फिर क्या था, सभी कांग्रेसी प्रवक्ता एक सुर में राहुल का गुणगान करने लगे। स्वामीभक्ति और वफादारी का नायाब उदाहरण कांग्रेस को छोड़ कहीं और नहीं देखी जा सकती।
सवाल है कि राहुल को यह आत्मबोध इतनी देरी से क्यों हुआ। विधेयक के संसद में पेश होने से लेकर अध्यादेश लाने तक दो महीने का समय बीता, उस समय राहुल क्या कर रहे थे। इस दौरान वह किसी भी क्षण विधेयक और उसके बाद अध्यादेश पर अपनी असहमति एवं विरोध सरकार से दर्ज करा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया। अध्यादेश के खिलाफ उभरे जनाक्रोश और इस दौरान मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा का राष्ट्रपति से मुलाकात कर अध्यादेश पर जताया गया विरोध कांग्रेस को अपना पैर पीछे खींचने के लिए बाध्य किया।

साथ ही राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय मंत्रियों को तलब किए जाने और अध्यादेश लाने की जल्दबाजी पर उठाए गए सवाल से कांग्रेस को यह लगा कि राष्ट्रपति अध्यादेश लौटा सकते हैं और ऐसा यदि हुआ तो सरकार की किरकिरी होनी तय थी। भाजपा को इसका श्रेय लेने से रोकने के लिए कांग्रेस ने राहुल की ‘एंग्री यंग मैन’ के तेवर में ‘एंट्री’ कराई। प्रधानमंत्री के स्वदेश लौटने पर कैबिनेट की हुई बैठक में अध्यादेश ही नहीं लंबित विधेयक को भी वापस लेने का फैसला किया गया।
सवाल है कि राजनीति में अपराधिक पृष्ठिभूमि वाले तत्वों को आने से रोकने के लिए राजनीतिक दलों में प्रतिबद्धता क्यों नहीं दिखती। अध्यादेश का विरोध करने वाले दल या दलों ने विधेयक का समर्थन क्यों किया। इसका जवाब भी शायद यही है कि हमारे एक तिहाई जन प्रतिनिधियों पर गंभीर मुकदमें दर्ज हैं। अध्यादेश की वापसी पर यूपीए-2 के सहयोगी दलों की नाराजगी को इससे जोड़कर देखा जा सकता है।
अध्यादेश और विधेयक को वापस लिया जाना भारतीय राजनीति में बदलाव का एक शुभ संकेत है। जनता जागरूक हो रही है। मीडिया और सोशल मीडिया में राजनीति को लेकर लोगों की बनती राय और बहस राजनीतिक दलों को अपनी गलतियां सुधारने के लिए बाध्य कर रहे हैं। राजनीतिक सुधारों की दशा में बढ़ते कदम किसी पार्टी विशेष की जीत नहीं बल्कि लोगों की आकांक्षाओं और आवाज की विजय है।
First Published: Sunday, October 6, 2013, 17:17