Last Updated: Tuesday, October 29, 2013, 18:36
आलोक कुमार रावकथाकार राजेंद्र यादव नहीं रहे। सुबह-सुबह मैंने यह खबर एक समाचार चैनल पर सुनी। मन दुखी हुआ। साथ ही राजेंद्र यादव के बारे में जितनी भी स्मृतियां हैं, वह एक-एक कर मस्तिष्क पटल पर दस्तक देने लगीं। सबसे पहले यही कि नई कहानी के प्रणेताओं में से एक राजेंद्र यादव भी इस दुनिया को छोड़ गए।
मन में सवाल उठा कि नए लेखकों, कवियों, कथाकारों और युवाओं को राजेंद्र यादव जैसा मार्गदर्शन, प्रेरणा और स्नेह अब कौन देगा। एक साहित्यकार के रूप में राजेंद्र जी का कद जितना बड़ा है, वही विशालता उनके व्यक्तित्व में भी विद्यमान थी। उनके दरवाजे सभी के लिए हमेशा खुले रहते थे।
राजेंद्र यादव को कोलकाता से दिल्ली लाने का बहुत कुछ श्रेय प्रख्यात एवं वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह को जाता है। दिल्ली आने से पहले राजेंद्र जी कोलकाता में रहा करते थे और वहां रहते हुए उनका साहित्य सृजन का काम जारी था। राजेंद्र जी का दिल्ली आना एक युगांतकारी घटना साबित हुई। वर्ष 1959 में प्रकाशित उनका उपन्यास ‘सारा आकाश’ काफी चर्चित हुआ। इस उपन्यास ने रूढ़िवादी विचारों एवं परंपराओं पर जबर्दस्त प्रहार किया। इसके बाद तो राजेंद्र जी रुके ही नहीं, सभी तरह के संकीर्ण एवं रूढ़िवादी विचारों के चौखटे को तोड़ते रहे। दलित एवं स्त्री विमर्श जो हिंदी साहित्य के हाशिए पर था, उसे अपने लेखन के जरिए बहस के केंद्र में लाए।
राजेंद्र जी एक निडर एवं निर्भीक कथाकार थे। जो कुछ भी उन्हें कहना होता था, उसे बेबाकी से कहा करते थे। भले ही उनकी इस बेबाकी से उनका कोई नजदीकी एवं घनिष्ठ मित्र नाराज ही क्यों न हो जाए। उन्होंने अपने विचारों एवं मान्यताओं से कभी समझौता नहीं किया। पत्रिका ‘हंस’ के संपादकीय इसके प्रमाण हैं।

राजेंद्र जी ने दलित एवं स्त्री विमर्श के लिए नए द्वार खोले। अपनी पत्रिका ‘हंस’ के जरिए आधुनिक युग के इन विमर्शों को स्थापित किया और इन्हें नई ऊंचाई प्रदान की। राजेंद्र जी को जब-जब भी मौका हाथ लगा अपने संपदाकीय से सांप्रदायिकता पर कड़ा प्रहार करने से नहीं चूके। सांप्रदायिकता के विरोध की ऐसी ध्वनि कम ही साहित्यकारों में सुनाई पड़ती है। राजेंद्र जी का यह विरोध कई बार मुसीबत भी लेकर आया। एक संप्रदाय विशेष के लोगों ने ‘हंस’ के कार्यालय पर हमला भी किया और एक दफे वह गिरफ्तार होते-होते बचे।
राजेंद्र जी लंबे समय से बीमार चल रहे थे। उन्हें सांस लेने में तकलीफ थी लेकिन अस्वस्थता से पहले तक वह लेखन एवं साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहे। हिंदी के लेखकों, कथाकारों, कवियों की जो खेप राजेंद्र जी के मार्गदर्शन एवं प्रेरणा से तैयार हुई है, आज वह स्वयं को अनाथ सा महसूस कर रही होगी। अपने जीवन पर्यंत राजेंद्र जी ने महिला एवं पुरुष साहित्यकारों को आगे बढ़ाने का काम किया। जो कोई भी उनके दरवाजे पहुंच जाता, उसकी मदद वह जरूर करते। अपने विचारों से साहित्य की दुनिया में धमाका करने वाले राजेंद्र जी अक्सर विवादों में रहा करते थे। उनके समकालीन साहित्यकार उनके विचारों से असहमत हो सकते थे लेकिन उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते थे। राजेंद्र जी ने स्त्री एवं दलित विमर्श का जो पाठ प्रारंभ किया, वह वैचारिकता एवं विमर्श की नई ऊंचाइयों की ओर अग्रसर है। उन्होंने अपने लेखन से हिंदी साहित्य में जो मुहिम शुरू की, उम्मीद है कि उसे और धार मिलेगी।
First Published: Tuesday, October 29, 2013, 18:07