उत्तर कोरिया : युद्ध या सौदेबाजी| North Korea

उत्तर कोरिया: युद्ध या सौदेबाजी

उत्तर कोरिया: युद्ध या सौदेबाजीआलोक कुमार राव

दुनिया की नजर इन दिनों कोरियाई प्रायद्वीप में उपजे तनाव एवं संकट पर है। उत्तर कोरिया, दक्षिण कोरिया और अमेरिका के बीच रिश्तों में आती रोजाना की तल्खी भावी युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार कर रही है। प्योंगयांग की सामरिक गतिविधियों पर सियोल एवं वाशिंगटन की तैयारी देख ऐसा लगता है कि मोर्चे सज गए हैं और अब बस बिगुल बजने की देर है। लेकिन वाकई में चीजें ऐसी ही हैं जैसा की ऊपर से नजर आ रही हैं, यह देखने वाली बात है। क्या उत्तर कोरिया किसी भी समय अपनी मिसाइलों से अमेरिकी एवं दक्षिण कोरियाई सैन्य प्रतिष्ठानों को निशाना बना सकता है? या प्योंगयांग की ‘उकसावे की कार्रवाई’ के निहितार्थ कुछ दूसरे हैं, जिन पर गौर करने की जरूरत है।

उत्तर कोरिया के इतिहास पर नजर डालें तो वह दुनिया का सबसे बड़ा सैन्यीकृत समाज है। उसकी राष्ट्रीय नीति में सेना पहले ‘मिलिट्री फर्स्ट’ और नागरिक बाद में हैं। एक परिवार केंद्रित और तानाशाही परिवेश में पले-बढ़े और विकसित राष्ट्र की सोच एवं रवैया भी उद्दंड किस्म का होता है। वह अपनी शर्तों पर अपनी नीतियां एवं एजेंडा तय करता है चाहे उसके लिए उसे कीमत भी क्यों न चुकानी पड़े। उत्तर कोरिया इसी रास्ते पर आगे बढ़ा है। एक परमाणु संपन्न राष्ट्र दूसरों को डरा अपनी बातें मनवा सकता है, सौदेबाजी कर सकता है। परमाणु संपन्न राष्ट्र यदि तानाशाही प्रवृत्ति का हो और बात-बात में तलवार म्यान से निकालने की धमकी दे तो खतरे कहीं ज्यादा होते हैं।

उत्तर कोरिया के नेतृत्व में हाल ही में बदलाव हुआ है। दिसंबर 2011 में किम जांग इन के निधन के बाद उनके सबसे छोटे पुत्र किम जांग उन ने सत्ता संभाली है। किम जांग उन के बड़े भाइयों किम जांग नाम और किम जांग चुल को इल का उत्तराधिकारी इसलिए नहीं बनाया गया क्योंकि उनमें तानाशाही प्रवृत्ति नहीं है। चुल स्वभाव से विनम्र माने जाते हैं। जबकि इल के सबसे बड़े पुत्र नाम को एक बार केवल इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया था क्योंकि वह गुपचुप तरीके से डिज्नी लैंड देखने जापान जा रहे थे।

उत्तर कोरिया: युद्ध या सौदेबाजी

देश का नेतृत्व संभालने के बाद किम जांग उन के समक्ष कई चुनौतियां हैं। उनकी सबसे बड़ी चुनौती सेना, कोरियन वर्कर्स पार्टी (केडबल्यूपी) में अपनी स्वीकार्यता कायम करानी है। तीन परमाणु परीक्षणों (2006, 2009, फरवरी 2013) के बाद अमेरिका की ओर से लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों के बाद प्योंगयांग की आर्थिक हालत अच्छी नहीं है। केसांग इंडस्ट्रियल रीजन बंद किए जाने से उत्तर कोरिया को भारी आर्थिक क्षति उठानी पड़ रही है। चार में से प्रत्येक एक बच्चा कुपोषण का शिकार है। देश में अकाल जैसे हालात हैं। अमेरिका द्वारा खाद्य सहायता स्थगित किए जाने का असर खाद्य वितरण प्रणाली पर पड़ा है। इन विपरीत हालातों में किम जांग उन को साबित करना है कि वह अपने पिता के सही उत्तराधिकारी हैं। उन की सारी जद्दोजहद अपने पिता की तरह देश और सेना के बीच अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने की हो सकती है।

यह भी ध्यान रखना होगा कि उत्तर कोरिया का सबसे भरोसेमंद साथी चीन इस अहम मौके पर उसकी पीठ नहीं थपथपा रहा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन भी प्योंगयांग के पास नहीं है। क्यूबाई नेता एवं समाजवादी फिदेल कास्त्रो भी उत्तर कोरिया को किसी तरह के विवाद से बचने की सलाह दे चुके हैं। तो ऐसे में खुद उत्तर कोरिया युद्ध का मोर्चा खोलकर नई मुसीबत मोल नहीं लेना चाहेगा।

कुछ दिनों पहले एक रिपोर्ट में कहा गया कि उत्तर कोरिया में कार्यरत बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश में युद्ध जैसा माहौल नहीं देखतीं और देश में उनके निवेश सुरक्षित हैं। अमेरिका के लिए कंपनियों के हितों की सुरक्षा कितनी महत्वपूर्ण है यह बताने की जरूरत नहीं है। अमेरिकी और दक्षिण कोरियाई इंटेलिजेंस का भी मानना है कि उत्तर कोरिया में इस तरह की सैन्य गतिविधि अथवा हलचल नहीं हो रही है जिससे यह लगे कि उत्तर कोरिया युद्ध के मुहाने की तरफ बढ़ रहा है।

कुल मिलाकर उत्तर कोरिया की उकसावे की यह सारी कवायद अपने ऊपर से आर्थिक प्रतिबंधों को ढीला कराने की हो सकती है। उसकी यह चाल भी हो सकती है कि प्रायद्वीप में तनाव का गुब्बारा इतना भरा जाए कि वह फूटने से पहले उसे राहत पहुंचाए। अंतरराष्ट्रीय दबाव और अपने हितों की सुरक्षा के लिए ओबामा प्रशासन प्रतिबंध हटाए और रियायतें दे। उत्तर कोरिया यह अच्छी तरह जानता है कि परमाणु संपन्न देश होने के नाते विश्व समुदाय उसे विध्वंस के रास्ते पर जाने की इजाजत नहीं देगा। परमाणु संपन्न देश होने की कीमत उसे मिल सकती है और युद्ध के नाम पर तो वह सौदेबाजी कर ही सकता है।

First Published: Monday, April 8, 2013, 14:08

comments powered by Disqus