Last Updated: Friday, March 30, 2012, 17:36
बिमल कुमार यह अजीब विडंबना है कि महंगाई जहां सुरसा की तरह मुंह फैलाए दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, वहीं गरीबी के मानक को घटाया जा रहा है। जाहिर सी बात है कि इन हालातों में गरीब अपनी गरीबी को कहां और कैसे बयां करें, खासकर उस हालात में जब गरीबी के ऐसे ‘निराशाजनक एवं अन्यायपूर्ण’ मानक तय होते हैं।
शहर में 28.65 रुपये और गांवों में 22.42 रुपये से अधिक रोज कमाने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर मानने के योजना आयोग के नए मानदंड कहीं से तर्कसंगत नहीं ठहराए जा सकते। सभी सरकारों से गरीबों की बदहाली दूर किए जाने को लेकर यह अपेक्षा रहती है कि निम्न आय वर्ग, शोषित एवं दबे तबकों की आर्थिक उन्नति के लिए कदम उठाए जाएंगे, लेकिन यहां तो वाकया ही उलट है। घोर गरीबी में गरीब कैसे अपना गुजर-बसर करेंगे। क्या गरीब को और गरीबी में ढकेलना ही नियति बन गई है या वाकई कोई गरीब महज 22-28 रुपये में अपना पेट पाल सकता है।
गरीबी के बारे में योजना आयोग का नया आंकड़ा घोर आलोच्य एवं चिंतनीय है। नए मानदंड देश के गरीबों के साथ क्रूर मजाक नहीं तो और क्या है? सवाल यह उठता है कि क्या योजना आयोग गरीबों की जमीनी हकीकत को समझने में विफल रहा है। गौर हो कि योजना आयोग की ओर से जारी किए गए परिवार उपभोक्ता खर्च के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण 2009-10 पर आधारित गरीबी आंकड़े के मुताबिक, 2009-10 में गरीबी का अनुपात 29.8 प्रतिशत बताया गया जो 2004-05 के 37.2 प्रतिशत से काफी नीचे है। ये आंकड़े शहरों में 28.65 रुपये और ग्रामीण इलाकों में 22.42 रुपये प्रति व्यक्ति दैनिक खपत को आधार मानकर तैयार किए गए।
इसके उलट योजना आयोग का कहना है कि इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि कौन सा तरीका अपनाया गया है, जबकि सच्चाई यह है कि देश में गरीबों की संख्या कम हुई है। यदि इन आंकड़ों को सामाजिक क्षेत्र की कल्याण योजनाओं से जोड़ा जाए तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि गरीबी उन्मूलन की दिशा में यह कितना सार्थक होगा। शहरों में 28 रुपये और गांव में 22.50 रुपये गरीबी गरीबी रेखा तय कर भले ही सरकार गरीबी घटने का दावा करे। मगर हकीकत यह है कि देश भर में 65 प्रतिशत से अधिक किसान परिवार रोजाना 20 रुपये भी नहीं कमा पा रहे। यह खुलासा कहीं और कृषि मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों में हुआ है। जहां तक गेहूं और धान की बात है तो इनकी एक हेक्टेयर खेती पर किसानों को एक साल में क्रमश: 2200 रुपये और 4000 रुपये का औसतन मुनाफा होने की बात सरकारी आंकड़ों में दिखती है।
गेहूं की फसल तैयार होने में पांच महीने से अधिक वक्त लगता है। इस तरह किसान परिवार को मासिक आमदनी 500 रुपये से भी कम पड़ेगी। इसी तरह धान की खेती पर भी चार महीने से अधिक वक्त लगता है। एक आंकड़े के मुताबिक देश में 65 प्रतिशत किसानों के पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है और इनकी तादाद सवा आठ करोड़ से अधिक है। सवाल सिर्फ गरीब कृषकों तक ही सीमित होकर नहीं रहता। खेतिहर मजदूर, श्रमिक वर्ग आदि तो गरीबी से रोज दो-चार होते हैं और फिर भी किसी तरह अपना और परिवार को पेट पाल रहे हैं।
यदि सरकार के पिछले दावों पर गौर करें तो साल 2004-05 में गरीबों की आबादी 40.7 करोड़ और उनका अनुमान 37.2 प्रतिशत था। 4824 रुपये महीने में कमाने वाला पांच लोगों का एक शहरी परिवार गरीब नहीं है। 3905 रुपये प्रति माह कमाने वाला पांच सदस्यीय परिवार गरीबी रेखा से ऊपर है। अब जरा नए दावे पर गौर फरमाएं। नई गरीबी रेखा के मुताबिक देश में गरीबों की संख्या 35.46 करोड़ है। साल 2009-10 के दौरान गरीबी का अनुपात 29.8 प्रतिशत रहा। इन सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले पांच साल में गरीबों की संख्या में कमी आई है। सबसे अधिक गरीबी आदिवासी और दलित समुदाय में व्याप्त है।
सरकार के इन दावों के परे हटकर देखें तो गरीबी हटाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी उपायों को अमल में लाने की दरकार है। जब तक उद्योगों में बड़े पैमाने पर रोजगार नहीं बढ़ेंगे और खेती पर निर्भर लोगों की तादाद नहीं घटेगी, तब तक गरीबी का तेजी से घटना मुश्किल है। इसके लिए निवेश के अलावा शिक्षा और प्रशिक्षण पर जोर देना जरूरी है। परंपरागत किस्म के रोजगारों पर आश्रित लोगों के लिए मुश्किल यह है कि उनके पास वैसी शिक्षा और कौशल नहीं है, जिससे वे नए रोजगारों में खप सकें। वहीं, बेरोजगार या अकुशल किस्म के कामों में अनियमित रोजगार करने वाले युवाओं की तादाद बढ़ रही है।
वहीं, आर्थिक तरक्की के इस दौर में लाभ सभी लोगों तक न पहुंच पाने का एक बड़ा नतीजा यह है कि आय के बंटवारे में असंतुलन बढ़ रहा है। यानी गरीबों और अमीरों के बीच की खाई बढ़ती जा रही है। इसकी बड़ी वजह यह है कि हमारी बड़ी जनसंख्या में नए आर्थिक माहौल का फायदा उठाने के लिए जरूरी योग्यता नहीं है। अगर हमें गरीबी से बाहर आने वाले लोगों की तादाद तेजी से बढ़ानी है और यह भी सुनिश्चित करना है कि जो लोग गरीबी से उबरे हैं, वे फिर उसी दलदल में न चले जाएं, तो रोजगार, कौशल, शिक्षा आदि पर ध्यान देना होगा।
गरीब लोगों के सामने आज महंगी होती शिक्षा भी बड़ी समस्या बनकर उभरी है। सस्ती और अच्छी गुणवत्ता की शिक्षा भविष्य में आर्थिक विकास की अनिवार्य शर्त है और साथ ही गरीबी को खत्म करने का सबसे बड़ा जरिया बने। गरीबों की संख्या घटने की खबर ज्यादा अच्छी तब होती, जब यह सब जगह समान तौर कम होती और समाज में विषमता न बढ़ती, साथ ही मानक भी उसी के अनुरुप तय किए जाते।
First Published: Tuesday, April 3, 2012, 00:38