Last Updated: Thursday, April 18, 2013, 19:33
बिमल कुमार देश में आम चुनाव की घड़ी जैसे जैसे नजदीक आ रही है, राजनीतिक दलों के बीच धर्मनिरपेक्ष और सांप्रदायिक होने को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला खासा तेज हो गया है। कौन ज्यादा धर्मनिरपेक्ष है और किस पर सांप्रदायिकता का ज्यादा ठप्पा है, यह बहस तभी जोर पकड़ती है, जब सत्तारूढ़ होने के लिए सियासी पार्टियां जोर आजमाइश शुरू करती हैं। हैरत उस समय होती है, जब मंसूबों में सफल होने और निश्चित वोट बैंक को अपने पाले में करने के बाद सेक्युलर बनाम कम्यूनल की निरर्थक बहस स्वत: ठंडी पड़ जाती है। अंत में इसका खामियाजा जनता को ही भुगतना पड़ता है। यह कोई पहली बार नहीं है, बीते कई आम चुनावों के दौरान भारतीय जनता पार्टी पर सांप्रदायिक होने का आरोप राजनीतिक दल लगाते आ रहे हैं। आखिर ऐसा क्या है और इसके मूल में क्या है, यह किसी से छिपा नहीं है। वोट बैंक की राजनीतिक प्रपंच में इस गैर निरर्थक बहस को पार्टियां जानबूझकर अंजाम देती हैं ताकि अपना उल्लू सीधा किया जा सके। देश में लोकसभा चुनाव आसन्न है और कई राज्यों में भी आगामी कुछ महीनों के भीतर चुनाव होने हैं, तो फिर सेक्यु्लर और कम्यूनल का जिन्न जिंदा न हो, यह भला कैसे संभव नहीं होगा।
प्रधानमंत्री पद के लिए गुजरात के मुख्य्मंत्री नरेंद्र मोदी की संभावित उम्मीदवारी को लेकर भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) के बीच बीते कई माह से शब्दवाण चल रहे हैं। दोनों दलों के बीच वाकयुद्ध इस कदर गंभीर मोड़ पर पहुंच चुका है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन अब टूट की कगार पर आ खड़ा है। 17 साल पुराने बीजेपी और जेडीयू के रिश्ते में दरार का कारण नीतीश कुमार की पार्टी को मोदी का स्वीकार्य न होना है। मोदी के नाम पर विरोध के मूल में भी धर्मनिरपेक्ष न होने की दुहाई ही दी जा रही है। यहां सवाल यह उठता है कि यदि मोदी धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं तो जेडीयू किस बिना पर बिहार में बीजेपी के साथ गठबंधन सरकार चला रही है। चूंकि बीजेपी के खिलाफ भी अन्य राष्ट्रीय पार्टियां सांप्रदायिक होने को लेकर जब तक हल्ला बोलती रहती हैं। इसका मतलब तो साफ है कि जेडीयू की नजरों में बीजेपी पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष है और मोदी नहीं।
गहराई से देखें तो वोट बैंक को बढ़ाने की खातिर हर राजनीतिक दल अपने एजेंडे पर आगे बढ़ रहा है। चुनाव के पहले जो पटकथा लिखी जा रही है, वह धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के इर्दगिर्द फिर से दृष्टिगोचर होने लगी है। मुस्लिम तबका, पिछड़ी जातियां, दलित समुदाय के वोट बैंक को पक्का करने की खातिर इस बहस को जन्म देकर परवान चढ़ाया जा रहा है ताकि धर्मनिरपेक्ष होने की दुहाई देकर अपना मतलब निकाल सकें।
मोदी की धर्मनिरपेक्षता पर सवाल खड़े कर नीतीश ने बीजेपी को अब सीधे तौर पर चुनौती दी है। एजेंडे के अनुसार नीतीश बीजेपी के साथ चलने के लिए तैयार हैं, पर उन्हें मोदी मंजूर नहीं हैं। फिलहाल मोदी को केंद्र में रख उन्हों ने जो शर्तें रखी हैं, वह संभवत: बीजेपी को मंजूरी नहीं होगा। देश भर में खासा लोकप्रिय हो चुके मोदी की उम्मीदवारी पर नीतीश की आपत्तियों के बाद देखना यह होगा कि बीजेपी इस वार से कैसे निपटती है। वहीं, मोदी के विकास मॉडल से भन्नाए नीतीश कुछ ऐसा करना चाह रहे हैं कि अल्पसंख्यकों के बीच उनकी पैठ और गहरी हो सके। मोदी का प्रबल विरोध करते हुए नीतीश मसले को वाजपेयी वाले राजधर्म की याद दिलाकर 2002 के गुजरात दंगों की तरफ ले जा रहे हैं। मतलब मोदी को पुख्ता पर सांप्रदायिक करार देना।
यदि गौर से देखें तो कांग्रेस को बैठे बिठाए वह सब हासिल हो रहा है, जो संभवत: वह आम चुनाव से कुछ महीने पहले करती। इस बहस को जो मोड़ खुद कांग्रेस देती, वह आज जेडीयू दे रही है। लेकिन निराशाजनक यह है कि इन सबके बीच भ्रष्टाचार, घोटाला, महंगाई, बेरोजगारी जैसे गंभीर मसले काफी पीछे छूट गए हैं।
इसमें कोई संशय नहीं है कि नीतीश का मोदी विरोध राजनीतिक ज्यादा और वैचारिक कम है। समाजवाद के पैरोकार नीतीश के लिए मोदी के साथ खड़े होना इसलिए मुश्किल है क्योंकि वह खुद को सेकुलरवादी राजनीति के अगुआ मान रहे हैं। वोट बैंक की लालसा में साथ आने से गुरेज कर रहे हैं। संभव है कि यदि आगे कोई भी सियासी समीकरण धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हुआ तो उसमें नीतीश का नाम आगे आ सकता है। इसलिए वे खुलकर मोर्चा खोल बैठे हैं। कांग्रेस, बीजेपी से इतर यदि कोई तीसरी ताकत उभरकर सामने आती है तो नीतीश की पीएम बनने की महत्वाकांक्षा शायद उस समय पूरी हो सकती है। हालांकि, नीतीश स्वंय इस बात का अभी खंडन कर रहे हैं पर इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
एक सवाल यहां यह भी उठता है कि यदि बीजेपी-जेडीयू गठबंधन टूटता है तो राज्य के राजनीतिक समीकरणों में बड़ा बदलाव आएगा। मोदी के सवाल पर बीजेपी से अलग होने पर मुस्लिम मतदाताओं का जदयू के साथ आने की संभावना रहेगी। अति पिछड़ा, दलित और अल्पलसंख्यकों के बीच जनाधार बढ़ाने का जेडीयू का मंसूबा पहले से ही साफ नजर आ रहा है। खुद को ज्यादा धर्मनिरपेक्ष मान रहे नीतीश और उनकी पार्टी जेडीयू के लिए आगे की राह उतनी आसान नहीं होगी, जितना आत्म विश्वास उनके बयानों से अभी झलकता है। गठबंधन टूटने की स्थिति में ऐसा कतई संभव नहीं होगा कि पूरा अल्प्संख्यक तबका और पिछड़ी जाति का वोट जेडीयू को ही मिल जाएगा।
जेडीयू ने बीते दिनों दिल्ली में जो राजनीतिक प्रस्ताव पास किया और जो तेवर दिखाए, वह भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को नागवार गुजरा। नीतीश के रुख को लेकर बीजेपी ने भी अपना स्टैंड सख्त किया और कहा कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किसी के प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं है। जिसका सीधा इशारा नीतीश की तरफ था। बीजेपी ने नीतीश को यहां तक याद दिला दिया कि वह 2002 के गुजरात दंगों की पृष्ठ भूमि में हुए साबरमती एक्सप्रेस कांड के समय वाजपेयी सरकार में रेल मंत्री थे।
दिल्ली में पार्टी के अधिवेशन में धर्मनिरपेक्षता और राज्यों के विकास में समावेशी मॉडल की बात कर नीतीश ने पीएम उम्मीदवार तय किए जाने के मापदंड को सामने रखा और चार सूत्री एजेंडे के साथ बीजेपी को दिसंबर तक का अल्टीमेटम दिया। जो शर्तें रखी गई, उसमें सरकार चलाने के एनडीए के पूर्व घोषित एजेंडे के प्रति प्रतिबद्धता, धर्मनिरपेक्षता की शर्त, समावेशी विकास का पक्षधर और पिछड़े राज्यों के विकास के प्रति संवेदनशीलता व प्रतिबद्धता शामिल है। गौर से देखें तो इसमें शर्त कम और धर्मनिरपेक्षता की दुहाई ज्यादा है।
नरेंद्र मोदी के बीजेपी के संसदीय बोर्ड में शामिल होने के बाद एक तरह से स्पष्ट हो गया कि पार्टी उन्हें पीएम पद का प्रत्या शी बना सकती है। इसके बाद से ही अन्य दलों की भौहें तनने लगी। जेडीयू, शिवसेना ने पीएम उम्मीदवार घोषित करने को लेकर दबाव बनाना शुरू कर दिया। वहीं, मोदी की बढ़ती लोकप्रियता ने भी अन्य दलों में हलचल पैदा कर दी। जो अंतर्मन से विरोध में हैं, वो अब कहने लगे हैं कि पीएम पद का उम्मीदवार ऐसा होना चाहिए जिसकी धर्मनिरपेक्ष छवि संदेह से परे हो। यानी मोदी के ‘खौफ’ की काट उन्हें सिर्फ धर्मनिरपेक्ष होने में ही दिख रहा है, बाकी सब मुद्दे गौण।
जेडीयू आज गठबंधन बरकरार रखने के लिए बुनियादी बातों की दुहाई दे रही है। जबकि मोदी पर आपत्ति इसके मूल में है। देखना यह होगा कि नीतीश आगे बढ़कर ऐसा क्या करते हैं, यदि बीजेपी मोदी को पीएम उम्मीदवार घोषित करती है। जेडीयू यह तर्क दे रही है कि नरेंद्र मोदी 2002 में अपने राज्य में दंगे रोक पाने में असफल रहे। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में जेडीयू कहीं सौदेबाजी या दबाव की रणनीति तो नहीं अपना रही है? बिहार के आर्थिक विकास का मॉडल की बात कर समावेशी विकास पर जोर दे रहे नीतीश शायद कुछ मौलिक बातों पर गौर नहीं कर रहे हैं। उनकी कवायद सिर्फ राजनीतिक वोट बैंक तक सिमटती दिख रही है। नीतीश आज मोदी के लिए उस बात का उल्लेख कर रहे हैं, जिसमें गुजरात दंगों के समय `राजधर्म` निभाने की सलाह दी गई थी। अब सवाल यह भी है कि नीतीश को यह सलाह देने की याद पहले क्यों नहीं आई।
गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों में मुसलमानों के मारे जाने की वजह से मोदी अक्सर आलोचना के केंद्र में रहे। संभवत: उन्हें इस बात का भान था कि इस वजह से उनके खिलाफ फिर धर्मनिरपेक्षता के पैरोकार दल की हमले तेज करेंगे। तभी मोदी ने बीते दिनों भारतीय-अमेरिकी समुदाय को संबोधित करते हुए कहा था कि उनके लिए धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा ‘पहले भारत’ है। इसके तहत सभी नागरिकों के लिए भारत ही सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। धर्मनिरपेक्ष होना अच्छी बात है। धर्मनिरपेक्षता के तहत सभी धर्मों के प्रति समानता का भाव जरूरी है। परंतु क्या ऐसा हो रहा है। राजनीतिक दलों के सेक्युलर और कम्यूनल केंद्रित बहस से निराशा इस बात को लेकर होती है इसको मापने की कसौटी आखिर क्या है और कब तक राजनीति बिसात पर इसकी आड़ में स्वार्थ साधे जाएंगे। खासकर तब जब देश के सामने मौजूदा समय में कई गंभीर मसले विकराल रूप धारण कर चुके हैं। निश्चित तौर पर देशहित और जनहित में राजनीतिक दलों को इससे ऊपर उठना होगा और एक नई दिशा देनी होगी।
First Published: Thursday, April 18, 2013, 19:33