Last Updated: Tuesday, October 1, 2013, 16:56
बिमल कुमार देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था में निश्चित तौर पर अब बदलाव का दौर शुरू हो चुका है। यदि सही मायनों में इन बदलावों को अमलीजामा पहनाया गया तो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था बेहद मजबूत बनकर उभरेगी। खैर होना तो यह बहुत पहले चाहिए था, पर एक कहावत है `देर आए दुरुस्त आए`। जब आम नागरिक उम्मीदवारों को नामंजूर करना शुरू कर देंगे तो भारतीय लोकतंत्र में एक व्यवस्थागत और सकारात्मक बदलाव आएगा ही।
बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में देश के मतदाताओं को एक ऐसा तोहफा दिया है, जिसकी दरकार काफी पहले से थी। शीर्ष कोर्ट ने वोटरों को नकारात्मक वोट (निगेटिव वोटिंग) डालकर चुनाव लड़ रहे सभी प्रत्याशियों को अस्वीकार करने का अधिकार दिया है। इस अधिकार के आगामी दिनों में बेहद सकारात्मक परिणाम सामने आएंगे। देश में अगले साल आम चुनाव होना है और उससे पहले पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होना तय है। ऐसे मोड़ पर वोटरों को यह अधिकार किसी मुंहमांगी सौगात से कम नहीं है।
यह अधिकार प्रत्याशियों से असंतुष्ट लोगों को भी वोटिंग के लिए प्रोत्साहित करेगा। पोलिंग बूथ पर जब ज्यादा कदम बढ़ेंगे तो वोट प्रतिशत में इजाफा होगा। और बदलाव की असली गाथा यहीं से शुरू हो जाएगी। वोटरों को अपने मताधिकार का उपयोग करने का और अधिकार मिलेगा। चुनावी इतिहास में बदलाव की नीतिगत प्रक्रियाओं का दौर शुरू होना कई मायनों में सकारात्मक साबित होगा।
आम लोगों को सुप्रीम अधिकार (राइट टू रिजेक्ट) मिलने के बाद राजनीतिक दलों के होश फाख्ता होना लाजिमी है। वैसे भी राजनीति में अपराधीकरण कोई नई बात नहीं है। लोकतंत्र में वोटर महज एक खिलौना बनकर रह गया था। जिस राजनीतिक पार्टी ने जब चाहा अपनी मर्जी से ऐसे प्रत्याशियों को चुनावी मैदान में उतारा, जिनके हाथ कई जुर्म में गहरे सने हैं। उन्हें न तो मतदाताओं की पसंद की परवाह थी और न ही नैतिकता के पैमाने पर किसी और तकाजे की। उनकी जुगत सिर्फ निर्वाचन सीट पर कब्जा करने की होती थी, चाहे इसकी कितनी ही कीमत देश को क्यों न चुकानी पड़े।
जाहिर है कि जब कोई अपराधी चुनावी मैदान में खड़ा होता था तो जनता उसे गाहे बगाहे वोट देने के लिए मजबूर होती थी। हालांकि, कई वोटर ऐसे भी होते थे जो मन मारकर पोलिंग बूथ की तरफ कदम बढ़ाने से अपने पांव खींच लेते थे। अब वोटरों के पास ऐसा `हथियार` आ जाएगा, जिसकी धमक राजनीतिक दलों के कानों में गहरे स्तर तक गूंजेगी।
वोटरों को उम्मीदवार रिजेक्ट करने का विकल्प मिलना राजनीतिक दलों को खासा नागवार गुजरा है। हालांकि किसी दल की ओर से अब तक कोई मुखर वक्तव्य नहीं आया है, पर अंदरखाते सुगबुगाहट जरूर है। वे इस बात से घबराने लगे हैं कि नेता नापसंद तो हो जाएंगे रिजेक्ट। सही मायनों में राजनीतिक दलों को अब वोटर की ताकत का पता चलेगा। इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) में और मतपत्रों में प्रत्याशियों की सूची के आखिर में ‘ऊपर दिए गए विकल्पों में से कोई नहीं’ यानी एनओटीए का विकल्प मुहैया होने के बाद हर राजनीतिक दल के नेता अब सोचने के लिए मजबूर होंगे। एकबारगी उनके जेहन में यह सवाल जरूर उठेगा कि दागी और अपराधी किस्म के नेताओं को टिकट दिया जाए या नहीं। उनके मन में अब यह डर हमेशा रहेगा कि कहीं मतदाता चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों से असंतुष्ट होने की स्थिति में उन्हें अस्वीकार न कर दे।
इसमें कोई संशय नहीं कि निगेटिव वोटिंग से चुनावों में शुचिता और जीवंतता को बढ़ावा मिलेगा। वहीं, मतदाताओं की व्यापक भागीदारी भी सुनिश्चित होगी। इसके पीछे कारण यह होगा कि चुनाव मैदान में कूदे प्रत्याशियों से असंतुष्ट होने की स्थिति में वोटर प्रत्याशियों को खारिज कर अपनी सुप्रीम राय जाहिर कर पाएंगे। निगेटिव वोटिंग के प्रावधान से निर्वाचन प्रकिया में सर्वांगीण बदलाव तो होगा ही, राजनीतिक दल भी स्वच्छ छवि वाले प्रत्याशियों को ही टिकट देने के लिए मजबूर होंगे। इस कदम से राजनीति में बेलगाम बढ़ते अपराधीकरण पर जबरदस्त ब्रेक लगेगी।
इस अधिकार का सबसे बड़ा सकारात्मक पहलू यह होगा कि चुनाव मैदान में मौजूद प्रत्याशियों से असंतुष्ट वोटर अपनी राय जाहिर करने के लिए बड़ी संख्या में आएंगे। जिसका आखिर में परिणाम यह होगा कि अपराधी, दागी, विवेकहीन तत्व और दिखावा करने वाले शख्स चुनाव से बाहर हो जाएंगे।
ज्ञात हो कि निगेटिव वोटिंग की व्यवस्था इस समय 13 देशों में मौजूद है। अब भारत भी इस श्रेणी में शामिल हो जाएगा। ऐसा कर भारत यह व्यवस्था अपनाने वाला दुनिया का 14वां देश बन जाएगा। मौजूदा समय में निगटिव वोटिंग की व्यवस्था फ्रांस, बेल्जियम, ब्राजील, यूनान, यूक्रेन, चिली, बांग्लादेश, नेवादा, फिनलैंड, अमेरिका, कोलंबिया, स्पेन और स्वीडन में है। वैसे भी किसी भी देश में लोकतंत्र पसंद का मामला होता है और नकारात्मक वोट डालने के नागरिकों के अधिकार का अपना एक व्यापक महत्व है।
हालांकि, ‘कोई विकल्प नहीं’ अधिकार के तहत अभी कुछ प्रावधान को लेकर असमंजस है। मसलन यदि निगटिव वोटिंग के तहत वोटों की संख्या अगर प्रत्याशियों को मिले वोटों से अधिक होगी तो उस हालात में कौन से नियम लागू होंगे। चुनाव आयोग को विकल्प लागू करने से पहले इस दिशा में कोई प्रावधान जरूर तय करना होगा। नया विकल्प एक तरह से अमान्य मत होगा और तब प्रत्याशियों के बीच सबसे अधिक मत पाने वाले उम्मीदार को विजयी घोषित किया जा सकता है।
वैसे भी निगेटिव वोटिंग की आज के चुनावी परिप्रेक्ष्य में ‘नितांत आवश्यकता’ है जो चुनाव प्रक्रिया में व्यवस्थित तरीके से बदलाव लाएगी। राजनीतिक दलों को जनता की इच्छा मानने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। यदि बड़ी संख्या में लोग उनके प्रत्याशियों को अस्वीकार कर देंगे तो फिर उन्हें साफ सुथरी छवि के प्रत्याशी हर हाल खड़े करने ही पड़ेंगे। राजनीतिक दल उच्च निष्ठा वाले प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारने के लिए खुद मजबूर हो जाएंगे।
मतदान करना किसी व्यक्ति का अभिव्यक्ति के अधिकार का हिस्सा है और यह अधिकार संविधान में पहले से ही प्रदत्त है। वोटरों को निगेटिव वोटिंग की अनुमति नहीं देने से अभिव्यक्ति की आजादी का मकसद ही विफल हो जाता है।
ईवीएम में इस विकल्प को बिना किसी अतिरिक्त खर्च या तकनीक में कोई खास बदलाव के बगैर ही इसका प्रावधान हो सकता है। एक बात सबसे जरूरी यह है कि वोट की गोपनीयता को हर हाल में बनाए रखना होगा। एनओटीए के बारे में जनता को जागरूक करना सबसे जरूरी है। असंतुष्ट मतदाता अपना नजरिया जाहिर करने के लिए घरों से बाहर निकलेंगे। और तब उनकी जगह आकर फर्जी वोटिंग करने वाले बेईमान व अराजक तत्वों पर रोक लगेगी। जोकि अब तक के चुनावों में धड़ल्ले से होता आया है।
जिक्र योग्य है कि शीर्ष कोर्ट ने हाल में हिरासत में लिए गए लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक की व्यवस्था दी थी। गंभीर अपराधों में दोषी ठहराए जाने के बाद सांसद और विधायक अयोग्य हो जाएंगे। यह व्यवस्था न केवल सरकार बल्कि अधिकांश राजनीतिक दलों को ऐसी नागवार गुजरी कि वह इस फैसले को पलटने के लिए अध्यादेश तक लेकर आ गई। यह अलग बात है कि भारी आलोचनाओं के बाद सरकार को अपना कदम पीछे खींचने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
सरकार का यह कदम निस्संदेह ‘असंवैधानिक और अनैतिक’ है। इस मुद्दे पर एक विधेयक पहले से ही संसद में लंबित है। जिस पर आगे बढ़ने के बजाय सरकार की ओर से तत्काल अध्यादेश लाना दागियों को बचाने की ही कवायद है। ऐसे में सरकार और अन्य सहयोगी राजनीतिक दलों की मंशा साफ थी। आज दागी नेता राजनीति में किस तरह हावी हैं और राजनीतिक दलों को उनकी कितनी जरूरत है, अब यह किसी से छिपा नहीं रह गया है। सरकार के इस कदम से लोकतंत्र में पहले से ही घट रहा जनता का भरोसा जोखिम में पड़ गया था। क्या अपराधियों, ठगों, धोखेबाजों, बलात्कारियों और हत्यारों को संसद में बिठाना सही है? दागी सांसदों और विधायकों के लिए अध्यादेश लाना सरकार की कौन सी मजबूरी रही, यह भी जगजाहिर हो गया। हाल के इन घटनाक्रमों का फायदा हर हाल में अब वोटरों को ही मिलेगा। दागी नेताओं के रास्ते में अब एक बड़ी बाधा खड़ी हो गई है और ऊपर से उम्मीदवारों को रिजेक्ट करने का अधिकार।
बहरहाल हम बात कर रहे थे वोटरों को मिले वैकल्पिक अधिकार की। ‘राइट टू रिजेक्ट’ से वोट के प्रतिशत में निश्चित तौर पर वृद्धि होगी। तब यह भी हो सकता है कि चुनाव नतीजों में अप्रत्याशित परिणाम देखने को मिलेंगे। कुछ जगहों पर महज कुछ वोटों के अंतर से वैसे प्रत्याशी जीत जाते हैं, जिन्हें वोट प्रतिशत के हिसाब से काफी कम वोट मिलते हैं। यानी महज बीस या पच्चीस फीसदी वोट हासिल कर लेने से पूरे निर्वाचन क्षेत्र के प्रतिनिधित्व का अधिकार उन्हें मिल जाता है। उनमें से कई दागी नेता होते हैं। इस विकल्प के लागू होने के बाद सही मायनों में प्रत्याशियों का चयन तो अब होगा।
ऐसे लोग जो पसंद का उम्मीदवार नहीं होने के कारण मतदान करने नहीं जाते थे, वे अब ‘राइट टू रिजेक्ट’ का उपयोग करने के लिए मतदान केंद्र पर जाएंगे और देश के लोकतंत्र में एक नई गाथा लिखेंगे।
First Published: Monday, September 30, 2013, 23:46