Last Updated: Tuesday, August 7, 2012, 20:18
पुण्य प्रसून बाजपेयी जो लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ कानून की मांग करते हुये जंतर-मंतर से शुरु हुई, वही लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ अब खुद राजनीतिक लड़ाई के लिये उसी जंतर मंतर पर तैयार है। तो क्या वाकई राजनीतिक तौर पर अन्ना हजारे विकल्प देने को तैयार हैं। और अगर सामाजिक संघर्ष का रास्ता राजनीति की राह पकड़ने को तैयार है तो क्या संसदीय राजनीति के भीतर घुसकर अन्ना हजारे चुनावी जीत की उस व्यवस्था को तोड़ देंगे, जो धन-बल से लेकर जातीय समीकरणों के आसरे बनी हुई है।
यह सवाल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि अन्ना आंदोलन भ्रष्टाचार के जिन मुद्दों को उठा रहा है और मौजूदा दौर में भ्रष्टाचार को लेकर जिस तरह सरकार नतमस्तक है, उसकी एक बड़ी वजह राजनीतिक आंदोलन और सामाजिक संघर्ष की वह धारा ही है, जिसने नवउदारवाद या आर्थिक सुधार या फिर लूट की अर्थवयवस्था की तरफ से आंख मूंद कर चुनावी राजनीति के संघर्ष की जीत हार में ही देश को देखना शुरु कर दिया। सीधे कहें तो जेपी आंदोलन के बाद जनता प्रयोग के फेल होने के बाद से जब किसी राजनीतिक आंदोलनों की गोलबंदी किसी भी स्तर पर हुई तो उसे सत्तालोलुपता ही करार दिया गया। और मंडल आयोग के लागू होने के बाद सामाजिक संघर्ष राजनीतिक लाभ पाने में खो गया।
मंडल से निकले जातीय समीकऱण के चुनावी दायरे में कभी आर्थिक सुधार के वह मुद्दे नहीं आये जो दिल्ली से तय होते और गांव को शहर में तब्दील करने से लेकर विकास के नाम पर खेती की जमीन को भी हड़प लेते। इसके उलट चुनावी राजनीति का मतलब वोटरों के लिये सत्ता से सुविधा पाने या फिर न्यूनतम जरुरतों तक के लिये एक नीति बनवाना या पैकेज पाने पर ही जा टिका। यानी राजनीतिक तौर पर बीते बीस बरस में कभी कोई चुनाव इस आधार पर लड़ा ही नहीं गया कि जिस अर्थव्यवस्था को देश की नींव बनायी जा रही है वह गांवों को कंगाल और शहरों को गरीब बना रही है।
ध्यान दें तो अन्ना हजारे राजनीतिक विकल्प का सवाल उठाते हुये पहली बार कुछ नये संकेत दे रहे हैं। जो मनमोहन सिंह के आर्थिक सुधार को चुनौती देता है। ग्राम सभा की गोलबंदी ही नहीं बल्कि सत्ता के विकेन्द्रीकरण के जरीये ग्राम सभा को दिल्ली के निर्णय में दखल देने के सवाल को भी अन्ना जिस तर्ज पर उठा रहे हैं, वह एक नयी राजनीतिक लकीर है। क्योंकि विकास की चकाचौंध में पहली जरुरत जमीन की है और जमीन का मतलब है खेती की जमीन यानी किसानो को मजदूर में बदलने की सोच। आर्थिक सुधार की धारा में इसका कोई विकल्प नौजूदा सरकार के पास नहीं है।
लेकिन अन्ना टीम जब हर ग्राम सभा को ही यह अधिकार देना चाहती है कि जमीन दी जाये या नहीं, निर्णय वही ले तो इसका एक मतलब साफ है कि अन्ना का राजनीति वर्तमान संसदीय चुनावी धारा को 180 डिग्री में घुमाना भी चाहते हैं और आर्थिक सुधार को राजनीतिक चुनौती भी देना चाहते हैं। असल सवाल यही से खड़ा होता है कि क्या वाकई जंतर-मंतर से राजनीतिक विक्लप की धारा निकल पायेगी जो संसद के अभीतक के तौर तरीको को बदल दे। क्योंकि इसका प्रयास इससे पहले कभी किसी आंदोलन में नहीं हुआ जहां संविधान को आधार बनाकर जनता के हक के सवाल खड़े किये जा रहे हैं।
जहां चुनी हुई सरकार को जनता के सेवक के तौर पर काम करने की दिशा में यह कहते हुये ले जाया जा रहा है कि यह संविधान का आधार है। अगर ध्यान दें तो जेपी ने भी जनता पार्टी के चुनावी मैनीफेस्टो में उन बातों का जिक्र किया था जो बकायदा संविधान के जरीये आम लोगो के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। जबकि अन्ना आंदोलन संविधान को ही अपना मैनिफेस्टो मान कर काम कर रहा है। यानी अलग से कोई ऐलान करने की जरुरत नहीं है सिर्फ लोकतंत्र के अर्थ को ही अन्ना हजारे परिभाषित कर रहे हैं। क्योंकि अन्ना जिस राजनीतिक लकीर को खींच रहे हैं उसके दायरे में किसान, मजदूरों के सवाल हैं। देश की खनिज संपदा के लूट के सवाल हैं। भ्रष्टाचार पर नकेल कसने वाले संस्थानों के भ्रष्ट होने के सवाल हैं। यानी पूरी प्रक्रिया में ईमानदारी की राजनीति का सवाल खड़ा होता है।
यहां सवाल वोटरों की इमानदारी और चुनावी राजनीति से मिलने वाली सत्ता की इमानदारी से आगे का है। क्या राजनीतिक विकल्प की सोच इस इमानदारी को चुनावी लड़ाई में मान्यता दे देगी। क्योंकि इमानदारी का चुनावी प्रयास जमानत जब्त करने की दिशा में भी जाती है और जमानत जब्त भी करवाता है। मालवंकर ने तो पोस्ट कार्ड के जरीये वोटरों को अपनी ईमानदारी से चुनाव लड़ने का सच बताया लेकिन गुजरात में वह हार गये। जनरल एस के सिन्हा आर्मी चीफ ना बनाये जाने पर 1984 में पटना से चुनाव मैदान में खड़े हुये लेकिन उनकी जमानत जब्त हो गई। लेकिन इसके उलट 1957 में पटना में नामी अर्थशास्त्री और समाजवादी डा. ज्ञानचंद की जमानत जब्त और किसी ने नहीं बल्कि पटना के बाकरगंज इलाके में पंसारी की दुकान चलाने वाले रामशरण साहू ने करवा दी।
यानी राजनीतिक विकल्प सिर्फ चुनावी जीत से तय नहीं हो सकती बल्कि समाज के भीतर उन आंकाक्षाओं को बदलने से तय होगी, जिसे बीते बीस बरस में राजनीतिक सत्ता के जरीये ही इस तरह जगायी गई है जहा सत्ता पाना या सत्ता की मलाई भर मिल जाने में ही जीवन तृप्त माना जाने लगा है। ऐसे में अन्ना के सामने जंतर-मंतर से आगे का रास्ता सिर्फ राजनीतिक पार्टी बनाने या ईमानदार उम्मीदवारों को खोजने भर का नही है बल्कि राजनीतिक तौर पर मौजूदा परिस्थितियों से उस जनता को जोड़ने का भी है, जो हाशिये पर है। इसलिये पहली बार अन्ना हजारे के देश नवनिर्माण पार्टी <अगर यह पार्टी का नाम हो तो > का काम महात्मा गांधी और विनोबा भावे के सपने को जगाना भी है और जेपी की अधूरी पडी संपूर्ण क्रांति और मंडल आयोग से पैदा हुई सियासी राजनीति से आगे ले जाकर उस आर्थिक सुधार को चुनौती देनी है, जिसकी विंसगतियों से पहली बार पूरा देश आहत है लेकिन किसी दूसरे राजनीतिक दल के पास अभी तक कोई विकल्प नहीं है। (लेखक के ब्लॉग से साभार)
(लेखक ज़ी न्यूज में प्राइम टाइम एंकर एवं सलाहकार संपादक हैं)
First Published: Tuesday, August 7, 2012, 20:18