Last Updated: Wednesday, June 20, 2012, 18:21
पुण्य प्रसून बाजपेयीतो क्या सोनिया गांधी बदल गई हैं? प्रणब मुखर्जी को राषट्रपति पद के उम्मीदवार बनाए जाने का जिस तरह खुद सोनिया ने यूपीए की बैठक में चार लाइनें पढ़कर ऐलान किया, उसके बाद से दिल्ली के राजनीतिक गलियारे में चर्चा यही है कि क्या गांधी परिवार बदल गया है। या सोनिया गांधी बदल गई है। चर्चा की वजह एक ही है। जिस सोनिया गांधी ने राजनीति का ककहरा इंदिरा गांधी के काम करने के तरीके को खुद राजनीति में आने से पहले इंदिरा गांधी की वीडियो क्लिप के जरीये पढ़ा, उस पाठ को सोनिया भूल कैसे गई। क्योंकि इंदिरा गांधी ने कभी खुद से बढ़ा कद राजनीति का भी नहीं होने दिया। इंदिरा गांधी ने तो रायबरेली की हार के बाद रायबरेली के वोटरों को भी नहीं बख्शा।
दोबारा रायबरेली और मेढ़क से जब एक साथ चुनाव जीती तो इंदिरा ने रायबरेली को छोड़ मेढक की सीट बरकरार रखी। और उसके बाद रायबरेली में कभी कोई परियोजना नहीं गई। जबकि उससे पहले हर उद्योगपति लाइसेंस लेने के लिये दस्तावेज में रायबरेली में भी एक यूनिट लगाने का जिक्र करता था। यह अलग मसला है कि लाइसेंस मिलने के बाद चाहे चाहे सिर्फ एक टिन-टप्पर ही रायबरेली में नजर आये। तो जब वोटरों को सीख देने तक की राजनीति इंदिरा ने की तो जिन नेताओं ने इंदिरा को जरा भी झटका दिया उस कड़ी में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ललित नारायण मिश्र को याद किया जा सकता है। लेकिन सोनिया गांधी को लेकर सवाल सिर्फ प्रणब मुखर्जी का नहीं है। सवाल मुलायम सिंह यादव का भी है और ममता बनर्जी का भी है।
प्रणब मुखर्जी ने इंदिरा गांधी के निधन के बाद प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाली थी। मुलायम सिंह यादव ने अप्रैल 1999 में सोनिया गांधी के सत्ता की तरफ बढते कदम को समर्थन न देकर रोका था। और ममता बनर्जी ने खुले तौर पर रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी को बिना प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भरोसे में लिये हटाने का एकतरफा फैसला कर मनमोहन सिंह को आइना दिखाने का काम किया था। जाहिर है 10 जनपथ को जानने वाले यह मानते है कि वहां से कभी विरोध करने वालो को माफी नहीं मिलती। तो क्या सोनिया गांधी ने सभी को माफ कर दिया या फिर राजनीति की बिसात समझने या बिछाने में चूक हुई। असल में चूक तो हुई है और इसे साधने के लिये ही पहली बार 10 जनपथ में इंदिरा गांधी के रणनीतिकार आरके धवन और माखनलाल फोतेदार को एक साथ बुलाया गया और उसी के कांग्रेस की जान में जान आई।
किन सियासत की जिन चालों को राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार को लेकर साधा गया, उसमें सोनिया गांधी के सिपहसलार अहमद पटेल पहली बार चूके, यह भी सच है। अगर प्रणब मुखर्जी के नाम के ऐलान से पहले के पन्नों को उलटे तो 10 जनपथ की मुहर लगने से पहले ही प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बनने की इच्छा खुले तौर पर जताने लगे। प्रणब की इच्छा को विपक्ष ने भी हवा दी। बीजेपी नेता यशंवत सिन्हा और समाजवादी सांसद शैलेन्द्र कुमार ने लोकसभा में खुले तौर पर बजट भाषण के बाद ही प्रणव मुखर्जी को राष्ट्रपति के लिये बधाई दे दी। 10 जनपथ ना तो इस सियासत को समझ पाया और ना ही विरोध की राजनीति में सहमति का घोल, घोल पाया। विरोध के तेवर सहमति ना बनाने के जरीये उभारा गया। और मुलायम सिंह यादव ने 10 जनपथ के इसी राजनीतिक मिजाज को पकड़ा। इसलिये जब ममता बनर्जी और मुलायम ह मिले तो 10 जनपथ इस चाल से भी अनजान रहा कि मुलायम की बिसात पर प्रणब मुखर्जी ना सिर्फ उनके साथ है बल्कि प्रणव मुखर्जी ने ही मुलायम को यह संकेत दिये की आने वाले वक्त में अगर राजनीति तीसरे मोर्चे की तरफ झुकती है तो फिर उनका राष्ट्रपति बनना मुलायम को दो-तऱफा फायदा पहुंचा सकता है।
पहला तो 2014 के आम चुनाव के बाद अगर बहुमत किसी दल या गठबंधन को नहीं मिलता है तो राष्ट्रपति का निर्णय खासा अहम होगा। और दूसरा नेताओं की फेरहिस्त में मुलायम कितने भी स्वीकृत नेता हो लेकिन प्रणब मुखर्जी से ज्यादा स्वीकृति उनकी हो नहीं सकती। यानी भविष्य के लिये प्रणब को राष्ट्रपति बनाने में मुलायम को लाभालाभ है।
इसी समीकरण में प्रणब मुखर्जी इस हकीकत को समझते थे कि उनके नाम का विरोध 10 जनपथ को सहमति की दिशा में ले जाएगा और मुलायम यह जानते समझे रहे कि अगर राजनीतिक हमला मनमोहन सिंह पर होगा तो 10 जनपथ हर हाल में प्रणब मुखर्जी को दी ढाल बनाएगा। हुआ यही। क्योंकि जो बात अब समाजवादी पार्टी से निकल रही है, उसमें मुलायम के बेटे और यूपी के सीएम अखिलेश यादव से लेकर मुलायम के भाई और सपा के रणनीतिकार रामगोपाल यादव तक पहले दिन से लगातार कहते रहे कि राष्ट्रपति तो प्रणब मुखर्जी ही होंगे। और ममता के विरोध को मुलायम सिंह यादव ने यह कहकर शह दी कि अगर राष्ट्रपति के नाम की फेरहिस्त में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नाम डाल दिया जाए तो सोनिया गांधी को पहले अपने बनाए पीएम को बचाना होगा। यानी एक तरफ प्रणव मुखर्जी की मुलायम के जरीये ममता को अपने खुले विरोध के लिये फांसना।
दूसरी तरफ मुलायम का मनमोहन के जरीये प्रणब मुखर्जी पर ही सोनिया गांधी की राजनीति केन्द्रित करना। असल में इस राजनीति बिसात को आखिर में आरके धवन ने तब समझाया जब सबकुछ हाथ से निकल चुका था। और धवन के साथ फोतेदार को लाकर जब 10 जनपथ ने आगे की रणनीति का सवाल उठाया तो पहला और आखिरी सवाल प्रधानमंत्री की मजबूती के साथ साथ कांग्रेस की मजबूती का उठा। लेकिन इन सबके बीचे 10 जनपथ की साख को सबसे उपर रखने का फैसला लिया गया। इसीलिये प्रधानमंत्री का नाम राषट्रपति पद के लिये सामने आने के 24 घंटे बाद ही 10 जनपथ की सिपहसलार और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवदी सामने आए और मनमोहन सिंह को 2014 तक की सत्ता सौपने की बात कह गये। जबकि राष्ट्रपति के उम्मीदवार की सियासत से पहले के दौर को याद कीजिये तो महंगाई, भ्रष्टाचार,कालेधन और यूपी विधानसभा चुनाव में काग्रेस की करारी हार के बाद यह मथा जाने लगा था कि मनमोहन सिंह के आसरे 2014 तक मौजूदा परिस्थितियों को बदलना जरुरी है।
आरके धवन से जो राजनीतिक ज्ञान 10 जनपथ को मिला उसका मजमून यही निकला की राजनीतिक बिसात हमेशा 10 जनपथ को अपनी ही बिछानी होगी। इसीलिये यूपीए के तमाम फैसलो को खारिज करने वाली ममता बनर्जी को लेकर फैसला यही लिया गया कि उन्हें बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जायेगा। मुलायम की इन्ट्री यूपीए के भीतर नहीं होगी। मायावती की सियासत को कुछ और शह दी जायेगी। लेकिन इस राजनीतिक कवायद ने पहली बार 10 जनपथ को भविष्य की राजनीति के लिये नये मापदंड तय करने के मोड पर ला खड़ा किया । जिसमें यह माना गया कि यूपी की बिगडती कानून व्यवस्था के मद्देजनर अखिलेश पर निशाना साध कर मुलायम पर लगाम लगायी जायेगी। आर्थिक तौर पर लिये जाने वाले राजनीतिक फैसलों में सहयोगियों को जोड़ा जायेगा,जिससे सिर्फ प्रधानमंत्री का ही हर फैसला ना लगे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बदलाव जो आर के धवन और माखनलाल फोतेदार ने सुझाये उसके मुताबिक 10 जनपथ को अब पर्देदारी की राजनीति छोड़नी होगी।
यानी जिस तरह 10 जनपथ ने यूपीए सहयोगियों के उम्मीदवार के तौर पर प्रणब मुखर्जी और हामिद अंसारी का नाम रख कर ममता बनर्जी को टटोलना चाहा उसकी जगह 10 जनपथ अब निर्णयात्मक तौर पर ही खुद को रखेगा। और यह राजनीतिक समझ आने वाले वक्त में मंत्रियों के पत्ते फेंटने से लेकर अगले वित्त मंत्री को बनाने में साफ झलकेगा। इतना ही नहीं कुछ राजनीतिक सुधार भी अब 10 जनपथ करना चाहते है। और उसकी पहली नजर आन्ध्र प्रदेश में बढ़ते जगन रेड्डी के कद पर है । यानी संकेत बहुत साफ है कि राष्ट्रपति चुनाव की उम्मीदवारी के खेल ने 10 जनपथ को जो पाठ पढ़ा दिया है, उसमें सोनिया गांधी अब कांग्रेस से लेकर सरकार को मथने के लिये तैयार है। जिसमें पहली बार इंदिरा गांधी के दौर के रणनीतिकार से लेकर खांटी कांग्रेसियों के दिन लौटेंगे या उनकी हैसियत बढ़ेगी। यही संकेत बताते है कि सोनिया गांधी बदल रही हैं। (लेखक के ब्लॉग से साभार)
(लेखक ज़ी न्यूज में प्राइम टाइम एंकर एवं सलाहकार संपादक हैं)
First Published: Wednesday, June 20, 2012, 18:21