Last Updated: Wednesday, September 12, 2012, 19:52
प्रवीण कुमारफिजूलखर्ची वाकई एक तमाशा है। एक ऐसा तमाशा जिसपर कोई रोता है तो कोई हंसता है। एक स्वीडिश चिंतक का कहना है, 'मैं चाहता हूं कि लोग मेरी फिजूलखर्ची पर भले रोएं लेकिन मेरी आर्थिक हैसियत पर जरूर हंसें।' इस स्वीडिश चिंतक के कहने का मतलब यह था कि अगर उसकी फिजूलखर्ची पर कोई हंसता है तो वह खुशफहमी में जीने लगेगा और इससे वह और अधिक फिजूलखर्ची करने लगेगा जो उसके वर्तमान और भविष्य के लिए अच्छा नहीं होगा। इसलिए जरूरी है कि उसकी फिजूलखर्ची पर कोई आंसू बहाए, सख्त आलोचना करे। इस आलोचना में से ही फिजूलखर्ची से बचने की राह निकलेगी। दूसरी अहम बात यह है कि अगर आप आर्थिक रूप से बहुत सशक्त नहीं हैं और उस पर कोई हंसता है तो इससे वह अपनी आर्थिक सेहत को लेकर सतर्क होने की कोशिश करने लगेगा ताकि फिर कोई उसकी गरीबी पर हंसने न पाए। यह सतर्कता उसे बेहतर भविष्य के रास्ते पर ले जाएगा। मुझे ऐसा लगता है कि इन बातों से आप फिजूलखर्ची की वास्तविक अवधारणा को समझ चुके होंगे। दरअसल अभी तक जो बात हमने की ये एक इंसानी जिंदगी में फिजूलखर्ची की भूमिका को परिभाषित करता है। लेकिन हम यहां सरकारी फिजूलखर्ची की बात करना चाहते है। हालांकि एक इंसानी जिंदगी की फिजूलखर्ची और एक सरकार की फिजूलखर्ची के मनोविज्ञान में कोई बड़ा फासला नहीं है। लेकिन चूंकि एक इंसान की फिजूलखर्ची से कुछ एक लोगों पर असर पड़ता है, पर एक सरकार की फिजूलखर्ची से लाखों-करोड़ों लोगों का भविष्य जुड़ा होता है इसलिए बहस सरकारी फिजूलखर्ची पर ही होनी चाहिए।
अभी हाल ही में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक पत्र लिखा है जिसमें कहा गया है कि वह दिल्ली में महापुरुषों के स्मारकों पर आयोजित होने वाले जयंती और पुण्यतिथि कार्यक्रमों के दौरान फिजूलखर्ची में कटौती करें। कांग्रेस पार्टी मुख्यालय के विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस अध्यक्ष ने मंत्रियों से हवाई यात्रा में भी कमी लाने की सलाह दी है। सूचना के अधिकार से मिली एक जानकारी के अनुसार, सरकार ने पिछले तीन साल में विभिन्न नेताओं के गौरव गान वाले विज्ञापनों पर 58 करोड़ रुपए खर्च किए। इनमें से 22 करोड़ रुपए तो सिर्प जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के विज्ञापनों पर खर्च किए गए। सोनिया गांधी का प्रधानमंत्री से आग्रह निश्चित रूप से सराहनीय है, लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या इस तरह की फिजूलखर्ची को सरकार रोक पाएगी।
अनाप-शनाप सरकारी खर्च को लेकर 5 अगस्त 2010 को महंगाई पर जवाब देते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने राज्यसभा में आगाह किया था कि 'मैं इस देश का वैसा वित्त मंत्री नहीं होना चाहूंगा जिसे दूसरे देशों के समक्ष अपमान का सामना करना पड़े। वे उस दिन को नहीं भूल सकते जब देश को महज कुछ लाख डॉलर के लिए अपना सोना विदेशी बैंक में गिरवी रखना पड़ा था।' प्रणव मुखर्जी ने पुरानी बातों को याद करते हुए कहा था कि इस महान देश का वित्त मंत्री एक धनी देश के वित्त मंत्री से मिलने गया था, लेकिन मुलाकात के लिए कुछ वक्त तक इंतजार करना पड़ा था। गौरतलब है कि 1991 में बड़े पैमाने पर भुगतान असंतुलन के कारण देश को कुछ लाख डॉलर के लिए अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था। मुखर्जी ने कहा कि यह अपमान देश को इसलिए सहना पड़ा क्योंकि हम फिजूलखर्ची में शामिल थे।
देश का वित्त मंत्रालय भले ही खस्ताहाल अर्थव्यवस्था की दुहाई दे रहा हो लेकिन आपको ये जान कर हैरानी होगी कि मौजूदा हालात में भी संसदीय समितियों ने स्टडी टूर के नाम पर करोड़ों रुपए उड़ाए हैं। मेल टुडे अखबार ने पिछले दिनों खुलासा किया था कि कैसे 25 संसदीय समितियों ने पिछले तीन सालों में करोड़ों रुपए सिर्फ मुद्दों पर मंथन करने में उड़ा दिए। वित्त मंत्रालय ने साफ तौर पर हिदायत दी थी कि नेता या अफसर सरकारी हवाई यात्राएं इकोनॉमी क्लास में करें और सरकारी रेस्ट हाउस या राज्य सरकारों के चलाए जा रहे होटल में ही ठहरें। लेकिन कुछ नेताओं पर इन हिदायतों का कोई असर नहीं हुआ। पिछले तीन सालों में कोयला औऱ स्टील पर बने पैनल ने पांच यात्राएं की हैं जिनमें से जिन तीन यात्राओं का ब्यौरा मिला है उसमें 62 लाख रुपए खर्च हुए। रेलवे पर बनी संसदीय समिति ने तो पिछले दो सालों में ही 8 ट्रिप बना लिए। कृषि पर बनी संसदीय समिति तो 15 बार स्टडी टूर पर गई। इसके चेयरमैन सीपीएम नेता बासुदेव आचार्या जहां भी गए वहां पांच सितारा होटल में ही ठहरे।
खर्चे में भाजपा सांसद कलराज मिश्र भी पीछे नहीं हैं। पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस समिति के चेयरमैन के नाते कलराज दो बार स्टडी टूर पर गए औऱ पांच शहरों के चक्कर लगाए। सुमित्रा महाजन ने तो ग्रामीण विकास की संसदीय समिति के चेयरमैन के नाते दो टूर में 8 शहरों के चक्कर लगा लिए। इन्होंने इन स्टडी टूर पर 16 लाख 99 हजार रुपए खर्चे। वित्त विभाग की संसदीय समिति के चेयरमैन यशवंत सिन्हा ने 2 टूर पर 6 चक्कर लगाए। हालांकि संसदीय या विधानसभा समितियों की बैठकों या उनके विचार-विमर्श के दायरे में ऐसा कुछ नहीं होता, जिस पर वे केंद्र या राज्य की राजधानी में बैठकर बातचीत न कर सकें। फिर, इन समितियों के गठन का एक मकसद सरकार के कामकाज को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाना भी होता है। मगर क्या समितियों के खुद के कामकाज का तरीका इस उद्देश्य से मेल खाता है? अब तक के अनुभवों से यही जाहिर होता है कि सैर-सपाटे के मामले में सभी दलों के सदस्य एक मत के होते हैं। हम यहां सरकारी फिजूलखर्ची के कुछ सेंपल पेश कर रहे हैं जिन्हें जानना देश की जनता के लिए जरूरी है।
कर्नाटक के नीरोकहते हैं कि जब रोम जल रहा था तो उसका शासक नीरो बंसी बजा रहा था। कर्नाटक के कुछ विधायकों पर भी यही आरोप लगा है। राज्य में 40 साल में आए सबसे भीषण सूखे के बावजूद अपने क्षेत्र की जनता के दुख-दर्द में शामिल होने के बजाय ये विधायक दक्षिण अमेरिकी देशों में छुट्टियों का मजा लेने चले गए। कहा जा रहा है कि सभी माननीय 'स्टडी टूर' पर हैं। दुनिया के विकसित देशों को छोड़कर अर्जेटीना, पेरू और चिली में नागरिक सुविधाओं का अध्ययन करने गए भाजपा, कांग्रेस और जद(एस) के 12 विधायकों और तीन अधिकारियों के दो हफ्ते के दौरे का खर्च लगभग एक करोड़ रुपए आएगा। पता चला है कि पूरे दौरे में विधायक सिर्फ 'टूर' कर रहे हैं। कोई 'स्टडी' नहीं हो रही है। ऐसा कोई कार्यक्रम तय ही नहीं हुआ था।
एक सीएम की शाहखर्चीछत्तीसगढ़ में एक आदमी पर महीने में चावल पर सरकार जितना खर्च करती है उससे कहीं ज्यादा मुख्यमंत्री रमन सिंह के उस प्याले पर खर्च हो रहा है जिसमें वो चाय पीते हैं। चाय के एक प्याले की कीमत है 600 रुपए। यह घनघोर कलियुग है। देश की जनता जिसकी एक दिन की कमाई 32 रुपए है वो गरीब नहीं लेकिन जिस मुख्यमंत्री की खाने की चम्मच की कीमत 300 रुपए हो वहां कोई ये मानने को तैयार नहीं है कि ये फिजूलखर्ची है। सूचना के अधिकार के तहत जो जानकारियां सामने आई हैं उनके मुताबिक रमन सिंह के लिए जो बेडशीट ख्ररीदी जाती है और जिस पर वो सोते हैं उस एक बेडशीट की कीमत 20 हजार रुपए है। जिस प्याले में रमन सिंह चाय पीते हैं एक प्याले की कीमत 600 रुपए है। छत्तीसगढ़ की दो तिहाई आबादी आज भी खुले में शौच कर रहा है लेकिन रमन सिंह के टायलेट की मरम्मत पर ही पांच लाख रुपए खर्च हो गए।
सीडब्ल्यूजी में सरकारी खेलदिल्ली में संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने 743 पृष्ठ की 33 अध्यायों वाली भारी-भरकम रिपोर्ट में खेलों के आयोजन स्थल, खेल गांव, बुनियादी संरचना के विकास, दिल्ली के सौंदर्यीकरण और प्रसारण अधिकार जैसी विभिन्न परियोजनाओं के अनुबंध देने में अनियमितताएं, भाई-भतीजावाद और पक्षपात पाया गया। रिपोर्ट में सीएजी ने खामियों और अनियमितताओं के लिए दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की आलोचना की है। रपट में कहा गया है कि पैसे बनाने के लिए खेलों के ठेके अधिक कीमत पर दिए गए और उनमें देरी की गई। रिपोर्ट में मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के साथ पीएमओ को भी घसीटा गया है। कैग की रिपोर्ट में राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान हुए कार्यान्वयन के बारे में कहा गया है कि सोचे-समझे उद्देश्य के तहत कृत्रिम जल्दबाजी का माहौल बनाया गया। ऐसा करके निर्धारित सरकारी प्रक्रियाओं में खुली छूट दी गई और देश को उन गतिविधियों, उपकरणों और बुनियादी ढांचे के लिए ऊंची कीमत चुकानी पड़ी, जिनका प्रबंध कम कीमत में किया जा सकता था।
योजना आयोग का टॉयलेटगरीबी रेखा की परिभाषा को लेकर विवादों में घिरे योजना आयोग ने दिल्ली में दो शौचालयों के नवीनीकरण पर ही 35 लाख रुपए खर्च कर दिए। गरीबी रेखा के लिए 28 रुपए की आय की विवादित सीमा निर्धारित करने की बात करने वाले आयोग ने इसके अलावा करीब 5.19 लाख रुपए योजना भवन में शौचालयों के लिए ‘डोर एक्सेस कंट्रोल सिस्टम’ लगाने पर खर्च किए। इस प्रणाली में वही लोग शौचालयों का इस्तेमाल कर सकते हैं, जिन्हें स्मार्ट कार्ड दिया गया है। सूचना का अधिकार (आरटीआई) के तहत मिली जानकारी में बताया गया है कि योजना आयोग के अधिकारियों को 60 स्मार्ट कार्ड जारी किए गए हैं। मई और अक्तूबर, 2011 के बीच मोंटेक सिंह आहलूवालिया की विदेश यात्रा पर रोजाना 2.02 लाख रुपए खर्च हुआ। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया था कि जून 2004 से जनवरी 2011 के बीच उन्होंने 42 आधिकारिक यात्राएं कीं। 274 दिनों की यात्राओं पर 2.34 करोड़ रुपए का खर्च आया।
सरकारी इफ्तार पार्टीसरकार ने पिछले एक दशक में 18 इफ्तार कार्यक्रमों पर 1.75 करोड़ रुपए की राशि खर्च की है। इसे एक तरह से सरकार द्वारा अपने ही नियमों को ताक पर रखकर कार्य करने का मामला माना जा सकता है। इफ्तार पार्टी पर खर्च करने वालों में प्रधान मंत्री कार्यालय (पीएमओ), विदेशी मामलों
का मंत्रालय, लोकसभा व राज्यसभा सचिवालय व केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) शामिल है। इस बारे में वित्त मंत्रालय का कहना है कि इफ्तार पार्टी आयोजित करने के लिए आज तक किसी विभाग ने उससे इजाजत नहीं मांगी। राज्यसभा सचिवालय ने 2007-08 से अब तक पांच इफ्तार पार्टियों पर 22.75 लाख रुपए खर्च किए हैं। सचिवालय का कहना है कि इफ्तार पार्टी के आयोजन को लेकर कोई नियम नहीं है। यह एक परंपरा का निर्वहन है जो काफी सालों से चली आ रही हैं।
रायपुर का एनआरएचएम दफ्तररायपुर में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (NRHM) की फिजूलखर्ची के बारे में नया खुलासा हुआ है। उसके नए ऑफिस का किराया तीन लाख 60 हजार रुपया महीना है। 50 हजार महीना मेंटीनेंस का अलग दिया जाएगा। इस तरह एक महीने में 4 लाख 10 हजार भवन किराये के नाम पर खर्च होगा। यानी अगर दो साल तक एनआरएचएम का कार्यालय यहीं चलता रहा, तो एक करोड़ रुपए किराये में ही फूंक दिए जाएंगे।
महाराष्ट्र सरकार में फिजूलखर्चीमहाराष्ट्र सरकार निरंतर कर्ज में डूबता जा रहा है, लेकिन मंत्रियों को इसकी कतई परवाह नहीं। उन्होंने मरम्मत के नाम पर अपने दफ्तर और बंगलों पर करोड़ों की फिजूलखर्ची की है। पिछले दो सालों में राज्य के 23 मंत्रियों ने सिर्फ बंगलों की मरम्मत पर 12.75 करोड़ रुपए खर्च कर डाले। इनमें सबसे ज्यादा खर्च सहकारिता मंत्री हर्षवर्धन पाटील और विधानसभा अध्यक्ष दिलीप वलसे पाटील ने किया है। आरटीआई कार्यकर्ता चेतन कोठारी के अनुसार, राज्य के ये सभी 23 मंत्री महानगर के सबसे पॉश इलाके मलाबार हिल्स पर बने आलीशान सरकारी बंगलों में रहते हैं। केवल वरिष्ठ मंत्रियों को ही इन बंगलों में रहने का मौका मिलता है।सहकारिता मंत्री और विधानसभा अध्यक्ष ने अपने बंगले की मरम्मत पर सबसे ज्यादा रुपया खर्च कराया है। आंकड़े बताते हैं कि सहकारिता मंत्री ने 2010-11 में अपने पर्णकुटी बंगले की मरम्मत पर 97.88 लाख और 2011-12 में 12.10 लाख यानी कुल मिलाकर 1.9 करोड़ रुपए खर्च कराए। दूसरे नंबर पर रहे विधानसभा अध्यक्ष, जिन्होंने दो सालों में कुल 1.5 करोड़ रुपए बंगले की मरम्मत पर खर्च कराए।
एयर इंडिया भी कम नहींकैग ने विभिन्न मदों में 15 करोड़ रुपए से अधिक के गैरजरूरी खर्च के लिए एयर इंडिया को कटघरे में खड़ा किया है। दरअसल एयर इंडिया ने हीथ्रो हवाई अड्डे पर एक परिसर लीज पर लिया था। कहते हैं कि इस परिसर का नौ साल तक कोई इस्तेमाल ही नहीं हुआ। कैग का कहना है कि कंपनी ने इस बारे में फैसला करने में नौ साल लगा दिए और 14.30 करोड़ रुपए का गैरजरूरी खर्च हुआ। कैग के अनुसार, इसी तरह के एक अन्य मामले में एयर इंडिया ने 2009, 2010 और 2011 में प्रधानमंत्री के साथ जाने वाली टीमों के परिवहन के लिए असामान्य ऊंची दरें स्वीकारीं जिससे उसे 75 लाख रुपए से अधिक का गैरजरूरी खर्च हुआ।
सरकारी फिजूलखर्ची की दास्तान यहीं खत्म नहीं हो जाती। ये तो चंद उदाहरण हैं। केंद्र सरकार के मंत्रालयों से लेकर तमाम राज्यों की सरकारें ऐसी फिजूलखर्चियों की कहानियों से अटी पड़ी हैं जिनका लेखा-जोखा शुरू हो तो पता चलेगा कि देश का जितना कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है कमोवेश उतना ही धन देश के अंदर फिजूलखर्ची में बर्बाद हो रहा है। दरअसल सरकारी फिजूलखर्ची लोकतंत्र की अहम खामियों में से एक है। वोट बैंक की राजनीति का दंश झेल रहे भारतीय लोकतंत्र में सरकारी फिजूलखर्ची पर लगाम लगाना कोई आसान काम नहीं है। असल में सरकारी फिजूलखर्ची का असली तमाशा सरकार के गैर योजनागत मामलों में अधिक होता है। इसे हम कुछ यूं समझ सकते हैं। सरकारी की कोई भी जनकल्याणकारी योजना का खाका खीचा जाता है तो उसका एक निर्धारित बजट होता है और उसकी एक निश्चित समयावधि भी होती है। लेकिन अक्सर होता यह है कि योजना तयशुदा समय में पूरा नहीं हो पाता है जिससे उस योजना पर होने वाला खर्च बढ़ जाता है। इससे समय और सरकारी धन दोनों की बर्बादी होती है। सरकार की सैकड़ों जनकल्याणकारी योजनाओं के बावजूद गैरसरकारी संगठनों को अरबों की फंडिंग सरकार आवंटित करती है। अगर इन गैरसरकारी संगठनों के कामकाज की समीक्षा की जाए तो आवंटित बजट के अनुपात में काम आधा भी नहीं होता है। बहरहाल इस तरह की तमाम स्थितियों से जब तक सरकार नहीं निपटेगी, फिजूलखर्ची का तमाशा जारी रहेगा।
First Published: Wednesday, September 12, 2012, 18:04