Last Updated: Wednesday, October 3, 2012, 10:36
बिमल कुमार हालांकि, राजशाही बीते दौर की बात है, पर देश के राजनेता आज अपनी ‘राजशाही’ पर कई गुना व्यय कर रहे हैं। यह व्यय कुछ ऐसा है, जिस पर मन-मंथन करने के बाद कलेजा मुंह को आ जाता है। आम जनता की गाढ़ी कमाई पर राजशाही का सुख भोग रहे माननीयों को इस बात की तनिक भी परवाह नहीं है कि उनके कारनामों से खजाने का समीकरण बिगड़ रहा है। राजशाही सरीखे शौक होंगे तो शाहखर्ची होना लाजिमी ही है। इस पर लगाम लगाए तो कौन?
सरकार की तरफ से शाहखर्ची और फिजूल के अन्य खर्चों पर लगाम लागने की बात कहना महज दिखावा भर है। अन्यथा ऐसी शाहखर्ची के नमूने बार-बार सामने नहीं आते, जैसा कि सरकार, उसमें शामिल आला मंत्रिगण और अन्य वरिष्ठ जन प्रतिनिधि गुलछर्रे उड़ा कर रहे हैं।
एक साल में मंत्रियों के विदेश दौरों पर 678 करोड़ रुपए फूंकना, यूपीए-2 सरकार की तीसरी सालगिरह के जश्न पर मेहमानों को 7721 रुपए की कीमत की एक थाली का परोसा जाना, कुछ राज्यों में सीएम कार्यालय के एक महीने का चाय-पानी और नाश्ते का खर्च आम आदमी के महीनेभर के पूरे खर्च से 100 गुना ज्यादा होना, वगैरह-वगैरह।
इस बेहिसाब खर्च के तले आम आदमी के रोजमर्रा की खर्च की परवाह किसे है। केंद्र और राज्य सरकारें जनता की कमाई ‘माल-ए-मुफ्त, दिल-ए-बेरहम’ की तर्ज पर जो लुटा रही हैं। ऐसी बेमिसाल शाहखर्ची को देखकर तो यही लगता है कि पैसे वाकई पेड़ पर उगते हैं। केंद्र सरकार ने कुछ माह पहले कैबिनेट मंत्रियों और सभी मंत्रालयों को फिजूलखर्ची से बचने, फाइव स्टार होटल में कार्यक्रम नहीं करने, हवाई यात्रा में इकोनॉमी क्लास में यात्रा करने सरीखी हिदायतें दी थी,लेकिन यह सब कुछ महज दिखावा ही साबित हुआ और सरकार की शाहखर्ची पर कोई लगाम नहीं लगी।
बीते दिनों आर्थिक सुधारों पर लिए गए फैसलों के बाद मची हायतौबा पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आम जनता के नाम अपने संदेश में सब्सिडी के बढ़ते बोझ की दुहाई देते हुए कहा कि ‘पैसे पेड़ पर नहीं उगते’। पर प्रधानमंत्री जी की नजर सरकार और मंत्रियों की ओर से किए जा रहे शाहखर्च पर शायद नहीं पड़ती है। लोगों की कड़ी मेहनत की कमाई इस तरह उड़ाए जा रहे हैं, लगता है जैसे कि वाकई ‘पैसे पेड़ पर उगते हैं’।
अब इसकी बानगी देखिए कि पिछले साल यूपीए सरकार के मंत्रियों ने विदेश दौरों पर 678 करोड़ रुपए फूंक दिए। हैरत की बात यह है कि यह रकम तय बजट से 15 गुना ज्यादा थी। सूचना के अधिकार के तहत मिली एक जानकारी के अनुसार, मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्रियों के विदेश दौरे के खर्च खजाने पर बहुत भारी पड़े हैं। साल 2011-12 में कुल 678 करोड़ 52 लाख 60 हजार रुपए मंत्रियों के विदेश दौरों पर स्वाहा हुए। जबकि विदेश दौरों का बजट इस साल में 46 करोड़ 95 लाख रुपए था। यदि आप साल 2010-11 में विदेश दौरों पर हुए कुल खर्च 56 करोड़ रुपए से इसकी तुलना करें तो सरकारी मंत्रियों और नेताओं की शाहखर्ची का यह जीता जागता प्रमाण है।
साल 2011-12 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, विदेश मंत्री एसएम कृष्णा, वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा, पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय समेत कई मंत्रियों के विदेशी फेरों में वृद्धि हुई। मंत्रियों के ये दौरे खजाने पर बहुत भारी पड़े हैं। सवाल यह उठता है कि खजाने की माली हालत को देखते हुए यूपीए सरकार के इन मंत्रियों के दौरों पर इतनी उदारता क्यों बरती गई।
सरकार घटती विकास दर और वित्तीय घाटे का रोना रो रही है और अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए कड़े फैसले ले रही है, पर इन फैसलों की मार आम आदमी पर पड़ रही है। खजाने के वित्तीय हालत को नजर अंदाज कर मंत्रियों के इन विदेशी दौरों पर रोक कौन लगाए।
बीते साल तो इन मंत्रियों ने इतनी यात्राएं की थीं कि एयर इंडिया पर करोड़ों रुपए का कर्ज चढ़ गया था। जिस पर संसद में सरकार को सफाई भी पेश करनी पड़ी थी। तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी सवाल उठाते हुए खर्च में कटौती करने की बात कही थी। जिसके बाद केंद्र ने सभी मंत्रालयों को अपने मंत्रियों और अधिकारियों के घरेलू व विदेशी दौरों का ब्योरा सार्वजनिक करने का निर्देश दिया था। लेकिन इन हालातों से यह कतई नहीं लगता कि किसी माननीय को इसकी तनिक भी चिंता है।
सूचना के अधिकार के तहत जो जानकारियों सामने आई हैं, उससे यही लगता है कि सरकार की यह नसीहत सिर्फ आम जनता के लिए है, खुद के लिए नहीं। वहीं, यूपीए-दो सरकार की तीसरी सालगिरह के मौके पर 375 मेहमानों को खिलाने पर करीब 29 लाख रुपए उड़ा दिए गए। इस भोज में मेहमानों को परोसी गई एक थाली की कीमत 7721 रुपए थी। जबकि सरकार गरीबों को 16 रुपए में रोज पेट भरने की नसीहत देती है। यह भोज और कहीं नहीं, बल्कि इस साल 22 मई को प्रधानमंत्री आवास पर दिया गया था। इसमें सरकार के सभी मंत्री, सांसद, सहयोगी दलों के नेता समेत 375 मेहमान शामिल हुए थे।
इस बात का खुलासा हिसार के एक व्यक्ति की ओर से आरटीआई के तहत मांगी गई जानकारी में हुआ। इसमें बताया गया कि यूपीए के इस जश्नी में कुल 28,95,503 रुपए खर्च हुए। इस दावत का बिल किसी फाइव स्टामर में हुई पार्टी से कम नहीं है। गौर करें कि इसी सरकार ने मार्च महीने में गरीबी की एक नई परिभाषा जारी की थी, जिसके आधार पर गांव में 23 रुपए तथा शहर में 29 रुपए रोज खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता। इस शाहखर्ची से गरीबों के पेट की तुलना करें तो इस एक थाली की कीमत के एवज में वह कई दिनों तक अपनी भूख मिटा सकता है। गरीबी का इससे बेहतर माखौल और क्या हो सकता है।
आरटीआई के जरिए मिली एक और जानकारी के अनुसार, कुछ राज्यों के मुख्युमंत्री कार्यालय के एक महीने का चाय-पानी और नाश्ते का खर्च कई गुना ज्यादा है। पंजाब के मुख्यंमंत्री कार्यालय में बीते साल (2011-12) हर महीने औसतन 1,95,002 रुपए चाय-नाश्तेन और बोतलबंद पानी पर खर्च हुए जो कि एक ग्रामीण क्षेत्रों में एक आम आदमी के महीने भर के औसतन व्यय 1648 रुपए का लगभग 118 गुना ज्यादा है।
वहीं, दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के कार्यालय में चाय-पानी पर हर महीने औसतन 67156 रुपये खर्च किए गए जो कि दिल्ली के एक व्यक्ति के महीने भर के औसतन व्यय 2068 रुपए से लगभग 32 गुना ज्यादा है। वहीं, हरियाणा के सीएम कार्यालय का चाय-पानी पर महीने का औसतन खर्च 40,107 रुपए है, जो कि औसत व्यय से 26 गुना ज्यादा है। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि न सिर्फ केंद्र सरकार बल्कि राज्य सरकारें भी फिजूलखर्ची में किसी से कम नहीं हैं।
एक तरफ सरकार अपना खजाना भरने के लिए सरकारी जमीन को बेचने की तैयारी में है और राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने की जुगत में है, तो भला बढ़ती फिजूलखर्ची में इस उद्देश्य का पूरा होना कैसे संभव होगा। यह विदित है कि घपले-घोटालों में उलझी यूपीए सरकार के कारनामों के चलते वित्तीय हालात चरमरा गए हैं और ऊपर से फिजूलखर्ची ने सरकारी खजाने को खाली ही कर दिया है। देश के मंदी के दौर से गुजरने की बात कहकर कड़े फैसलों की पैरोकारी करना और जनता पर बोझ डालकर ज्यादा राजस्व अर्जित करने की कवायद इन फिजूलखर्ची की तुलना में कतई तर्कसंगत एवं उचित नहीं है। ऐसी कवायद करने से पहले सरकार पहले अपने गिरेबां में झांके और सबसे पहले बेमतलब के खर्चों पर तत्काल रोक लगाए।
First Published: Sunday, September 30, 2012, 20:33