सवालों के घेरे में गठबंधन की राजनीति

सवालों के घेरे में गठबंधन की राजनीति

सवालों के घेरे में गठबंधन की राजनीतिवासिन्द्र मिश्र

राजनीतिक उठापटक के लिए लगातार सुर्खियों में रहने वाले राज्य झारखंड का ताजा संकट कई सवाल खड़े करता है। खासकर गठबंधन सरकारों के अस्तित्व और भविष्य को लेकर। राजनीतिक अस्थिरता के दौर में गठबंधन का जो फॉर्मूला किसी जमाने में एक विकल्प के तौर पर उभरा था, राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं ने अब उसी फॉर्मूले को कटघरे में ला खड़ा किया है।

इस वक्त जिस तरह की खींचतान राज्यों से लेकर केंद्र की सियासत में देखने को मिल रही है उसे देखकर लग रहा है कि जनता एक बार फिर गठबंधन राजनीति के दौर से बाहर निकलना चाह रही है। गठबंधन राजनीति की वजह से कई जगह मिलीजुली सरकारों को मुश्किलें हुई हैं। चाहे वो यूपी की बात हो या बिहार की या फिर अब झारखंड की। यूपी में माया के साथ बीजेपी ने सरकार बनाई लेकिन शुरुआती सफलता के बाद सरकार को काफी मुश्किलें आईं। कमोबेश यही स्थिति आए दिन बिहार में देखने को मिलती रहती है जब नरेंद्र मोदी के नाम पर नीतीश कुमार और पूरी की पूरी बीजेपी के नेता आमने-सामने खड़े नजर आते हैं।

गठबंधन राजनीति को लेकर दोनों राष्ट्रीय पार्टियों, कांग्रेस और बीजेपी पर, समय-समय पर तानाशाही रवैया अपनाने के आरोप लगते रहे हैं। चाहे केंद्र की सत्ता हो या राज्यों की, गठबंधन में शामिल सहयोगी दल इऩ राष्ट्रीय दलों पर गठबंधन धर्म का पालन न करने के आरोप लगाते रहे हैं। शायद यही वजह है कि चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार रही हो या फिर मनमोहन सिंह की, देश में चल रही विकास की धीमी रफ्तार के लिए गठबंधन सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। कमोबेश इसी तरह के बयान आए दिन राज्यों में गठबंधन सरकार को चलानेवाले मुखियाओं की तरफ से आते रहे हैं ।

गठबंधन की राजनीति के इतिहास पर अगर नजर डालें तो संभवत: देश में सबसे पहले गठबंधन की सरकार केरल में बनी थी। लेकिन वो सरकार भी बहुत दिन तक ठीक ढंग से नहीं चल पाई। अगर पश्चिम बंगाल के उदाहरण को छोड़ दें तो ये दावे के साथ कहा जा सकता है कि भारतीय जनमानस शायद गठबंधन की सरकार के लिए परिपक्व नहीं बन पाया है। पश्चिम बंगाल में भी लगभग तीन दशक गठबंधन सरकार चली लेकिन ये राज्य देश के बाकी राज्यों के साथ विकास की दौड़ में कंधे से कंधा मिलाकर चलने में नाकाम साबित रहा।

राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति के 3 बड़े प्रयोग हुए- जनता पार्टी, जनता दल और एनडीए। जनता पार्टी का गठन आपातकाल के विरोध में हुआ था लेकिन सत्ता में आते ही पार्टी में शामिल नेताओं के अहंकार, वैचारिक मतभेद और पद लोलुपता के चलते ढाई साल के अंदर ही ये गठबंधन बिखर गया। ऊपरी तौर पर जनता पार्टी में शामिल तत्कालीन जनसंघ और आरएसएस से जुड़े नेताओं की दोहरी सदस्यता को लेकर समाजवादी नेताओं से झगड़ा शुरु हुआ और जिसका नतीजा कई धड़ों में बिखराव के रूप में देखने को मिला।

दूसरा प्रयोग एक बार फिर गैर कांग्रेसवाद के नाम पर जनता दल के रूप में हुआ। लेकिन ये प्रयोग भी बहुत दिन तक कामयाब नहीं हो सका। जनता दल में शामिल क्षेत्रीय क्षत्रपों की अपनी महत्वाकांक्षाएं हीं जनता दल को दलदल में धकेलने के लिए ज़िम्मेदार रहीं। इसके बाद वैचारिक तौर पर छत्तीस का रिश्ता रखनेवाली भारतीय जनता पार्टी और वाम पार्टियों ने, कांग्रेस से अलग हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह की अगुआई में यूनाइटेड फ्रंट की सरकार बनाई। हालांकि बहुत जल्द मंडल कमीशन और अयोध्या में राम मंदिर के पुनर्निर्माण के सवाल पर एक बार फिर टकराव शुरू हुआ। अपने हाथ से सत्ता जाते देख विश्वनाथ प्रताप सिंह ने पिछड़ों का मसीहा बनने के मकसद से दशकों से धूल खा रही मंडल कमीशन की सिफारिशों को आनन-फानन में लागू करने का ऐलान कर दिया। नतीजा देश के सामने था। समाज एक बार फिर जातीय विद्वेष का शिकार हो गया।

सैकड़ों की तादाद में अगड़ी जाति के नौजवानों ने आत्मदाह करने की कोशिश की और पूरा देश आरक्षण विरोधी आग की गिरफ्त में महीनों तक फंसा रहा। प्रतिक्रिया स्वभाविक थी, भारतीय जनता पार्टी ने हिंदू वोट वोटबैंक का बिखराव रोकने के लिए राम मंदिर आंदोलन तेज कर दिया। जिसका नतीजा था कि संघ और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने कारसेवकों के रूप में सैकड़ों साल पुरानी अयोध्या स्थित विवादित बाबरी मस्जिद को 1992 की 6 दिसंबर को जमींदोज कर दिया। इस प्रकार कह सकते हैं कि विश्वनाथ प्रताप सिंह की जातिवादी राजनीति के जवाब में शुरू की गई उग्र सांप्रदायिक राजनीति का खामियाजा देश को लंबे अर्से तक भुगतना पड़ा।सवालों के घेरे में गठबंधन की राजनीति

देश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम और मायावती ने धीरे-धीरे एक बार फिर अंब्रेला पॉलिटिक्स को आगे बढ़ाया और अकेले दम पर मायावती ने एक अर्से बाद 2007 में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाई और इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए 2012 में उत्तर प्रदेश की जनता ने समाजवादी पार्टी को पहली बार अकेले दम पर सरकार बनाने का मौका दिया। मिलीजुली सरकारों के दौर में ही देश में कई आर्थिक घोटाले हुए। इनमें सिक्योरिटी स्कैम, स्टैंप घोटाला, कॉमनवेल्थ घोटाला, इसरो घोटाला, कोलगेट स्कैम और टूजी घोटले शामिल हैं। आरोप ये भी लगते रहे हैं कि गठबंधन की सरकारों में इऩ घोटालों में शामिल होनेवालों के खिलाफ प्रभावी ढंग से कार्रवाई नहीं हो पाई।

चाहे हिमाचल प्रदेश हो या गुजरात, राजस्थान हो या बिहार या फिर उत्तर प्रदेश, ऐसा लगता है कि अब जनमानस मंडल- कमंडल और जज्बाती मसलों से दूर रहकर सरकारें बनाना चाहता है । जनमानस अपने द्वारा चुनी गई सरकारों की जवाबदेही चाहता है और ये तभी मुमकिन है जब एकदलीय सरकार होगी और उसके पास अपनी नाकामी को छिपाने के लिए गठबंधन की मजबूरी का हवाला देने के लिए कुछ नहीं रहेगा।

(लेखक ज़ी न्यूज़ उत्तर प्रदेश/उत्तराखंड के संपादक हैं)

First Published: Tuesday, January 8, 2013, 12:44

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