हर-हर गंगे की तलाश में ‘दर-दर गंगे’

हर-हर गंगे की तलाश में ‘दर-दर गंगे’

हर-हर गंगे की तलाश में ‘दर-दर गंगे’नई दिल्ली : गंगा मैली हो गई है, कहीं छिछली तो कहीं सूख सी गई है। इसे बचाने की जरूरत है। गंगा की यह बेचारगी समय-समय पर समाचार पत्रों, सूचना-प्रसार के माध्यमों, लेखों और किताबों में दिखती आई है और लोग उसकी दशा-दुर्दशा से परिचित भी होते आए हैं। गंगा की समस्या क्या इतनी भर है? अथवा वह अपने इस दुख में आस्था और विकास की एक त्रासद कहानी भी समेटे हुए है जिससे हम अनजान है। पेंगुइन प्रकाशन से हाल ही में आई लेखकों-अभय मिश्र और पंकज रामेंदु की पुस्तक ‘दर-दर गंगे’ हमें गंगा के उस रूप का दर्शन कराती है जहां तक हम देख नहीं पाते अथवा वैचारिक एवं बौद्धिक लबादे के बोझ से गंगा का वह रूप ओझल ही रहता है।

गंगोत्री से लेकर गंगासागर की तक की अपनी इस दुर्गम यात्रा में दोनों लेखकों ने गंगा की मौजूदा हालात की जो तस्वीर उकेरी है वह चिंता में डालने वाली और भयावह है। धार्मिक आस्था और विकास की आड़ में जो खेल खेला गया है अथवा खेला जा रहा है उसके परिणाम का एक ज्वलंत दस्तावेज की तरह है-‘दर दर गंगे’। आस्था के नाम पर ठगेबाजी, बढ़ता प्रदूषण, पारिस्थितिकी से खिलवाड़, पारंपरिक कारोबार का विलुप्त होना, विस्थापन और रेत माफियाओं का मकड़जाल- यानी वह सभी कुछ जो गंगा की दुर्गति के लिए प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जिम्मेदार हैं, ‘दर दर गंगे’ उसे बेनकाब करती है।

इतिहास साक्षी है कि नदी किनारे विकसित होने वाली संस्कृति एवं सभ्यता का उसके अपने नदी के साथ लेन-देन होता आया है। लेकिन यह लेन-देन जब प्राकृतिक असंतुलन का कारण बना तो नदी और संस्कृति दोनों को नुकसान हुआ। गंगा के साथ भी यह घटित हुआ है। यात्रा के 30 शहरों में गंगा कहीं श्रद्धा, भक्ति एवं आस्था का केंद्र है तो कहीं उसके पाट अर्थव्यवस्था, रोजगार और उद्योग धंधों से जुड़े हैं। लेकिन क्या यह प्राकृतिक संतुलन कायम रखा गया है। धर्म और आस्था के नाम पर लूट मची है। गंगा घाटों पर स्थित मंदिरों के मठाधीश भक्तों-श्रद्धालुओं को किस तरह से बरगला और ठग रहे हैं इसकी बानगी ऋषिकेश, हरिद्वार से लेकर मायापुरी के इस्कॉन मंदिर तक देखी जा सकती है।

विकास की इस अंतहीन दौड़ और धनलोलुपता ने गंगा पर आश्रित कारोबार को किस तरह से छिन्न-भिन्न अथवा विलुप्त कर दिया है इस ओर भी दोनों लेखकों अभय और पंकज ने ध्यान खींचा है। कन्नौज का अतर उद्योग आज पैसा बनाने का मुख्य स्रोत बन गया है तो मुंगेर का गोरही समुदाय और मछुआरे जो अपनी रोजी-रोटी के लिए गंगा पर निर्भर थे अपनी जमीन से बेदखल होने के बाद नक्सली बन गए हैं। गढ़मुक्तेश्वर में पानी कम हुआ तो यहां के मल्लाहों ने पुरोहिती एवं पंडागिरी का काम शुरू कर दिया। लेखकों की शब्दों में ‘बीते दस सालों में पुरोहितों को पीछे छोड़कर मलकू सहित कई दूसरी जातियों ने अपनी दादागिरी से यहां पंडागिरी शुरू कर दी है। कुछ पेट की आग की वजह से पुरोहित बन गए और कुछ को लालच ने झुलसाया। मलकू पुरोहिती करने लगा और जनुआ सब्जी बेचने लगा।’

लेखक बताते हैं कि गंगा में शहरी प्रदूषण पहली बार ऋषिकेश में मिलता है। जो आगे कानपुर में इसका विकराल रूप कुछ इस तरह दिखता है- ‘नाले से तेज गर्जना करता हुआ पानी गिर रहा था, उसकी गर्जना के आगे गंगा सहमी हुई नजर आ रही थी। टीबी अस्पताल और पावर हाउस का यह नाला गंगा में गिर कर झाग पैदा कर रहा था, ऐसा लग रहा था जैसे कई टन डिटरजेंट घोल दिया गया हो। एक अजीब सी बदबू थी उस माहौल में, नाले से उठती गर्जन, बदबू और इर्द-गिर्द उड़ती मक्खियां एक भयावह माहौल बना रही थीं।’

गंगा में विसर्जित की जाने वाले कर्मकांड की सामग्रियां, मल-मूत्र, चमड़ा उद्योग, कल-कारखानों के केमिकल, मलबे और गाद, पटना, बख्तियारपुर में ईंट भट्ठों की राख ने गंगा की जीवनदायिनी शक्ति एक तरह से क्षीण कर दिया है। इस प्रदूषण से गंगा में पाए जाने वाले जलचर जलमुर्गी, ऊदबिलाव और सोंस (डॉल्फिन) का अस्तित्व खतरे में है।

यह बात सरेआम है कि गंगा में प्रदूषण की एक प्रमुख वजह कानपुर में उसके अंदर गिरने वाला गाद और मलबा है लेकिन यह बात कम लोग ही जानते हैं कि गंगा का 90 फीसदी पानी नरौरा में सिंचाई के लिए खींच लिया जाता है और शेष पानी ही मैदानी भागों की ओर बढ़ता है। एटा से फर्रुखाबाद तक फैली हरियाली एक दूसरी ही कहानी बयां करती है।

गंगा रूपी इस किताब की पूरी यात्रा करने पर आप पाएंगे कि स्वार्थ के लिए गंगा की धार को हर जगह कुंद किया जा रहा है। कहीं सुरंग बनाकर तो कहीं ओवरब्रिज का निर्माण कर। गंगा की अविरलता कायम रखने में शासन-प्रशासन की कोताही भी सामने आती है। हालांकि कुछ ऐसे लोग भी हैं-(बंशीधर पोखरियाल, दिनेश मिश्र, कालेश्वर मिश्र, समर्पिता, हबीब, दलबीर, निर्मल कुमार जालान, अमरनाथ केसरी) जो लोगों के बीच जागरूकता फैलाने में जुटे हैं। उम्मीद है कि लोग गंगा को बचाने के लिए एक दिन कहलगांव (यहां लोग एनटीपीसी के प्लांट में आग लगाने पर उतारू हो जाते हैं।) की तरह उठ खड़े होंगे।

लेखकों ने इन शहरों की गंगा से जुड़ी एक समस्या को उठाया है और उसे एक व्यायक परिप्रेक्ष्य और संपूर्णता में देखने की कोशिश की है। समस्या की गहराई में जाने और ब्योरों एवं तथ्यों को उजागर करने में किताब को उबाऊ एवं भारी-भरकम बन जाने का खतरा था लेकिन लेखक इस खतरे से ऊबर गए हैं। लेखक चूंकि पत्रकार भी हैं इसलिए इनकी पैनी नजर उन स्थितियों एवं नजरिए तक पहुंची है जहां सामान्य लेखक की नहीं पहुंच पाती।

किस्सागोई और रोचक अंदाज में लिखी गई यह पुस्तक उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा वृतांत सभी का रसास्वादन कराती है। कठिन से कठिन प्रसंगों को लेखकों ने बेहद सहज भाषा और शैली से बोधगम्य बना दिया है। लेखकों ने अपनी दृश्य भाषा की समझ का भी बखूबी इस्तेमाल किया है। बिम्ब, प्रतीक एवं ध्वन्यात्मक शब्द घटनाओं को रूपायित और संवेदना को तीव्र कर देते हैं।

कहना न होगा कि गंगा पर लिखी गई यह अलग तरह की एक बेहतरीन पुस्तक है। बदलते समाज और विकास के परिप्रेक्ष्य में यह गंगा को समझने और जानने का एक जरिया हो सकती है। किताब में बहुत सारे ऐसे महत्वपूर्ण प्रसंग और किस्से हैं जिनका उल्लेख करना यहां मुनासिब नहीं होगा। लेखक बधाई के पात्र हैं जो एक दुर्गम एवं कष्टकारी यात्रा से हार न मानते हुए अंतिम पड़ाव तक पहुंचे और गंगा को इस पुस्तक के रूप में पेश किया।







First Published: Tuesday, May 14, 2013, 22:53

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