Last Updated: Thursday, October 25, 2012, 19:06

ज़ी न्यूज ब्यूरो
नई दिल्ली: नक्सलवाद भारत की शीर्ष समस्याओं में सबसे अहम है जिससे सरकार के लिए बड़ी परेशानी का सबब है। देश के दो सौ से अधिक जिलों में नक्सलवाद फैल चुका है। नक्सलवाद पर सरकार की नकेल पाने की सारी कोशिशें नाकाम रही है। नक्सलवाद का अबतक कोई सार्थक हल नहीं निकल पाया है। यह एक ऐसा चक्रव्यूह बन गया है जिसे भेदना मुश्किल हो हो गया है। इसी मुद्दे को लेकर प्रकाश झा ने चक्रव्यूह फिल्म बनाई है। प्रकाश झा की यह फिल्म सियासत और नक्सल का सामंजस्य है। किस प्रकार नक्सलवाद हमारे पोलिटिकल सिस्टम को तहस-नहस करता है जिसका खामियाजा आम जनता को भी भुगतना पड़ता है। इन्हीं बातों को प्रकाश झा ने अपनी फिल्म में समेटा है।
प्रकाश झा बॉलीवुड के उन निर्देशकों में शुमार होते हैं जो सामाजिक मुद्दे को सिने पर्दे पर बड़ी खूबसूरती से एक कलाकार की तरह उकेर देते हैं। उनके फिल्म में उठाए गए मुद्दे और फिल्म निर्माण का इतना बेजोड़ तालमेल होता है कि फिल्म पेशेवर दृष्टिकोण से भी खरी उतरती है। यहीं वजह है कि प्रकाश झा चाहे गंगाजल हो , या राजनीति सभी फिल्मों में अपनी बात को बखूबी कह जाते है। इस फिल्म में आप नक्सलवाद को प्रकाश झा की आंखों से देखेंगे। दामुल से लेकर मृत्युदण्ड तक के सिनेमा में बतौर निर्देशक प्रकाश झा का अलग अंदाज देखने को मिलता है। इन फिल्मों में आम आदमी के लिए कुछ नहीं था।
फिल्म में आदिल खान (अर्जुन रामपाल) और कबीर (अभय देओल) अच्छे दोस्त हैं। कबीर विद्रोही स्वभाव का है और किसी पर अन्याय बर्दाश्त नहीं कर पाता है। कॉलेज की पढ़ाई के बाद आदिल पुलिस में ज्वाइन करता है। कबीर भी पुलिस में भर्ती होता है। कबीर यहां भी अपने विद्रोही तेवर की वजह से कुछ समय बाद पुलिस फोर्स से बाहर कर दिया जाता है और यहीं से आदिल और कबीर के बीच की दूरियां बढ़ती हैं। फिल्म आगे बढ़ती है और नक्सलवाद के चक्रव्यूह से रुबरू कराती है।
चक्रव्यूह में पुलिस, राजनेता, पूंजीवादी और माओवादी सभी के पक्ष को रखने की कोशिश प्रकाश झा ने की है। फिल्म किसी निर्णय तक नहीं पहुंचती है, लेकिन दर्शकों तक वे ये बात पहुंचाने में सफल रहे हैं कि किस तरह ये लोग अपने हित साधने में लगे हुए हैं और इनकी लड़ाई में गरीब आदिवासी पिस रहे हैं।
प्रकाश झा की चक्रव्यूह तकनीकी रूप से बहुत मजबूत नहीं है लेकिन ड्रामा बेहद मजबूत है।
फिल्म में अभय देओल का अभिनय सराहनीय है। मनोज वाजपेयी ने एक बार फिर साबित किया है कि अदाकारी में उनका कोई सानी नहीं है। ईशा गुप्ता से प्रकाश झा एक्टिंग नहीं करवा पाए है। ओम पुरी, कबीर बेदी, चेतन पंडित, मुरली शर्मा, किरण करमरकर ने अपनी-अपनी भूमिका में प्रभाव छोड़ा है।
फिल्म अच्छी है और देखी जा सकती है। लेकिन यह ध्यान रहे कि फिल्म में कोई मसाला नहीं है। जाहिर सी बात है कि यह फिल्म उन्हीं लोगों को पसंद आएगी जो सामाजिक समस्या से जुड़े गंभीर मुद्दे को लगभग ढाई घंटे तक पचा पाने का माद्दा रखते हो। कुल मिलाकर सामाजिक सरोकार के मुद्दे पर बनी इस फिल्म को एक बार देखा जा सकता है।
First Published: Wednesday, October 24, 2012, 16:49