Last Updated: Thursday, July 12, 2012, 16:33
प्रवीण कुमारपर्यावरण और विकास की मौलिक अवधारणा का अंतरद्वन्द्व स्पष्ट रूप से दुनिया के सामने है। शायद इसी अंतरद्वन्द्व पर फूको ने कहा है कि विकास का हर सोपान बर्बरता के नए आयाम को पैदा करता है। विकास की यह समझ विकास के मायनों को ही पलट देती है और विकास के प्रति नाकारात्मक भाव पैदा करती है जो सही नहीं है। दुनिया की दो महाशक्ति इस परिस्थिति का साक्षात उदाहरण है। एक तरफ अमेरिका में गर्मी ने लोगों की हालत खस्ता कर रखी है। लोग पसीना पसीना हो रहे हैं तो दूसरी ओर रूस में जबरदस्त बाढ़ ने तबाही मचा रखी है। लोग वहां पानी-पानी हो रहे हैं।
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, अमेरिका के कई शहरों में पारा 38 डिग्री सेल्सियस से भी ऊपर चढ़ गया है। रिकॉर्ड तोड़ गर्मी से कई दर्जन लोगों की जान जा चुकी है और लोग इससे बचने के लिए पानी में समय गुजार रहे हैं। लोग गर्मी से राहत पाने के लिए फिल्म थिएटर और पैदल पारपथ (सब-वे) के वातानुकूलित माहौल में ज्यादा से ज्यादा समय बिता रहे हैं। वाशिंगटन में 40.5 डिग्री सेल्सियस, सेंट लुईस में 41 डिग्री सेल्सियस, इंडियानापोलिस में 40 डिग्री सेल्सियस तक तापमान दर्ज किया गया। प्रमुख राजमार्गों और वाशिंगटन क्षेत्र की ट्रेनों के आवागमन पर इसका असर पड़ा है। लुईसविला में तापमान 40.5 डिग्री सेल्सियस, फिलाडेल्फिया में 38.5 डिग्री सेल्सियस और न्यूयॉर्क में 35 डिग्री सेल्सियस तापमान दर्ज किया गया है। रूस में बाढ़ ने भारी तबाही मचा रखी है। करासन्दार के इलाक़े में अचानक आई बाढ़ को अब तक के इतिहास में सबसे भयानक बाढ़ क़रार दिया गया है। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि ज्यादा तर लोग सो रहे थे जब बाढ़ आई और इस कारण लोगों में अफ़रा-तफ़री मच गई। रूस के टीवी चैनलों पर दिखाई जाने वाली तस्वीरों में हज़ारों मकान को पानी में डूबे हुए और लोगों को उनकी छतों पर पनाह लिए दिखाया गया है। करासन्दार के गवर्नर का कहना है कि पानी की रफ्तार और शक्ति इतनी ज्यादा थी कि उसने सड़कों को उखाड़ दिया। अधिकारियों के मुताबिक़ बाढ़ से सबसे ज्यादा नुकसान क्रिम्स्क के इलाके में हुआ है।
दरअसल प्रकृति महाशक्ति की भाषा को नहीं समझता है। वह अपनी राह चलता है और उसे छेड़छाड़ कतई पसंद नहीं है। दुनिया की महाशक्ति चाहे वो अमेरिका हो, रूस हो या फिर चीन हो, ये सभी प्रकृति को अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं। इन महाशक्तियों को सिर्फ विकास चाहिए, किसी भी कीमत पर, किसी भी सूरत में। लेकिन यह प्रकृति की गति और समय के नियम के खिलाफ है। विकास की अवधारणा एक सापेक्षिक अवधारणा है। मानव जाति के विकास के स्तर में गुणात्मक परिवर्तन ही सही मायने में विकास है। मानव जाति पर्यावरण के जैवमंडल का हिस्सा है। इन दोनों के बीच अंतरसंबंध हैं जो एक दूसरे को गहरे तक प्रभावित करता है। मनुष्य प्रकृति से चीजें अपनी जरूरत के लिए हु-ब-हू मौलिक स्वरूप के साथ-साथ उसे अन्य रूपों में भी उत्पादन की प्रक्रिया के तहत लेता है। यह मानी हुई बात है कि मनुष्य अपने उत्पति के साथ ही प्रकृति पर निर्भर रहा है लेकिन यह निर्भरता अब केवल जरूरतों तक सीमित न रहकर अंधाधुंध विकास की उस धारा से जुड़ गई है जो इंसान की वास्तविक जरूरतों के साथ-साथ व्यवस्थाजनित जरूरतों से जुड़ गया है। विकास की जो धारा बाजारवादी प्रवृति की शिकार है और पोषक है, उत्पाद को लेकर कृत्रिम उपभोक्तावाद पैदा करने वाला है। विकास की इस धारा में उत्पादन इंसान की जरूरतों के अलावा बाजार के लिए भी केन्द्रीकृत हो चुका है।
मांग और आपूर्ति के बाजारवादी सिध्दांत ने अंधाधुंध उत्पादन को प्रोत्साहित किया है। ऊर्जा संबंधी जरूरतों की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन जारी है। धरती के वायुमंडल में सालाना पैदा होने वाले कार्बनडाइऑक्साइड का लगभग 25 प्रतिशत हिस्सा प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक दोहन से पैदा हो रहा है। वर्तमान में पूरे उद्योग धंधे का विस्तार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित ईंधनों पर टिका है। विकास के इस स्वरूप के कारण दुनिया के सामने ग्लोबल वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है। आज पृथ्वी इतनी गर्म हो गई है जितनी 400000 वर्षों में कभी नहीं थी। ग्लेशियर और ध्रुवों पर मौजूद बर्फ पिघल रहे हैं। नई औद्योगिक परियोजना के लिए जंगलों को काटा जा रहा है। जाहिर है प्रकृति पर इस तरह से जब कुठाराघात होगा तो कहीं बाढ़ और सूखे जैसी स्थितियों का सामना तो करना ही पड़ेगा।
यहां पर तमाम बातों के बीच एक बड़ा सवाल यह उठता है कि जिन जंगलों को उद्योग धंधों के लिए काटा जा रहा है क्या वे जंगल पहले कृषि योग्य भूमि के लिए नहीं कटते थे? इससे यह साबित होता है कि इंसान की प्रकृति पर किसी भी तरह से निर्भरता उसे नकारात्मक रूप में प्रभावित करने वाला है। मानव जाति का संपूर्ण विकास उसे प्रकृति की निर्भरता से मुक्त करने वाला होगा। आज विज्ञान और तकनीकी के माध्यम से जब हम इस परिस्थिति की तरफ अग्रसर हो रहे हैं तो एक नई तरह की समस्याएं खड़ी हो रही हैं। दुनिया ई-कचरे का ढेर बनती जा रही है जो पर्यावरण को लंबे समय तक और गहरे तक प्रदूषित करने वाला है। ये ई-कचरा अक्षरणीय प्रदूषक है। ये चुनौतियां ऐसी हैं जो केवल मौजूदा व्यवस्था के साथ नहीं जुड़ी हैं। क्या बाजार आधारित व्यवस्था खत्म होने से पर्यावरण को नुकसान पंहुचाने वाले ई-कचरा का निस्तारण हो जाएगा या ई-कचरा पैदा ही नहीं होगा? हम मोबाइल या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल बंद कर देंगे? क्या पॉलीथीन या प्लास्टिक की सामानें नहीं होंगी? मसलन हम कल्पना करते हैं कि प्लास्टिक का प्रयोग बंद हो जाए और दुनिया का सारा फर्नीचर प्लास्टिक के बजाय लकड़ियों का बनाया जाए तो क्या वैसी स्थिति में वनों पर निर्भरता नहीं होगी। यहीं पर मानवीय चेतना की भूमिका है जो मौजूदा व्यवस्था में भी और बाजार से इतर ढांचे में भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
अभी मानवीय चेतना बाजारवाद के प्रभाव में है और इंसान एक उपभोक्ता और ग्राहक की तरह इस्तेमाल हो रहा है लेकिन जब ऐसी स्थितियां नहीं होंगी तो फिर इंसान की भूमिका क्या होगी। विकास के संदर्भ में आर्थिक विकास उतना महत्वपूर्ण नहीं जितना महत्वपूर्ण है मानव विकास। सबको पता है कि पृथ्वी पर मौजूद संसाधन सीमित है। इस संदर्भ में बढ़ती जनसंख्या और उसके साथ जुड़ी उपभोक्ता दर बड़ी समस्या है। पृथ्वी एक ऐसा पात्र है जिसमें से हम निकाल तो सकते हैं लेकिन उसमें कुछ डाल नहीं सकते हैं। यानी उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन अत्यधिक इस्तेमाल होने से समाप्त होने के कगार पर है। विकसित देशों और विकासशील देशों के बीच हुए विश्वव्यापी बहस ने जनसंख्या और उपभोक्ता दर के बीच विरोधाभास को उजागर किया है। विकसित देश बड़ी जनसंख्या का हवाला देते हुए विकासशील देशों को पर्यावरण के प्रति पहले जिम्मेदारी लेने की बात कर रहे हैं तो विकासशील देश अधिक उपभोक्ता दर का हवाला देते हुए विकसित देशों को पहली जिम्मेदारी लेने की बात कर रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र के एक अनुमानित आकड़े पर गौर करें तो वो और भी चौंकाने वाले हैं। आंकड़ों क़े अनुसार 2050 तक दुनिया की आबादी लगभग 950 करोड़ हो जाएगी। ऐसी स्थिति में यदि पूरी दुनिया के लिए एक जैसी उपभोक्ता दर की भी कल्पना करते हैं तो यह पृथ्वी पर अत्यधिक दबाव डालने वाला होगा। इस परिस्थिति में दुनिया को ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोतों और विज्ञान तथा तकनीक के नए-नए आविष्कार की तरफ अग्रसर होना होगा क्यों कि दुनिया विकास की गति से पीछे नहीं हट सकती है। पर्यावरणीय संकट की समस्या को दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देशों को समय रहते गंभीरता से लेना होगा और सुरक्षित पर्यावरण के मसले को विनाशकारी चुनौती के रूप में ईमानदारी से स्वीकारना होगा। और अगर ऐसा नहीं हो पाया तो अमेरिका और रूस जैसी महाशक्ति विकास के मकड़जाल में फंसकर दफन हो जाएंगे। भारत जैसे विकासशील देश को इससे सबक लेने की जरूरत है क्योंकि इस देश के साथ सबसे बड़ी बिडंबना यह है कि अमेरिका और रूस में विकास का जो फार्मूला बेकार हो जाता है उस भारत में अपना लिया जाता है। इसलिए हमें रूस में बाढ़ और अमेरिका में बढ़ते तापमान से मची तबाही पर हंसना नहीं चाहिए बल्कि भविष्य में आने वाले खतरे से खुद को बचाने के लिए उपाय ढूंढ़ने होंगे।
First Published: Thursday, July 12, 2012, 16:33