हक के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे आदिवासी और भूमिहीन किसान

हक के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे आदिवासी और भूमिहीन किसान

रंजना ठाकुर

नई दिल्ली : देश में पिछले कुछ दिनों से भूमिहीन किसान और आदिवासी जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। हजारों की संख्या में इन्होंने कन्याकुमारी से लेकर आगरा तक जन सत्याग्रह मार्च निकाला। एक साल तक चले इस मार्च में 26 राज्यों के तमाम भूमिहीन लोग जुड़ते चले गए। इन लोगों की मांग थी कि सरकार राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति बनाए।

देश के हर नागरिक को ज़मीन का हक मिले, देश में लैंड पूल बनाए जाए। भूमिहीनों को सुनिश्चित रोज़गार मिले और महिलाओं को किसानों का दर्जा दिया जाए। सरकार ने इनकी मांगें पूरी करने का आश्वासन दिया है और 6 महीने का वक्त मांगा है, जिसकी मियाद अप्रैल 2013 में खत्म हो रही है। लेकिन अभी कई सवाल हैं, सरकार अभी भूमि अधिग्रहण कानून पर आखिरी फैसला नहीं ले पाई है जबकि लंबे समय से ये प्रस्तावित है तो ऐसे में क्या भूमि सुधार बिल आ पाएगा। देश में भूमिहीनों की संख्या जमीन अधिग्रहण की वजह से भी बढ़ी है और इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं आदिवासी।

आदिवासियों का जीवन जल, जंगल और ज़मीन के इर्द गिर्द ही घूमता है। मौजूदा हालात को छोड़ दें और अभी से 6 दशक पहले की बात करें तो आदिवासी जहां होते थे उस जमीन का मालिकाना हक उन्हीं का होता था। हालांकि कानूनी तौर पर भले ही उनके पास दस्तावेज नहीं होते थे। सदियों से ये आदिवासी इस ज़मीन पर रहते आए थे, लेकिन 60 और 70 के दशक में उस पर बाहरी दखल बढ़ने लगा। उनकी ज़मीन कभी कानूनी तो कभी गैर कानूनी तरीके से गैरआदिवासियों के कब्जे में आने लगीं। नतीजा ये हुआ कि ज्यादातर आदिवासी अपनी ज़मीनें खोकर मजदूर बन गए। आदिवासी जो अब तक प्राकृतिक संसाधनों जैसे पेड़, पानी ज़मीन पर अपना अधिकार समझते थे उस पर सरकार का कब्जा होने लगा।

फॉरेस्ट रिजर्व के लिए बनाई जा रही नीतियों ने आदिवासियों को उनके ही इलाकों में रहने खाने और उनके रहन-सहन के तौर तरीकों पर कई पाबंदियां लगा दीं। आदिवासियों के लिए मुश्किलें तब सबसे ज्यादा बढ़ीं जब देश में रेलवे का विस्तार किया गया। सरकार ने टीक, साल और देवदार के पेड़ों वाले जंगलों का आरक्षण करना शुरु कर दिया ताकि इनका इस्तेमाल रेलवे के लिए स्लीपर बनाने में किया जा सके। आदिवासियों ने धीरे -धीरे विरोध करना शुरु कर दिया, जिसके बाद फॉरेस्ट और वाइल्ड लाइफ की सुरक्षा के लिए कानून बनाए गए तो आदिवासियों के लिए भी कानून बने। उनमें से कुछ अहम कानून हैं-भारतीय वन्‍य कानून 1927, वन्‍य जीवन संरक्षण कानून 1972 और अनुसूचित जनजाति और अन्‍य पारंपरिक वन्‍य निवासी कानून 2006।

इन कानूनों के आने के बाद आदिवासियों को खासा झटका लगा। भारतीय वन्‍य कानून 1927, के मुताबिक सरकार जंगल के किसी भी हिस्से को रिजर्व घोषित कर सकती है तो वहीं वन्‍य जीवन संरक्षण कानून 1972 के मुताबिक सरकार किसी भी क्षेत्र को सुरक्षित क्षेत्र बनाने का ऐलान कर सकती है। इसके बाद इन इलाकों में रह रहे आदिवासी शिकायत करते हैं तो इसकी सुनवाई का अधिकार फॉरेस्ट सेटलमेंट अधिकारी के पास है, लेकिन कई इलाकों में ये व्यवस्था लागू ही नहीं हो पाई है।

आदिवासियों के लगातार विरोध के बाद अनुसूचित जनजाति और अन्‍य पारंपरिक वन्‍य निवासी कानून 2006 बनाया गया, लेकिन इससे आदिवासियों के हित पूरे नहीं हो पाए। इस कानून के मुताबिक सरकार अगर आदिवासियों को उनके इलाके से हटाती है तो इस हालत में सरकार को ना सिर्फ उनके पुनर्वास बल्कि आजीविका के साधन भी उपलब्ध कराना होगा, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हो पा रहा है। दूसरी तरफ आदिवासियों की ज़मीन पर अधिग्रहण लगातार जारी है। कई जगहों पर हालत ये है कि जंगलों में अपना डेरा जमाने वाले आदिवासी इसके लिए सरकार को टैक्स भी देते हैं।

आदिवासियों और सरकार के बीच गतिरोध कई दशक पुराना है। आजादी के बाद भूमि सुधार से जुड़े लगभग 270 कानून प्रभाव में आए, लेकिन आज तक ये समस्या खत्म नहीं हो पाई है। देश के अलग-अलग राज्यों में आदिवासी अभी भी अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। बीते कुछ साल में इस लड़ाई ने ज़ोर पकड़ा है और अब ये लड़ाई सड़कों पर आ चुकी है।

हाल ही में झारखंड में रांची से करीब 15 किलोमीटर दूर नगरी में 227 एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया गया ताकि यहां आईआईएम, ट्रिपल आईटी और लॉ कॉलेज बनाया जा सके। इससे तकरीबन 153 परिवार प्रभावित हो रहे हैं जिनमें से ज्यादातर आदिवासी हैं और ये इस ज़मीन पर धान की खेती कर अपना गुजारा करते हैं। सरकार के इस फैसले का यहां रहने वाले आदिवासी विरोध कर रहे हैं, इन्हें आस पास के तकरीबन 35 गांवों का समर्थन हासिल है।

मध्य प्रदेश के डिंडोरी में 200 करोड़ की लागत से डैम का निर्माण किया जा रहा है। इसके लिए तकरीबन 643 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण किया गया है, इसमें से ज्यादातर जमीन आदिवासियों की है। ये आदिवासी अपनी ज़मीन छोड़ने को तैयार नहीं है। अगर छोड़ भी दें तो इनके पुनर्वास की अभी तक कोई व्यवस्था नहीं की गई है। लिहाजा इन्होंने अदालत की शरण ली है।

आदिवासी और उनकी इस लड़ाई की शुरुआत ब्रिटिश राज में ही हो गई थी। आदिवासी द्वारा इस्तेमाल किए जा रहे प्राकृतिक संसाधन पर ब्रिटिश कब्जा चाहते थे और इसीलिए उसी वक्त आदिवासियों के कबीलों में दखल शुरु हो गया था और तब से ही ये लड़ाई चल रही है। अब हालात बदल चुके हैं। भारत आज़ाद हो चुका है, कई कानून बना दिए गए हैं। लेकिन लड़ाई जारी है और अपने ही जल जंगल और जमीन के लिए अपने ही लोग अलग-अलग सरकारों के साथ दिन रात एक संघर्ष कर रहे हैं।

First Published: Friday, December 7, 2012, 16:38

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