टैलेंट हंट या पाइड पाइपर की बांसुरी - Zee News हिंदी

टैलेंट हंट या पाइड पाइपर की बांसुरी



 

डा. हेमंत कुमार

 

किसी ऊंची मीनार पर पहुँचने के लिए सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ना ठीक रहता है। ये बात हम सभी जानते हैं। अगर हम मीनार पर सीढियों के सहारे चढेंगे तो हमें चढ़ने के साथ ही उतरने का रास्ता भी मालूम रहेगा। पर एक ही छलांग में अगर मीनार के ऊपर पहुँच गए तो उसी तरह धड़ाम से नीचे भी गिर जाएंगे।

 

कुछ ऐसी ही हालत हो रही है हमारे देश के शहरों और गावों में। हर शहर, मुहल्ले, गावों, गली, कूचे का बच्चा टीवी पर चल रहे टैलेंट हंट शो में जाने को आतुर है। टैलेंट हंट टीम के आने की घोषणा हुई नहीं कि शहर के सारे बच्चे निकल पड़ते हैं घरों से। अब आगे आगे चलता है बांसुरी वाला…और पीछे पीछे बच्चे। किसी शहर में अगर कोई चैनल ऑडीशन के लिए दस बजे दिन का समय तय करता है तो चौबीस घंटे पहले से ही उस शहर के साथ ही आस पास के शहरों और गावों के बच्चे लाइन लगा कर खड़े हो जाते हैं।साथ में उनके माता पिता भी।

 

अब बच्चे का गला सुरीला हो या भोंडा,बच्चा सुर ताल की समझ रखता हो या नहीं। इससे मां-बाप को मतलब नहीं। उन्हें तो चैनल के चमकते परदे पर अपने लाडले या लाडली की गाना गाती या ठुमके लगाती सलोनी छवि नजर आती है। और तो और जो बच्चा साफ मना कर देता है कि उसे गाना नाचना नहीं है तो उसके माता-पिता लाठी ले कर उसके ऊपर सवार। क्यों नहीं गाएगा? क्यों नहीं नाचेगा? इसके पीछे रुपहले पर्दे की चमक दमक के साथ ही माता-पिता को नजर आती है चैनल से मिलने वाली मोटी रकम।मतलब ये कि वो अपने बच्चों के माध्यम से रातों रात लखपति बन जाना चाहते हैं।

 

अब आप देखिए जरा टैलेंट हंट शो के आयोजकों की तरफ़। देश के हर शहर में घूम घूम कर नगाड़ा पीटते हैं। हर गली, गावों, शहर, मुहल्ले के बच्चों को इकठ्ठा करते हैं। महीनों तक बच्चों के मन में आशा जगाए रखते हैं, और अंत में कुल दस बीस बच्चों को स्क्रीन पर शकल दिखाने का मौका देते हैं।

 

एक बात और। इस टैलेंट हंट शो का जन्मदाता भी बहुत बड़ा बिजनेस माइण्डेड रहा होगा। जैसे जब किसी जगह पर कोई फ़ैक्ट्री खुलती है या कोई उद्योग शुरू होता है तो उसके आस पास के इलाके में काफी बड़ी बस्ती बन जाती है। फ़िर उस बस्ती में ढेरों दुकानें खुल जाती हैं। कई लघु उद्योग और उनके सहायक उद्योग भी खुल जाते हैं।मतलब ये कि फ़ैक्ट्री अगर दो हजार लोगों को नौकरी देती है तो उसके आस पास चार हजार लोगों के रोजगार अपने आप पैदा हो जाते हैं।

 

ठीक यही काम किया इन टैलेंट हण्टिया चैनलों ने। पूरे देश के हर शहर, गली मुहल्ले सब जगह संगीत विद्यालय खुल गए हैं। कोई गाना सिखाता है कोई नाच। कोई मोनो ऐक्टिंग तो कोई जोक सुनाने या कम्पेअरिंग की क्लासेज लेता है। अब इनके यहां की टीचरों को भले ही सुर ताल का ज्ञान न हो,कभी उन टीचरों ने कम्पेअरिंग का नाम भी न सुना हो,तो भी उनका स्कूल चल रहा है धड़ल्ले से। स्कूलों की अच्छी खासी कमाई हो रही है। और मां-बाप बड़े शौक से इन विद्यालयों में अपने बच्चों को भेज देते हैं हैं। और तो और इनमें से कई स्कूल मां-बाप से यह कह कर भी रकम ऐंठ लेते हैं कि वे उनके बच्चों को टीवी के फ़लां चैनल के फ़लां प्रोग्राम में रखवा देंगे और बेचारे अभिभावक उनकी बुद्धि पर तो रुपहले पर्दे का ताला लग ही चुका रहता है।

 

अभिभावकों पर तो जैसे जूनून सवार हो गया है। कोई अपने बच्चे को गायक बनाना चाहता है,तो कोई ब्रेक डांसर।कोई राजू श्रीवास्तव तो कोई मुन्ना भाई। और इसके लिए सब कमर कस कर तैयार हैं। गली-गली में खुले संगीत स्कूलों में भेज रहे हैं अपने बच्चों को। उतनी ही फीस दे रहे हैं जितनी स्कूल की देते हैं। हर मां-बाप बड़े ध्यान से हर चैनल के विज्ञापन पर नजर रखता है। अख़बार का अक्षर अक्षर चाट जाता है,कि कहीं कोई टैलेंट हंट का विज्ञापन छूट न जाए।

 

अब आप ही बताइए जब चारों और इतनी कोशिशें की जा रही हैं तो हमारे देश में प्रतिभाओं की कमी रह पाएगी? नहीं न। लेकिन बस यही एक, लेकिन शब्द कमबख्त ऐसा है जो हमें आपको और हम सबको सोचने पर मजबूर कर रहा है। अब सोचने का मुद्दा ये है कि हजारों बच्चों में से एक जो चुना गया वह तो हीरो हो गया। सारी दक्षता, सारा हुनर, सारा तेज उसी बच्चे में है।

 

लेकिन क्या बाकी हजारों बच्चों में कोई हुनर नहीं है? बाकी बच्चे क्या शून्य हैं? बाकी बच्चों के मन, कोमल हृदय पर क्या गुजरती होगी जब उन्हें प्रारंभिक चयन या एक समूह से एलिएनेट किया जाता होगा? क्या इन बच्चों के मन में अपनी पूरी जिंदगी के लिए एक हीन भावना नहीं घर कर जाएगी? चयन की पूरी प्रक्रिया/तैयारी के दौरान बच्चों की पढ़ाई का जो नुकसान होता है उसकी भरपाई कौन करेगा? ये टैलेंट हण्टिया चैनल,या प्रोग्राम प्रोड्यूसर या हमारी सरकार? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जो मुझे अक्सर परेशान करते हैं। जब मैं टीवी पर एलिएनेशन के दौरान किसी बच्चे या बच्चों को रोते, बेहोश होते (यहां तक कि कोमा में जाते) देखता हूं।

 

(लेखक वतर्मान में शैक्षिक दूरदर्शन केंद्र,लखनऊ में लेक्चरर प्रोडक्शन पद पर कार्यरत हैं)

 

First Published: Thursday, December 22, 2011, 23:28

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