नजर लगी राजा 2014 पर

नजर लगी राजा 2014 पर

नजर लगी राजा 2014 पर पुण्‍य प्रसून बाजपेयी

2014 तक राजनीतिक विकल्प का सपना संजोये अन्ना हजारे के पहले ही कदम से अन्ना टीम सकते में है। यूपीए को 2014 में घराशायी कर सत्ता में आने का स्वर्ण अवसर माने बैठी बीजेपी अपने ही लाल बुझक्कड लाल कृष्ण आडवाणी के ब्लॉग संदेश से सकते में है। ब्लॉग संदेश को अपने लिये 2014 में सत्ता का ताज पहनने सरीखा मान रहे मुलायम सिंह यादव सहज हो नहीं पा रहे इसलिये 6 अगस्त को सोनिया गांधी के भोज में मनमोहन सिंह से चुटकी ले आए कि आज आप मुश्किल है तो हम साथ खड़े हैं। कल हम मुश्किल में होंगे तो सत्ता में पहुंचाने का जुगाड़ आपको करना होगा। वहीं 2014 को लेकर कांग्रेस सुकुन में है कि जहां उसे गेम से बाहर मान लिया जाना चाहिये था, वहां उसकी अहमियत बरकरार है।

तो क्या 2014 का रास्ता एक ऐसे चौराहे पर जाकर रुक गया है जहां से आगे का रास्ता राजनीतिक दलों या आंदोलनों के कामकाज या भी किसी नायक की खोज के बाद निकलेगा। या हर रास्ते के राजनीतक मशक्कत के बाद ही तय होगा कि कौन सा रास्ता सही है। असल में रास्ता सही कौन सा है यह कहना और सोचना शायद देश के सामने मुंह बाये खड़े मुद्दों को लेकर आइना देखने-दिखाने के समान होगा।

जरा सिलसिलेवार परखें। जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे सामाजिक संघर्ष का बिगुल फूकते रहे, उस संघर्ष को कंधे पर उठाने वाले कुल जमा सात चेहरे ही पहले दिन से आखिरी दिन तक नजर आये। यानी डेढ बरस के आंदोलन की कवायद का सच यह भी है कि जो मंच पर टिका रहा, वही चेहरा बन गया। जबकि आंदोलन को देश के राजनीतिक मिजाज से जोड़ने का सुनहरा मौका बार बार आया। यहां यह कहना बेमानी होगा कि राजनीति तो अब शुरु हुई। असल में राजनीति को प्रभावित करने की दिशा में अन्ना हजारे का आंदोलन तो पहले दिन से ही जोर पकड़ चुका था। और ऐसा कोई आंदोलन होता नहीं जो राजनीति से इतर सिर्फ सामाजिक शुद्दीकरण की बात कहे।

राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ जरुर अपने बनने के 87 बरस बाद भी कहती रहती है कि उसका रास्ता राजनीतिक नहीं है। लेकिन संघ के जिस ककहरे को पढ़कर श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर नरेन्द्र मोदी तक सियासत करने निकले, वह संघ राजनीति नहीं कर रहा है यह कहना और सोचना राजनीति की परिभाषा में सिर्फ चुनाव को मानना ही होगा। क्या संघ सरीखी राजनीति के रास्ते पर ही अन्ना हजारे तो नहीं। जो चुनाव लड़ने या पार्टी बनाने को ही राजनीति मानते हुये देश को राजनीतिक विकल्प के लिये तैयार करना चाहते है। अन्ना हजारे की मुश्किल यही से नजर आती है। क्योंकि जनलोकपाल के लिये बनायी गई कमेटी और राजनीतिक मैदान में उतरने की तैयारी की कमेटी में अंतर होगा ही। और अन्ना का सच यही है कि जनलोकपाल का सवाल उठाने वाली टीम अन्ना हजारे को रालेगणसिद्दी से दिल्ली के जंतर-मंतर तक तो ले आई, लेकिन जब आंदोलन की समूची साख ही अन्ना पर टिक गई तो वह दोबारा रालेगण सि्द्दी इसलिए लौट गए क्योंकि उन्हें भरोसा है कि अब जो टीम उन्हे रालेगणसिद्दी से दिल्ली के दरवाजे पर ला खड़ा करेगी उसके पास राजनीतिक विकल्प देने का सपना होगा।

यानी अपनी साख को रालेगण की पोटली में समेट कर अन्ना बैठे रहेंगे और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को चुनावी राजनीति के लिए नए चेहरो को गढ़ना भी होगा और जोड़ना भी होगा। तभी अन्ना चुनाव को आंदोलन से जोड़ पाएंगे और 2014 का रास्ता उनके मुताबिक निकलेगा। लेकिन 2014 के लिये बीजेपी को तो ना गढ़ना है ना जोड़ना है। बल्कि उसे एकजुट रहकर अपने नायक को खोजना है और उसके पीछे खड़े हो जाना है। लेकिन बीजेपी की मशक्कत बताती है कि उसे बनते चेहरों को ढहाना है और ढहाने वालों को खुद को बनाना है। यह रास्ता गुजरात में केशुभाई पटेल से लेकर आडवाणी तक के जरीये समझा जा सकता है। आरएसएस की दिल्ली बिसात नरेन्द्र मोदी को लेकर है। और संघ के खांटी स्वयंसेवक रहे केशुभाई पटेल को यह मंजूर नहीं।

केशुभाई गुजरात में ही मोदी के सामने परिवर्तन के गड्डे खोदकर दिल्ली कूच से रोकना चाहते हैं और संघ के लाड़ले बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी इसपर खामोशी बरतते हैं। जिस लड़ाई को महज एकजुट होकर जीता जा सकता है, उस संघर्ष को जीतने के बदले अपनी हार में बदलने की कवायद ब्लॉग संदेश से समझी भी जा सकती है और संदेश को ताकत मानने की सकारात्मक समझ से परखा भी जा सकता है। आडवाणी के ब्लॉग चिंतन को पार्टी के कैडर के लिये पहले से ही जीत ना मान लेने का संदेश बताने का सिलसिला चल पड़ा है। यानी 2004 में जीत मानने की जो गलती हुई उसे 2014 में कैडर यह सोचकर ना दोहरा दें कि सत्ता मिलनी तो तय है। लेकिन एक लाइन में आडवाणी यह भी बिना लिखे कह गये कि दौड़ में वही है और उन्हें खारिज करने का सपना ना पालें।

तो क्या आडवाणी का ब्लॉग तीसरे मोर्चे के झंडाबरदारों के लिए लिखा गया। और सबसे ज्यादा सीटों वाले राज्य के कर्णधार मुलायम सिंह यह माने बैठे हैं कि 5 कालीदास मार्ग पर बेटे को बैठा कर 7 रेसकोर्स का रास्ता वही तय कर सकते हैं। यकीनन सीटों के लिहाज से मुलायम अगर यूपी में मायावती को आगे बढ़ने से रोकते हैं और 50 सीट तक पा लेते है तो जयललिता, नवीन पटनायक, जगन रेड्डी और वामपंथियो के साथ साथ ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, प्रकाश सिंह बादल और बालासाहेब ठाकरे को भी सोचना होगा कि उनका रास्ता किधर जायेगा । क्योंकि इन सभी क्षत्रपो को तो पचास से कम सीटो पर अपना भाग्य ही आजमाना है। लेकिन यह रास्ता महज चुनावी बिसात का है।

यानी कोई मुद्दा नहीं। कोई आंदोलन नहीं। सीधे आज की परिस्थति में 2014 का चुनाव। लेकिन यह समझ ब्लॉग चितंन की तो हो सकती है मगर जनीतिक तौर पर क्या वाकई 2014 तक देश ऐसे ही घसीटेगा। बेहद मुश्किल है यह रास्ता। क्योंकि कांग्रेस इस सच को समझ रही है कि आर्थिक सुधार के रास्ते देश संभल नहीं सकता। महंगाई जिन वजहों से है उस पर नकेल कस पाने का नैतिक साहस उसमें बच नहीं पा रहा है। बाजारवाद के रास्ते खनन से लेकर संचार और कोयले से लेकर पावर प्रोजेक्ट तक की कीमत जब लगाई जा रही है तो मुनाफे की लूट और घोटालों के खेल को आर्थिक सुधार का जामा पहनाने से इतर सरकार देख नहीं सकती।

जाहिर है ऐसे में एक रास्ता राहुल गांधी के दरवाजे से टकराता है और दूसरा रास्ता आरएसएस के नरेन्द्र मोदी बिसात से। युवा भारत के सपने को राहुल गांधी कितना भूना सरके है यह अपने आप में पहेली है। क्योंकि अन्ना टीम अगर 2014 तक अपनी बिसात बिछा लेती है तो युवा मन अन्ना टीम के साथ विकल्प खड़ा करने का मन बनायेगा ना कि राहुल गांधी के साथ खड़ा होने का। ऐसे में सवाल नरेन्द्र मोदी का होगा। बीजेपी से ज्यादा कांग्रेस के लिए नरेंद्र मोदी जरुरत होंगे। मोदी के मैदान में उतरने का मतलब है मुस्लिमों का एकजुट होना और जब देश के मुस्लिम एकजुट होंगे तो यूपी का मुस्लिम मुलायम सिंह यादव को नहीं कांग्रेस को देखेगा।

यानी मुस्लिम तीसरे मोर्चे में खदबदाहट पैदा करने के लिये अपना वोट नहीं गंवायेगा बल्कि राष्ट्रीय लड़ाई में निर्णायक जीत की तरफ कदम बढ़ायेगा। यहां सवाल खडे हो सकते हैं अगर नरेन्द्र मोदी का मतलब सीधे कांग्रेस और आरएसएस की टक्कर है तो फिर बीजेपी के भीतर गडकरी के प्यादा बने केशुभाई और आडवाणी के छाया युद्द में जेटली-सुषमा के साथ का मतलब क्या है। तो क्या यह मान लिया जाये कि राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को कांग्रेस का मुलायम हिन्दुत्व यनी सॉफ्ट हिन्दुत्व तो मंजूर है लेकिन नई परिस्थितयों में ना तो अन्ना हजारे के राजनीतिक विकल्प की सोच मंजूर है और ना ही तीसरे मोर्चे यानी मुलायम या नीतीश सरीखे सेक्यूलरवादी। यानी जो रास्ता आरएसएस का है वहीं कांग्रेस का है। संघ को लगता है क्षेत्रीय दलो के हाथ सत्ता आयी तो घोटाले-घपलो और कारपोरट लूट ज्यादा बढ़ेगी यानी राष्ट्र और ज्यादा बिकेगा।

वहीं, काग्रेस को लगता है कि तीसरा मोर्चा आया तो सवालिया निशान गांधी परिवार की साख पर उठेंगे और फिर उनका नंबर 2019 में भी नहीं आएगा। इसीलिये आरएसएस मोदी को लाने को तैयार है और कांग्रेस अब राहुल गांधी को मैदान में उतारने को तैयार है। दोनों ही ऐसे नाम हैं, जिनके जिक्र भर से देश भर के किसी भी कोने में हर वोटर अपनी प्रतिक्रिया देगा ही। यानी बीजेपी और कांग्रेस दोनो जगह और कोई नेता नहीं जिसके जिक्र के साथ ही राजनीतिक कंरट लगे। असल में अन्ना हजारे को राजनीतिक विकल्प देने के लिये इसी मिथ को तोड़ना है, जहां नेता का नाम या कद नहीं बल्कि देश के आम बहुसंख्यक हाशिये पर पड़े वोटरों की जरुरतों को चुनावी राजनीति से जोड़ना है। यानी पहली बार विकल्प के तौर पर उस राजनीति को जगाना है जो मनमोहन सिंह के उदारवादी अर्थव्यवस्था को चुनौती देते हुये राजनीतिक मुद्दा बना सके। लेकिन सवाल यही है कि जब जनलोकपाल की कमेटी भंग होने से ही अन्ना टीम को अपना रास्ता ही नहीं सुझ रहा है तो फिर 2014 का रास्ता कैसे और कौन बनाएगा। (लेखक के ब्लॉग से साभार)

(लेखक ज़ी न्यूज में प्राइम टाइम एंकर एवं सलाहकार संपादक हैं)

First Published: Friday, August 10, 2012, 17:16

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