मुजफ्फरनगर के मायने...

मुजफ्फरनगर के मायने...

मुजफ्फरनगर के मायने...वासिंद्र मिश्र

मुजफ्फरनगर के दंगों ने एक बार देश में महात्मा गांधी की कमी को अहसास करा दिया है। तमाम तरह के वाद (ISM) का नारा देकर राजनीति करने वाले और सामाजिक कार्यों में लगे संगठन और नेताओं को सांप्रदायिक आग में झुलस रहे उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में सांप्रदायिक सद्भाव बनाने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। जो मुट्टी भर नेता निकले भी, वो वहां महज फोटो खिंचवाकर पब्लिसिटी हासिल करने के लिए ही गए थे।

यहां हम उन गांधी की बात कर रहे हैं जो भारत-पाक विभाजन के वक्त भड़की सांप्रदायिक हिंसा को शांत कराने और सद्भाव कायम करने के लिए आजादी के जश्न मे शरीक होने के बजाय नोवाखाली में आमरण अनशन पर बैठ गए थे। लेकिन आज समाजवाद, मार्क्सवाद, लेनिनवाद, एकात्म मानववाद, धर्मनिरपेक्षवाद और पंथनिरपेक्षवाद के सिद्धांतो पर चलकर समाज में गैर-बराबरी दूर करने और सामाजिक सद्भाव कायम करने की होड़ में लगी पार्टियां और उनके नेता दंगा प्रभावित इलाकों में जाने की बजाय एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप और वोटबैंक को मजबूत करने की जुगत में ही दिखाई दे रहे हैं।

मुजफ्फरनगर के मायने...

अब जब मुजफ्फरनगर में थोड़ा सांप्रदायिक सद्भाव कायम होता दिखाई दे रहा है और वो भी वहां के स्थानीय लोगों के प्रयास से तो एक बार फिर पुलिस, कमांडोज़ और सुरक्षा बलों के घेरे के बीच में उत्तर प्रदेश और देश की सरकार चलाने वाले लोगों को घटनास्थल पर जाकर हालात का जायजा लेने की सुध आई है। लाखों करोड़ों जनता का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले नेताओं के अंदर उन महात्मा गांधी की तरह आत्मबल क्यों नहीं है जो हिंसा के वक्त बगैर किसी के सुरक्षा के घटनास्थल पर जाकर आमरण अनशन पर बैठ जाते हैं।

क्या ये सच है कि आज का जो नेता समाज है वो आर्थिक, नैतिक तौर पर इतना भ्रष्ट हो चुका है कि सच्चाई का सामना करने के लिए भी उनमे आत्मबल नहीं नजर आता है। 14 सितंबर को ही दोनों धर्मों के कुछ मजहबी लोगों की तरफ से सांप्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए एक प्रयास जरूर किया गया लेकिन इस मुहिम में भी शामिल ज्यादातर चेहरे ऐसे ही थे जो अलग-अलग समय पर सत्ता में बैठे लोगों के हाथों की कठपुतली बनकर उनके सियासी एजेंडे को परोक्ष रूप से ही सही आगे बढ़ाते रहे हैं। अब बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री की तरफ राष्ट्रीय एकीकरण समिति की बैठक बुलाई जाने वाली है प्रस्तावित बैठक में देश में अचानक बढ़ गए सांप्रदायिक उन्माद की स्थिति से निपटने के लिए विचार विमर्श किया जाएगा।

मुजफ्फरनगर दंगे के तुरंत बाद दिए गए अपने बयान में देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा था कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को सांप्रदायिक तनाव बढ़ने की संभावना की जानकारी दे दी गई थी। अगर केंद्रीय गृहमंत्री शिंदे की ही बात को सही माना जाए तो केंद्र सरकार को पहले ही इस बात की जानकारी थी कि यूपी सहित देश में सांप्रदायिक सदभाव बिगाड़ने की साजिश शुरू हो गई है तो क्या गृहमंत्री से लेकर देश के पीएम तक को मुजफ्फरनगर मे दंगे होने का इंतजार था। उसके बाद भी राष्ट्रीय एकीकरण परिषद की बैठक बुलाने और सांप्रदायिक सद्भाव बिगड़ने को रोकने के उपायों पर विचार की आवश्यकता महसूस हुई।

उत्तर प्रदेश सरकार भी अपने संवैधानिक दायित्वों को निभाने और दंगा प्रभावित क्षेत्रों में प्रभावी ढंग से कार्यवाही ना कर पाने में अधिकारियों, कर्मचारियों के खिलाफ कार्यवाही ना कर सकी। क्या हमारे देश के राजनैतिक दलों और नेताओं को अच्छे-अच्छे कामों, सिद्धांतों और राजनैतिक कामों के दम पर सत्ता में आने की उम्मीद नहीं हैं। तभी तो जब कभी देश में चुनाव का वक्त नजदीक आता है तो वोट के सौदागरों के लिए सबसे आसान तरीका सामाजिक उन्माद भड़काना, जज्बाती मुद्दों को उछालकर, क्षेत्रीय और जातीय समीकरण के दम पर सत्ता हासिल करने का जरिया लगने लगता है।

ऐसा नहीं है कि मुजफ्फरनगर का दंगा देश का पहला सांप्रदायिक दंगा है, लेकिन आज के इस विकसित समाज में इस तरह की घटना एक बार फिर हमारी भारतीय राजनीति के दुखद पहलू की याद दिलाती है जहां पहले भी सत्ता में आने के लिए किसी भी हद तक जाने की मिसाल इतिहास में बार-बार देखने को मिलती रही है।

(लेखक ज़ी रीजनल चैनल्स के संपादक हैं)


First Published: Sunday, September 15, 2013, 15:08

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