कांग्रेस का चुनावी परिदृश्य

कांग्रेस का चुनावी परिदृश्यप्रवीण कुमार

ऐसा माना जा रहा है कि 2014 का आम चुनाव देश में हुए अब तक हुए सभी चुनावों से अलग होने वाला है। काफी अनिश्चिताओं से भरा होगा यह चुनाव। लेकिन एक परिणाम संदेह से परे है और वह यह कि इस चुनाव में कांग्रेस की जबर्दस्त हार होने जा रही है।
देश की जनता के मूड में इतने बड़े पैमाने पर बदलाव की आहट से पार्टी के नेता सदमे में हैं। उन्हें यही पता नहीं चल पा रहा है कि कांग्रेस पार्टी को पूरी तरह से खारिज क्यों किया जा रहा है। पार्टी के मनोबल में गिरावट हर तरफ साफ नजर आ रही है। पुराने और नए कांग्रेसजन पार्टी छोड़कर ऐसे भाग रहे हैं जैसे डूबते जहाज से चूहे भागने लगते हैं। जगदंबिका पाल, सतपाल महाराज जैसे दिग्गज नेता कांग्रेस छोड़कर मोदी की भाजपा में शामिल हो गए हैं।

उम्मीदवारों का टोटा
चुनावी मैदान में कांग्रेस के पास उम्मीदवारों तक का टोटा पड़ गया है। एक तरफ पार्टी के कई दिग्गज चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं है तो दूसरी तरफ कई स्टार चेहरों ने भी लोकसभा चुनाव में उतरने के पार्टी के प्रस्ताव को नकार दिया है। क्रिकेटर वीरेंद्र सहवाग और हरभजन सिंह के अलावा अभिनेता मनोज वाजपेयी ने भी कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है। बनारस से नरेंद्र मोदी के खिलाफ सचिन तेंदुलकर को उतारने की भी अटकलें उड़ी, मगर संसदीय कार्य राज्यमंत्री और सचिन के दोस्त राजीव शुक्ला ने कहा कि तेंदुलकर को चुनाव मैदान में उतारने की खबर बेबुनियाद है। सहवाग, सच‌िन, हरभजन के अलावा युवराज स‌‌िंह के पास भी कांग्रेस ने चुनाव लड़ने का प्रस्ताव भेजा था लेक‌िन युवराज स‌िंह ने इसे स‌िरे से खारिज कर द‌िया। स‌ितारों के अलावा कांग्रेस के कद्दावर नेता पी.च‌िदंबरम, एके एंटनी ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया है।

वंशवाद रोकने में राहुल विफल
राहुल गांधी ने जनवरी, 2014 में एक निजी टीवी चैनल को दिए इंटरव्यू में करीब 73 बार `सिस्टम` शब्द का इस्तेमाल किया था। उनका कहना था कि इस देश के `सिस्टम` में बदलाव लाया जाना चाहिए। यही नहीं, राहुल गांधी पिछले कुछ सालों में कई मौकों पर कह चुके हैं कि वे चाहते हैं कि समाज के आम लोग खासकर युवा कांग्रेस में आएं, उनकी पार्टी उन्हें नेता बनाएगी। लेकिन 2014 के चुनावी परिदृश्य को देखें तो 125 साल से ज्यादा पुरानी पार्टी में राहुल के दावों के बावजूद टिकट बांटने के तरीके में ज्यादा बदलाव नहीं आया है। घोषित उम्मीदवारों की सूची पर निगाह दौड़ाएं तो कुल उम्मीदवारों में से करीब 14 फीसदी प्रत्याशी किसी न किसी नेता के परिवार के सदस्य हैं या फिर रिश्तेदार। यानी कांग्रेस में वंशवादी राजनीति को राहुल रोकने में फेल हो गए हैं।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की वंशवादी राजनीति के सबसे ज्यादा उदाहरण हैं। सुल्तानपुर के पूर्व राजघराने के संजय सिंह को कांग्रेस ने राज्यसभा भेजा है और उनकी पत्नी को सुल्तानपुर लोकसभा सीट से उतारे जाने की संभावना है। 70 के दशक में केंद्र में मंत्री रहे दिनेश सिंह की बेटी रत्ना सिंह प्रतापगढ़, जाकिर हुसैन के पोते सलमान खुर्शीद को फर्रुखाबाद सीट से, पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा की बेटी रीता बहुगुणा जोशी को लखनऊ और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपीएन सिंह के बेटे आरपीएन सिंह को कुशीनगर से, कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे जीतेंद्र प्रसाद के बेटे जितिन प्रसाद को धौरहरा से टिकट दिया गया है। इसके अलावा असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के बेटे गौरव गोगोई को कलियाबोर सीट से, बिहार में पप्पू यादव की पत्नी रंजीता यादव को टिकट, छत्तीसगढ़ में नक्सली हमले के शिकार बने महेंद्र कर्मा के बेटे दीपक को टिकट और अटल बिहारी वाजपेयी की भांजी करुणा शुक्ला को बिलासपुर से कांग्रेस ने मैदान में उतारा है।
गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री अमर सिंह चौधरी के बेटे तुषार चौधरी, मध्य प्रदेश में माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया को गुना और पूर्व उप मुख्यमंत्री सुभाष यादव के बेटे अरुण यादव को खंडवा से कांग्रेस ने टिकट दिया है। सुनील दत्ता की बेटी प्रिया दत्त को उत्तर मध्य मुंबई, मुरली देवड़ा के बेटे मिलिंद देवड़ा को दक्षिण मुंबई, पूर्व मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल के पौत्र प्रतीक को सांगली, नारायण राणे के बेटे नीलेश को रत्नागिरि-सिंधुदुर्ग और तीन बार सांसद रहे बालकृष्ण वासनिक के बेटे मुकुल वासनिक को भी कांग्रेस ने टिकट दिया है।

सरकार का रिपोर्ट कार्ड
वर्ष 2004 में अटलबिहारी वाजपेयी सरकार ने यूपीए को एक ऐसा देश सौंपा था जिसकी अर्थव्यवस्था पांच साल की मंदी से उबरी ही थी और 2003-04 में उसने 8.1 फीसदी की अच्छी-खासी वृद्धि दर दर्शाई थी, जो उस समय तक की सर्वोच्च दर थी। इसने वित्तीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन कानून पारित किया था और केंद्र सरकार के वित्तीय घाटे को जीडीपी के 2.5 फीसदी तक ला दिया था। वाजपेयी सरकार ने 2000 और 2003 के बीच ब्याज दरें आधी कर दी थीं और बाजार में वह उछाल ला दिया था, जो लगभग जनवरी 2008 तक अबाधित चलता रहा। यूपीए सरकार जब सत्ता में आई तो उसे सिर्फ वाजपेयी व एनडीए द्वारा रखी नींव पर आगे निर्माण करना था। इसने शुरुआत तो अच्छी की, लेकिन बाद में सब कुछ बिखर जाने दिया। शासन के हर क्षेत्र में इसकी नाकामी नजर आई। इसने कश्मीर विवाद हल करने का वह मौका गंवा दिया जो मुशर्रफ ने दिया था। उसने 2005 के दिल्ली समझौते के तहत बातचीत को इतना लंबा खींचा कि पाकिस्तान में जजों का संकट पैदा हुआ और फिर 2007 के चुनाव आ गए जिसने मुशर्रफ के हाथों से सत्ता छीन ली।

घरेलू नीतियों से निपटने का तरीका तो इतना विचित्र रहा कि उसने कांग्रेस और यूपीए सरकार की साख पर बट्टा लगा दिया। तेलंगाना को पृथक राज्य बनाने का वादा कर विनाशकारी भूल करने के बाद, इसने अपनी गलती नहीं मानी। लोकसभा के अंतिम दिनों में इसके विरोधियों को पार्टी से बाहर निकालकर आंध्र के विभाजन को अंतिम रूप दे डाला, जबकि सरकार का कार्यकाल समाप्ति की ओर था और उसे ऐसा करने का कोई नैतिक आधार नहीं था। अर्थव्यवस्था में जो तबाही कांग्रेस नीत यूपीए सरकार ने लाई उसके पासंग तो इसकी कोई भी गलती नहीं ठहरती। इसने वित्तीय जवाबदेही और बजट प्रबंधन को धता बताते हुए `सर्वसमावेशी` विकास के नाम पर भयंकर खर्च शुरू कर दिया। इससे वार्षिक वित्तीय घाटा चार गुना बढ़ गया। बढ़ी महंगाई दर से घबराकर सरकार ने 2007 में ब्याज दरें बढ़ानी शुरू कर दीं। ऊंची ब्याज दर की इसकी लगातार जारी नीति ने औद्योगिक वृद्धि का विनाश कर दिया, जो 2006-07 में 13 फीसदी थी, वह गिरकर 0.1 फीसदी पर आ गई। ऊंची ब्याज दरों ने औद्योगिक निवेश को लगभग पूरी तरह रोक दिया। पिछले चार साल में शेयर बाजार में एक भी आईपीओ नहीं आया है।

नेशनल सैंपल सर्वे और उद्योग मंत्रालय के मुताबिक 2004 से 2013 तक नई नौकरियां ही पैदा नहीं हुई हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि 4 करोड़ लोगों को रोजगार नहीं मिला, जिनमें ज्यादातर युवा हैं। उनसे उनका भविष्य छीन लिया गया है। यदि आर्थिक वृद्धि जारी रहती तो इन्हें रोजगार मिलता। इसके अलावा भ्रष्टाचार के भंडाफोड़ की खबरों ने शहरी गरीब और देश के युवा वर्ग को झकझोड़ कर रख दिया। अगर आपको याद हो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का नेशनल मीडिया सेंटर में किया गया वह प्रेस कांफ्रेंस जिसमें पहली बार किसी सरकार का मुखिया अपनी 10 साल की खामियां बताने में गर्व महसूस कर रहा था। सरकार की यह स्वीकारोक्ति ने 2014 के चुनाव का पासा ही पलट दिया। मनमोहन सिंह ने प्रेस कांफ्रेंस में साफ-साफ कहा था कि विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के अवसर सृजित करने में सरकार विफल रही। मुद्रास्‍फीति पर नियंत्रण करने में भी सरकार उतनी सफल नहीं हो सकती जितना वो चाहते थे। प्रधानमंत्री ने महंगाई को लेकर चिंता को वाजिब ठहराया था। प्रधानमंत्री ने भ्रष्‍टाचार से निपटने में विफल रहने का दोष भी अपनी सरकार पर मढ़ा था। ये सारी स्थितियां और परिस्थितियां 2014 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार हैं।
First Published: Monday, March 31, 2014, 18:40
First Published: Monday, March 31, 2014, 18:40
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