नई दिल्ली : देश के एक जानेमाने इतिहासकार ने कहा है कि मध्यकालीन भारत के प्रख्यात शासक शेरशाह सूरी ने अपने पांच साल के शासनकाल (साल 1540-1545) में अपनी अदम्य इच्छाशक्ति और दूरदृष्टि के जरिए शासन व्यवस्था को सुचारू बनाने और लोकहित के लिए जो काम किए वे आधुनिक भारत की सरकारों द्वारा पांच साल में किए जाने वाले काम पर भारी पड़ते हैं।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में इतिहास के प्रोफेसर नजफ हैदर ने कहा, ‘‘शेरशाह द्वारा किए गए काम थोड़े फेरबदल के साथ आज भी कायम हैं । मसलन - रूपए का प्रचलन, भूमि पैमाइश और उस पर कर लगाना, प्रशासन के प्रभावी संचालन के लिए खुफिया व्यवस्था का गठन, परिवहन के क्षेत्र में किए गए उल्लेखनीय काम, डाक-व्यवस्था इत्यादि । गौर करने वाली बात यह है कि अपने पांच साल के राजनीतिक उभार वाले जीवन में शेरशाह का लगभग आधा समय युद्ध करते बीता था।’’ दिल्ली के भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय में इतिहास की व्याख्याता कनिका सिंह ने बताया, ‘‘शेरशाह एक दक्ष रणनीतिकार, बेहतरीन प्रशासक और सक्षम योद्धा थे। उनका राजनीतिक उत्थान का जीवन साल 1540 में हुमायूं को पराजित करने से शुरू होता है और साल 1545 के मई महीने में कालिंजर के किले में युद्ध के दौरान बारूद के ढेर में लगी आग से मौत के साथ खत्म हो जाता है। लेकिन इन पांच सालों में उन्होंने जो काम किए वे एक नायाब मिसाल हैं।’’
राजधानी में इंडिया गेट के पास पुराने तालाब के पास बना किला आज भी कई जगहों पर प्राचीन वैभव, भव्यता और इतिहास के उस शोख रंग की याद दिलाता है जो आम भारतीयों के दिलोदिमाग से मिटता जा रहा है। पुराने किले के बाहर लगे एक प्लेट पर जिक्र है कि इस स्थल को हुमायूं ने ‘दीनपनाह’ नामक शहर को बसाने के लिए चुना था जिसके बारे में एक आम धारणा है कि पांडवों के समय का यह इन्द्रप्रस्थ क्षेत्र था। 20वीं सदी के आरंभ तक किले के भीतर ‘इन्द्रप्रस्थ’ से मिलते जुलते नाम का एक ‘इन्द्रपत’ गांव था। लेकिन अब तक कोई पांडवकालीन पुरातात्विक साक्ष्य प्राप्त नहीं हुए हैं। बेशक किले के पास एक किलकारी बाबा का मंदिर है जिसके बारे में प्रचलित है कि यह पांडवकालीन मंदिर है। तथ्यों को लेकर विवादों में जाने के बजाय यह तथ्य सर्वविदित है कि बिहार के सासाराम के शेरशाह
सूरी ने हुमायूं को पराजित करने के बाद इस किले को अपने कब्जे में ले लिया था और भारत में द्वितीय अफगान शासन को स्थापित किया। हुमायूं गुजरात के रास्ते ईरान जाकर वहां के शाह की शरण में चले गए और बाद में उन्हीं की मदद से दोबारा शेरशाह के पुत्र को हराकर इस किले को अपने कब्जे में लिया। प्रोफेसर हैदर ने बताया, ‘‘पुराने किले के साथ ही आज आम भारतीयों के दिल में हुमायूं और शेरशाह सूरी का नाम आता है। खासकर किले के अंदर बनी ‘मस्जिद’ और ‘शेर मंडल’ शेरशाह के वास्तुकला प्रेम को उजागर करता है। यही वह स्थान है जहां अपनी लाइब्रेरी से गिरकर हुमायूं की मौत हुई थी।’’ (एजेंसी)
First Published: Sunday, April 20, 2014, 18:40