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बॉलीवुड : बदलते दौर का सिनेमा

बॉलीवुड में शुरुआत से ही मुख्यधारा के सिनेमा के रूप में कामर्शियल फिल्मों का बोलबाला रहा है। हालांकि, इसके साथ-साथ समानांतर सिनेमा और आर्ट फिल्मों भी बनती रही हैं, जिन्हें लोगों ने पसंद किया है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से सिनेमा का एक नया रूप और रंग देखने को मिला है जिसे न तो कामर्शियल और न ही आर्ट फिल्मों की श्रेणी में रखा जा सकता है। ये फिल्में रियलिटी के ज्यादा करीब हैं। फिल्म निर्माताओं की एक ऐसी खेप उभरकर सामने आई है जो लीक से अलग हटकर ओरिजिनल सिनेमा बनाने में विश्वास करता है।

हाल की फिल्में मसलन मद्रास कैफे, लंच बॉक्स, ‘फंड्री’, सिद्धार्थ, अनवर का अजब किस्सा को आर्ट फिल्म नहीं कहा जा सकता। ये फिल्में रियलिटी के करीब होते हुए भी आर्ट फिल्में नहीं हैं। खास बात यह है कि समानांतर सिनेमा और आर्ट फिल्में एक खास आयु वर्ग के लोगों द्वारा पसंद की जाती रही हैं। इस तरह की फिल्मों में युवाओं की दिलचस्पी कम रही है लेकिन आज का युवा वर्ग कामर्शियल सिनेमा के अलावा अन्य तरह की फिल्में भी देखना और समझना चाहता है। यथार्थ को लेकर चलने वालीं छोटी बजट की फिल्मों को आज का युवा वर्ग ज्यादा पसंद कर रहा है।

फिल्मकार कभी जिन मुद्दों को छूने से घबराते थे, आज उन पर फिल्में बन रही हैं। राजनीतिक मुद्दे पर आधारित फिल्म ‘मद्रास कैफे’ ने फिल्मकारों के लिए नया कैनवास उपलब्ध कराया है। डॉक्यूमेंट्री की अंदाज वाली इस फिल्म ने बॉलीवुड फिल्मों में एक नया द्वार खोला है। ‘मद्रास कैफे’ की सफलता यह बताती है कि संजीदगी से बनाई गई फिल्म चाहे वह डॉक्यूमेंट्री के कलेवर में ही क्यों न हो, दर्शक उसे पसंद करेंगे।

आज के फिल्मकारों ने जोखिम लेने का साहस भी दिखाया है। इस क्रम में नागराज मंजुले की फिल्म ‘फंड्री’ का उल्लेख जरूरी है। ‘फंड्री’ एक दलित किशोर लड़के की कहानी है जो जाति व्यवस्था के खिलाफ लड़ता है। फिल्म में दलित किशोर जाब्या अपने साथ पढ़ने वाली एक ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करता है। मंजुले ने अपनी इस फिल्म के जरिए जाति व्यवस्था के कुरूप चेहरे को बड़े ही तंज अंदाज में बेनकाब किया है। जबकि रिचि मेहता की फिल्म ‘सिद्धार्थ’ गांव से विस्थापित होकर शहर आए एक परिवार की त्रासदी बयां करती है। विस्थापन वर्तमान समय की एक बड़ी घटना है, जिसके दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहर गवाह हैं।

‘लंच बॉक्स’ और ‘अनवर का अजब किस्सा’ जैसी फिल्में इस नई जोनर को परिभाषित कर रही हैं। कहने का मतलब है कि आज के नए फिल्मकार बदलती पीढ़ी के स्वाद को पहचान रहे हैं। नई पीढ़ी ज्यादा तार्किक है और उसकी बौद्धिक खुराक बढ़ रही है। वह मसालेदार फिल्में देखना और वैचारिक मसलों पर चर्चा करना चाहती है। उसके लिए फिल्म अब केवल मनोरंजन का साधन नहीं है। फिल्मकार इस चीज को पहचानने लगे हैं।

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