कमजोर कड़ियों का एक बार फिर मोर्चा

कमजोर कड़ियों का एक बार फिर मोर्चाआलोक कुमार राव

राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के मुखिया लालू प्रसाद यादव की तीसरे मोर्चे के बारे में यह उक्ति काफी प्रचलित है कि तीसरा मोर्चा अपने गठन के तीसरे दिन (कार्यालय दिल्ली के किस रोड पर बने के विवाद पर) बिखर जाता है। लोकसभा चुनाव 2014 के लिए गैर-कांग्रेसी और गैर-बीजेपी 11 दल एकजुट हुए हैं। हालांकि, इस बार इन्होंने अपने इस गठबंधन को तीसरे मोर्चा का नाम नहीं दिया है। लेकिन पिछले दिनों दिल्ली में हुई अपनी बैठक में संकेत दिया कि चुनाव के बाद तीसरा मोर्चा उभर सकता है। अपने गठबंधन को तीसरा मोर्चे का नाम न देने के पीछे इन दलों में जनता के बीच इस मोर्चे पर कायम अविश्वास की आशंका हो सकती है। इसलिए, तीसरे मोर्चे को शक्ल देना फिलहाल इन्होंने टाल दिया है। चुनाव बाद ही तीसरे मोर्चे का असली चेहरा उभरकर सामने आ सकता है।

इन 11 क्षेत्रीय दलों में चार वामपंथी पार्टियां-मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (आरएसपी), फॉरवर्ड ब्लॉक के अलावा समाजवादी पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल, जनता दल (एस), असम गण परिषद और झारखंड विकास मोर्चा शामिल हैं। अभी इन दलों के पास 91 सांसद हैं लेकिन 2014 लोकसभा चुनावों के बाद यह संख्या बढ़ेगी या घटेगी, अभी इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन यह बात तो तय है कि सरकार बनाने में भाजपा और कांग्रेस बहुमत के आंकड़े से जितना दूर होंगे, उतनी ही इस गठबंधन की अहमियत ज्यादा होगी।

पिछले लोकसभा चुनावों यानी 2009 में क्षेत्रीय दलों के गठजोड़ के प्रयासों को परवान चढ़ाने की कोशिश की गई थी लेकिन इस चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन को मिली आशातीत सफलता ने तीसरे मोर्चे की अहमियत को फीका कर दिया। इस बार इन दलों का पूरा जोर गैर-भाजपा और गैर कांग्रेस वाटों को अपनी तरफ आकर्षित करने और आम आदमी के मुद्दों को जोर-शोर से उठाने पर है। दिल्ली में हुई बैठक के बाद इन दलों की ओर से जारी घोषणापत्र में कहा गया है कि हम विविधता और लिंग भेदभाव से इतर ऐसी शासन व्यवस्था देंगे जो मजबूत धर्मनिरपेक्षता के साथ सभी मजहबों और संप्रदायों के लिए समान व्यवहार रखेगी। संघीय ढांचे को मजबूत करते हुए राज्यों के हितों की रक्षा के लिए कारगर व्यवस्था बनाने का संकल्प भी दोहराया गया है। साथ ही पिछड़े प्रदेशों को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने की पहल करने का भी घोषणापत्र में वादा किया गया है। ध्यान देने वाली बात है कि माकपा ने इस बार गे समुदाय का समर्थन किया है।

देश को तीसरा विकल्प देने की कोशिश में लगे इन दलों का मानना है कि इनकी नीतियां और एजेंडे भाजपा और कांग्रेस दोनों से अलग हैं। वाम दलों और क्षेत्रीय पार्टियों का एक दर्जन से ज्यादा राज्यों में अच्छा-खासा प्रभाव है, इसे ध्यान में रखते हुए ये दल मान रहे हैं कि मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को यदि इन्होंने लुभा लिया तो केंद्र में सरकार बनाने या किंगमेकर की भूमिका में वे आ सकते हैं। गठबंधन में शामिल दलों का मानना है कि उनकी मुख्य लड़ाई भाजपा से है जिसे रोकने में कांग्रेस पार्टी सक्षम नहीं है। इसलिए ये दल भाजपा और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों पर जमकर निशाना साध रहे हैं।
सपा उत्तर प्रदेश, अन्नाद्रमुक तमिलनाडु, जनता दल-सेक्युलर कर्नाटक, और बीजू जनता दल उड़ीसा में मजबूत हैं तो वाम पार्टियां पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अपना दबदबा रखती हैं। इन दलों का लक्ष्य आम चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटें निकालने की है। कुछ और दलों को भी इस गठबंधन से जोड़ने की बात चल रही है। गठबंधन के विस्तार की संभावनाओं पर मुलायम सिंह ने कहा है कि ‘यह तो शुरुआत है। आने वाले दिनों में हमारे सहयोगियों की संख्या और बढ़ेगी।’

गौर करने वाली बात है कि इन 11 दलों में करीब-करीब सभी या तो कभी यूपीए का हिस्सा रहे हैं अथवा एनडीए का। इनमें बड़ी पार्टियों पर नजर डालें तो समाजवादी पार्टी अभी यूपीए-2 को बाहर से समर्थन दे रही है और उत्तर प्रदेश में मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति सपा के अनुकूल नहीं है, समझा जाता है कि इस बार के चुनाव में सपा को पहले से कम सीटें आएंगी, तो कभी तीसरे मोर्चे का नेतृत्व करने वाले वाम दलों की हालत दिनोंदिन कमजोर होती आई है। गठबंधन में शामिल जयललिता से ज्यादा उम्मीद की जा सकती है। समाचार चैनलों के सर्वेक्षणों में यह सामने आया है कि जयललिता तमिलनाडु में ज्यादातर सीटें जीत सकती हैं।

इन सबके बीच कांग्रेस के सिमटते जनाधार और तीसरे मोर्चे के स्वरूप में संभावित बदलाव की आशंकाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। गठबंधन में शामिल दलों का धर्म अवसर के हिसाब के बदलता रहा है। चुनाव के बाद नीतीश कुमार, मुलायम सिंह यादव और जयललिता किस पाले में गुलाटी मार जाएंगे यह कोई नहीं जानता। नरेंद्र मोदी के नाम पर एनडीए से अलग हुए नीतीश कुमार चुनाव बाद घर वापसी कर सकते हैं, जबकि जयललिता को दो नावों पर सवारी करने की आदत रही है। तो यूपी में मायावती को अलग-थलग रखने के लिए मुलायम कोई भी दांव मार सकते हैं।
First Published: Monday, March 31, 2014, 17:09
First Published: Monday, March 31, 2014, 17:09
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