अरविंद केजरीवाल : मसीहा या धोखा

अरविंद केजरीवाल : मसीहा या धोखा

अब वक्त आ गया है यह जानने का कि क्या वाकई अरविंद केजरीवाल आम आदमी का प्रतिरूप हैं? क्या वाकई अरविंद केजरीवाल भ्रष्टाचार मिटाकर आम आदमी की तकलीफ दूर करने की नीयत से राजनीति में आए थे? और अगर वाकई केजरीवाल का मकसद आम आदमी की तकलीफों को दूर करना था तो फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी से जन लोकपाल बिल की आड़ में पलायन क्यों? अरविंद केजरीवाल को क्या कहें- आम आदमी का मसीहा या आम आदमी से धोखा?

दिल्ली के सातवें मुख्यमंत्री के रूप में सात सप्ताह (49 दिन) की सरकार के मुखिया अरविंद केजरीवाल की कार्यप्रणाली का जो रूप देश के सामने परिलक्षित हुआ उससे तो अरविंद केजरीवाल का मतलब 'आम आदमी से धोखा' ही साबित हुआ। जिस आम आदमी की सहूलियत के लिए आम आदमी का मसीहा बनकर केजरीवाल दिल्ली की सत्ता पर काबिज हुए थे, जनता को मुसीबत का लबादा ओढ़ाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी से अलग होने का फैसला कर लिया। याद कीजिए, जिस सदाशयता से केजरीवाल ने पिछले साल दिसंबर महीने में कई दर्जन जनसभाएं कर जनता से पूछकर दिल्ली की कमान संभाली थी, कुर्सी छोड़ने के लिए उसी सदाशयता का परिचय केजरीवाल ने क्यों नहीं दिया। कई दर्जन जनसभाएं आयोजित कर जनता से पूछकर सत्ता छोड़ने का फैसला क्यों नहीं लिया। इसे ही कहते हैं आम आदमी से धोखा, इसे कहते हैं सियासी शहादत। सियासी शहादत बोले तो आम आदमी पार्टी की राजनीतिक गोटी को चमकाने का प्रयास क्यों कि असल मकसद तो लोकसभा चुनाव में टांग अड़ाना है जिसका नगाड़ा बज चुका है।

दरअसल दिल्ली विधानसभा चुनाव के सियासी घमासान में आम आदमी की भावनाओं को जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने अपने वायदों से कैश किया उसे सत्ता में आने के बाद पूरा करना केजरीवाल के लिए आसमान से तारे तोड़कर लाने जैसा हो गया था। ऐसे में उनके सामने दो ही विकल्प थे- सड़क पर उतरने के लिए विधानसभा में 'सियासी शहादत' दें या फिर सरकार में बने रहकर जनता से किए गए अपने वादे को पूरा न करने का जोखिम लें। स्वभाविक था, केजरीवाल ने पहला विकल्प चुना। वह दोबारा जनता में जाने के लिए किसी ऐसे मुद्दे की तलाश में थे, जिससे यह माना जाए कि वह 'शहीद' हो गए हैं और अरविंद केजरीवाल की दृष्टि में जन लोकपाल से बड़ा कोई और मुद्दा नहीं था। इसीलिए वह इसी मुद्दे को आगे लेकर आ गए, ताकि दोबारा जनता के बीच जाकर यह कह सकें कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ने मिलकर उनकी सरकार नहीं चलने दी।

ऐसा नहीं था कि जन लोकपाल बिल को भाजपा और कांग्रेस का समर्थन हासिल नहीं था। दरअसल दोनों ही पार्टियां इस बिल को संवैधानिक तरीके से सदन में लाने की बात कर रही थी जो आम आदमी पार्टी की सरकार को मंजूर नहीं था। अरविंद केजरीवाल इस विधेयक को केंद्र के पास मंजूरी के लिए भेज सकते थे और अगर इसे रोका जाता तो बाद में केजरीवाल कह सकते थे कि मैंने तो अपना काम कर दिया, केंद्र ही नहीं चाहता कि दिल्ली में जन लोकपाल बिल पास हो। मगर, वह इसी मुद्दे पर टकराव कर बैठे। केजरीवाल को उम्मीद थी कि इससे जनता में उनके लिए सहानुभूति पैदा होगी और वह 'शहीद' जैसी स्थिति में आ जाएंगे। इसीलिए सिर्फ 49 दिन में ही अपनी सरकार की शहादत को मंजूर कर लिया।

28 दिसंबर 2013 को आम आदमी पार्टी की सरकार का गठन हुआ था। तब से लेकर 14 फरवरी 2014 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने तक सरकार का कार्यकाल विवादों से भरा रहा। विवादों का चोला इसलिए पहना ताकि आम आदमी का ध्यान बंटा रहे और सरकार पर यह तोहमत न लगे के आम आदमी की जिन बुनियादी मुश्किलों को दूर करने के लिए जनादेश मिला था, अरविंद केजरीवाल उससे भटक गए हैं। जनता दरबार फ्लॉप रहा। सोमनाथ भारती प्रकरण पर सरकार बैकफुट पर रही। उल्टे सोमनाथ के समर्थन और दिल्ली पुलिस के खिलाफ दिल्ली सरकार का पूरा कैबिनेट रेल भवन के सामने धरने पर बैठ गया। जिस आम आदमी को वाकई बिजली और पानी की तकलीफ झेल रहा था, सरकार की बिजली और पानी को लेकर की गई घोषणाओं का कोई फायदा नहीं मिला। बकाया बिजली बिल में 50 फीसदी की माफी का फायदा भी सिर्फ आम आदमी पार्टी के सत्याग्रही को ही मिला, वास्तविक आम आदमी को नहीं।

लोकसभा चुनाव का सियासी घमासान शुरू हो चुका है। इसके साथ ही दिल्ली में आने वाले दिनों में बिजली और पानी को लेकर आम आदमी की मुश्किलों का दौर भी शुरू होने वाला था। आम आदमी पार्टी के लिए दोनों ही परिस्थितियां राष्ट्रीय चुनाव के सियासी घमासान में आप की बाजीगरी दिखाना और दिल्ली की आम आदमी को किए वायदों से पीछा छुड़ाने के लिए जरूरी था किसी तरह से सत्ता के कुचक्र में फंसी आम आदमी पार्टी को बाहर निकालना। बहाना बनाया जन लोकपाल विधेयक को असंवैधानिक तरीके से विधानसभा में पेश करने का। अरविंद केजरीवाल के उस बयान पर गौर कीजिए जब उन्होंने कहा था कि जन लोकपाल के लिए हम किसी भी हद तक जाएंगे। सौ बार मुख्यमंत्री की कुर्सी को कुर्बान करने को तैयार हैं। जनलोकपाल बिल और स्वराज बिल पर सरकार का उपराज्यपाल से टकराव हुआ। उपराज्यपाल ने पत्र लिखकर विधान सभा स्पीकर से अपना पक्ष साफ कर दिया कि मेरी अनुमति के बिना जन लोकपाल बिल सदन में पेश नहीं किया जा सकता है। बावजूद इसके दिल्ली कैबिनेट ने जन लोकपाल बिल को पास करने का प्रयास किया, लेकिन जब इसपर वोटिंग कराई गई तो बहुमत सरकार के खिलाफ गया और केजरीवाल को दिल्ली की गद्दी से पलायन का मौका मिल दिया।

बहरहाल, अरविंद केजरीवाल के दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद कहीं न कहीं वो आम आदमी ठगा सा महसूस कर रहा है जिसने आम आदमी पार्टी से आस लगा रखी थी कि अब उसे उसके हिस्से की बिजली मिलेगी, पीने का पानी मिलेगा और रिश्वतखोरी का सामना नहीं करना पड़ेगा। निश्चित रूप से सही मायने में देश का जो आम आदमी है उसे अरविंद केजरीवाल में एक उम्मीद की किरण दिखी थी, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने इन तमाम आम आदमी की भावनाओं के साथ ज्यादती की है, उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। बीच मंझधार में दिल्ली के आम आदमी को छोड़कर आम आदमी पार्टी की सियासी चमक को बढ़ाने और प्रधानमंत्री का ख्वाब देखने वाले अरविंद केजरीवाल का यही असली सच है कि वह आम आदमी को सीढ़ी बनाकर सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर बैठना चाहते हैं ना कि भ्रष्टाचार मुक्त भारत के निर्माण की।

(The views expressed by the author are personal)

comments powered by Disqus