कांग्रेस को ले डूबा सोनिया का पुत्रमोह

कांग्रेस को ले डूबा सोनिया का पुत्रमोह

आम चुनाव-2014 में कांग्रेस क्यों हारी? यह सवाल हर किसी के जेहन में कौंध रही है। वजहें कई हैं, लेकिन कई वजहों में अगर कोई एक सबसे बड़ी वजह की बात करें तो वह है कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनियां गांधी का पुत्रमोह। जी हां! यहां बात कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की हो रही है।

राहुल गांधी के खिलाफ आवाजें पार्टी के अंदर से भी उठ रही हैं। चाहे वो मिलिंद देवड़ा का इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में राहुल के सलाहकारों के लेकर की गई बात हो, केरल के पूर्व मंत्री टीएच मुस्तफा की कड़वी सच्चाई वाला बयान जिसमें उन्होंने कांग्रेस की हार के लिए राहुल गांधी के 'जोकर' व्यवहार को जिम्मेदार ठहराया या फिर राजस्थान के विधायक भंवर लाल शर्मा का वह बयान जिसमें उन्होंने कहा है कि राहुल गांधी को आगे लाने की बात करने वाले नेता चापलूस हैं। कांग्रेस पार्टी में राहुल के अलावा अन्य वरिष्ठ नेता हैं, उन्हें क्यों नहीं आगे लाया जाता है।

ये कुछ ऐसी आवाजें हैं जो इस बात को पुष्ट करती हैं कि कांग्रेस की हार की सबसे बड़ी वजह सोनिया गांधी का पुत्रमोह है। लेकिन इस बात में दो राय नहीं कि इतनी बुरी हार की कोई एक वजह नहीं हो सकती। यहां हार की उन तमाम वजहों को तलाशना जरूरी होगा क्यों कि कांग्रेस को संसद में विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए जरूरी सीटें न मिलना भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए अच्छा संकेत नहीं है।

हार की समीक्षा बैठक में मनमोहन सिंह ने भ्रष्टाचार और महंगाई को वोटरों के गुस्‍से की वजह बताते हुए नैतिक जिम्मेदारी कबूली। वहीं, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस्तीफे की पेशकश भी की, लेकिन कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया। कांग्रेस भले यह जानने के मूड में नहीं दिख रही कि उसकी हार की असल वजह क्‍या है, लेकिन राजनीतिक पंडित इसका जवाब तलाशने में लगे हुए हैं। सवाल उठना तो लाजिमी है कि आखिर वह कौन शख्‍स है, जिसकी नाकामयाबी की वजह से कांग्रेस को ये दिन देखने पड़े। पार्टी का मुख्य नेता होने के नाते जहां एक ओर इस हार का ठीकरा राहुल गांधी पर फोड़ा जा रहा है, वहीं कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना है कि हार की जिम्मेदारी पूरी पार्टी की है।

कांग्रेस नीत यूपीए सरकार अपने एक दशक के कार्यकाल में शासन के मोर्चे पर पूरी तरह विफल रही है। यूपीए 2 के कार्यकाल में महंगाई, घोटालों, विवादों, भ्रष्टाचार, पेट्रोल, डीजल व गैस के दामों में भारी बढ़ोत्तरी ने जनता के भीतर कांग्रेस के खिलाफ गुस्सा भर दिया था। यह सब चुनावी नतीजों के रूप में बाहर आया। कांग्रेस इन दस वर्षों के दौरान न सिर्फ महंगाई रोकने में नाकाम रही, बल्कि वो कालाबाजारी करने वालों और जमाखोरों पर अंकुश लगाने में भी पूरी तरह से विफल रही। आर्थिक मोर्चे पर यूपीए सरकार पॉलिसी पैरालिसिस की शिकार हो गई। सबको साधने की जुगत में कांग्रेस नीत यूपीए सरकार किसी भी वर्ग को खुश नहीं कर पाई।

कांग्रेस की बड़ी समस्या अंदरूनी गुटबाजी रही। इससे पार्टी लोकसभा चुनाव से पहले उबर नहीं पाई। सूत्रों की मानें तो बनारस लोकसभा सीट पर अजय राय को उतारा जाना भी स्थानीय स्तर पर कांग्रेस की गुटबाजी का ही नतीजा था। वहीं, राहुल गांधी को आंतरिक तौर पर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने को लेकर भी कांग्रेस दो धड़ों में बंटी थी। एक धड़ा चाहता था कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाए, जबकि दूसरा धड़ा इसके खिलाफ था। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को खुद स्वीकार करना पड़ा था कि पार्टी संगठन में ही गुटबाजी है। राहुल गांधी ने कार्यकर्ताओं को यह नसीहत भी दी थी कि वो इससे बचें।

इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में खूब मेहनत की थी, लेकिन उनकी मेहनत कोई कमाल दिखाने में विफल रही। बिहार, गुजरात, राजस्थान, छत्तीसगढ़, और मध्य प्रदेश में हुए विधानसभा चुनावों में भी राहुल की मेहनत बेकार गई। कांग्रेस इन राज्यों में वैसा कमाल नहीं दिखा पाई, जैसी उम्मीद की गई थी। हाल ही में हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों की हार ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल पूरी तरह से तोड़ दिया। कांग्रेस ने सबसे बड़ी गलती यह की कि उसने इन चुनावों की हार से सबक लेने की कोशिश नहीं की। इन राज्यों में कांग्रेस की हार किन वजहों से हुई, उसका आत्ममंथन करने में पार्टी पूरी तरह से विफल रही। इसी वजह से लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस को ऐसी बुरी हार का सामना करना पड़ा।

कांग्रेस ने सबसे बड़ी गलती यह रही कि वो समय रहते युवाओं को खुद से जोड़ने में सफल नहीं रहे। कांग्रेस ने 'कट्टर सोच नहीं युवा जोश' की बात तो कही, लेकिन यह युवा जोश वोट में नहीं बदल पाई। एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस चुनाव में भाजपा को 39 फीसदी युवाओं ने वोट दिया, जबकि कांग्रेस पर 19 फीसदी युवाओं ने ही भरोसा जताया। चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, इस बार देश के 81.45 करोड़ मतदाताओं में 2.31 करोड़ युवा की आयु 18-19 वर्ष के बीच थी जो कुल मतदाताओं का 2.8 फीसदी है। इस वर्ग को रिझाने में कांग्रेस और भाजपा ने अपने अपने दांव खेले, मगर कांग्रेस पिछड़ गई और भाजपा बाजी मार ले गई।

चुनाव के दौरान जुबानी हमलों से सरगर्मी बढ़ती है। इस दौरान जो नेता तीखे जुबानी हमले और पलटवार करने में कामयाब होता है, वही चुनावी मैदान में बाजी मारता है। भाजपा के नरेंद्र मोदी के मुकाबले कांग्रेस इस पिच पर भी लड़खड़ाती नजर आई। नरेंद्र मोदी के जुबानी हमलों का ढाल इस बार कांग्रेस के पास नहीं दिखा। मोदी ने 'शहजादे' से लेकर 'मां-बेटे की सरकार' और 'दामादजी' जैसे जुमलों का इस्तेमाल कर कांग्रेस को परेशान कर दिया, लेकिन कांग्रेस को मोदी के इन हमलों की कोई काट नहीं सूझी। पूरे चुनाव में राहुल यह कहते सुने गए- 'मोदी की टीम में अडानी इन-आडवाणी आउट'। राहुल के इस जुमले का नकारात्मक असर पड़ा।

कांग्रेस पार्टी की सबसे बुरी स्थिति यह थी कि उसके पास कोई ऐसा सशक्त नेता नहीं था, जिसे आगे कर वह जनता का भरपूर समर्थन हासिल करने की कोशिश करती, वहीं भाजपा के पास नरेंद्र मोदी जैसा नेता था, जिसे जनता ने हाथों-हाथ लिया। हालांकि, राहुल गांधी कांग्रेस के अघोषित चेहरे थे, मगर कांग्रेस राहुल को औपचारिक रूप से सामने लाने में कतराती रही। राहुल के अलावा कांग्रेस के पास एक भी ऐसा नेता नहीं बचा था जिसके नाम पर कांग्रेस लोगों से वोट मांगती। राहुल की छवि चमकाने के लिए कांग्रेस के प्रयास नाकाफी साबित हुए। अगर कांग्रेस राहुल गांधी की छवि को बेहतर तरीके से चमका पाती तो चुनावी नतीजे कुछ और ही होते।

कांग्रेस की सबसे बड़ी गलती सोशल मीडिया की ताकत को कम करके आंकना भी रहा। मिस्र की क्रांति से लेकर भारत में हुए अन्ना आंदोलन तक लोग सोशल मीडिया की ताकत को बखूबी समझ चुके थे, मगर कांग्रेस ने इस मंच को ज्यादा अहमियत न देने की बड़ी भूल की। वहीं नरेंद्र मोदी ने 11 सोशल नेटवर्किंग साइट का बखूबी इस्तेमाल किया। यह सोशल मीडिया का ही प्रभाव था कि 'अबकी बार मोदी सरकार' जैसे नारे लोगों की जुबान पर चढ़ गए थे। पूरे चुनाव के दौरान मोदी सोशल मीडिया पर छाए हुए थे।

बहरहाल, कांग्रेस को उपरोक्त वजहों पर आत्ममंथन करना होगा। गलतियों को सुधारने के लिए कुछ प्राथमिकताएं तय करनी होंगी। मसलन, संगठन की मजबूती के लिए क्या कुछ किया जा सकता है इसपर सबसे पहले विचार करना होगा। राष्ट्रीय स्तर पर एक सशक्त नेता को तलाशना होगा जिसका संगठन और जनमानस पर बराबर का दखल हो। सोनिया गांधी को पुत्रमोह त्यागना होगा, भले ही इसके लिए प्रियंका या फिर गांधी परिवार से इतर किसी नेता को आगे बढ़ाना पड़े। क्योंकि कांग्रेस पार्टी को ऐसी हार से उबरना और कम से कम एक सशक्त विपक्ष की भूमिका में होना भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहद जरूरी है।

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