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नीतीश का बिखरता जादू

मोदी फोबिया में जी रहे बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार के लिए लोकसभा चुनाव-2014 का परिणाम बुरी खबर लेकर आने वाला है। चुनाव की सुगबुगाहट शुरू होने से लेकर चुनाव के दरम्यान तमाम ओपिनियन पोल में दावा किया गया है कि बिहार में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को बड़ी जीत हासिल होने वाली है, जबकि नीतीश कुमार का जादू बिखरने वाला है। इस साल मार्च में हुए एक सर्वे के मुताबिक बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से भाजपा-लोजपा गठबंधन को सबसे ज्यादा 21 से 29 सीटें मिल सकती हैं। वहीं कांग्रेस और आरजेडी को 7 से 13 सीटें, सत्ताधारी जेडीयू को महज 2 से 5 सीटें और अन्य को 0 से 3 सीटें मिलने का अनुमान है।

एनडीटीवी के ताजा सर्वे में भाजपा को 24 सीटें, भाजपा से अलग होने के बाद जेडीयू को सिर्फ चार सीटें दी गई हैं। लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी को इस बार फायदा होने वाला है। आरजेडी 14 सीटों पर जीत दर्ज कर सकती है। याद रहे पिछले लोकसभा चुनाव में जेडीयू को 20 सीटें मिली थीं। ऐसे में अब बड़ा सवाल यह है कि बिहार में लगातार दूसरी बार सरकार चला रहे नीतीश कुमार का जादू लोकसभा चुनाव में फीका क्यों पड़ रहा है? इसकी क्या वजह हो सकती है? इसके लिए जिम्मेदार संभावित कारक क्या-क्या हो सकते हैं?

भाजपा-जेडीयू गठबंधन का टूटना
इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि आज के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में जनता दल (यूनाइटेड) और भाजपा गठबंधन मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ते तो बिहार की 40 सीट में से कम से कम 35 सीटों पर भाजपा-जेडीयू को जीत मिल सकती थी। दोनों दलों में अलगाव के बाद अगर कोई नुकसान में रहा तो वह जेडीयू है जिसे मोदी फोबिया में जी रहे नीतीश का अहंकार ले डूब रहा है। नीतीश कुमार की जिद की राजनीति की वजह से जेडीयू ने जून, 2013 में नरेंद्र मोदी को चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाए जाने के बाद भाजपा के साथ अपना 17 साल पुराना नाता तोड़ लिया था। तब नीतीश कुमार ने मोदी का नाम लिए बिना उन पर तीखे हमले बोले थे। नीतीश ने कहा था, 'हम अपने बुनियादी उसूलों से समझौता नहीं कर सकते। हमें नतीजों की चिंता नहीं है।' ऐसा लगता है कि सिर्फ मोदी का विरोध करते हुए भाजपा से नाता तोड़ना बिहार के एक बड़े तबके को रास नहीं आया है। इन लोगों का कहना है कि बिहार की जनता ने दोनों पार्टियों के गठबंधन को बहुमत दिया था। ऐसे में बिना जनता को भरोसे में लिए जेडीयू को भाजपा से नाता नहीं तोड़ना चाहिए था। बिहार के अधिकांश मतदाताओं की इस सोच के साथ जेडीयू को गर्त में डुबो रहा है। शिवानंद तिवारी, साबिर अली, जयनारायण निषाद, पूरणमासी राम, मंगनी लाल मंडल, सुशील कुमार सिंह जैसे दिग्गज नेताओं को पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया। इसके पीछे असली वजह यह रही कि कहीं न कहीं ये नेता भाजपा-जेडीयू गठबंधन के पक्षधर थे और नीतीश कुमार की मोदी विरोधी नीति से इत्तफाक नहीं रखते थे।

मोदी विरोधी राजनीति
बिहार में करीब 17 प्रतिशत मुस्लिम वोटरों के बीच अपनी राजनीति को चमकाने के लिए विगत कई सालों से नरेंद्र मोदी पर गुजरात दंगों की वजह से नीतीश कुमार लगातार सवाल उठाते आ रहे हैं। नीतीश मोदी को सांप्रदायिक करार देते हैं। नरेंद्र मोदी गुजरात में सितंबर, 2011 में सद्भावना उपवास पर बैठे थे। उपवास के दौरान मोदी ने मंच पर एक मुस्लिम धर्मगुरु के हाथों टोपी पहनने से इनकार कर दिया था। नीतीश ने इस घटना पर भी तंज कसते हुए कहा था, 'यह देश आपसी प्रेम और सद्भाव से चलेगा। हर किसी को एक दूसरे की इज्जत करनी पड़ेगी। इसमें कभी टोपी भी पहननी पड़ेगी और कभी टीका भी लगाना पड़ेगा।' नीतीश के आलोचकों का कहना है कि खुद को मोदी से बड़ा नेता दिखाने की महत्वाकांक्षा और बिहार में 17 फीसदी मुसलमानों के वोट के लिए बिहार के मुख्यमंत्री मोदी की आलोचना कर रहे हैं। उनका तर्क है कि अयोध्या में विवादित ढांचे का विध्वंस 6 मई 1992 में हुआ था और गुजरात में दंगा 2002 में हुआ था। लेकिन नीतीश 2002 के दंगों के बाद करीब दो साल तक केंद्र में एनडीए की सरकार में मंत्री रहे। यही नहीं, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन चलाने वाले आडवाणी की तारीफ करते हुए नीतीश आज भी नहीं थकते हैं। इसी आंदोलन के नतीजे के तौर पर अयोध्या के विवादित ढांचे के विध्वंस को देखा जाता है। 2002 के दंगों के बाद गुजरात में एक कार्यक्रम में नीतीश कुमार ने मोदी की तारीफ भी की थी।

लालू का मुस्लिम-यादव समीकरण
भाजपा-जेडीयू गठबंधन की शानदार जीत के बाद बिहार की राजनीति में लालू का वर्चस्व लगातार कमजोर होने लगा था। मुस्लिम मतदाताओं ने किसी खास पार्टी को वोट न देकर अलग-अलग दलों में मुस्लिम प्रत्याशियों को अपना समर्थन देने लगे। ऐसे में कुल 17 प्रतिशत मुस्लिम वोटर जो किसी भी पार्टी की हार-जीत का फैसला करते थे, चारों तरफ बंटने लगे। लोकसभा चुनाव-2014 का बिगुल जैसे ही भाजपा ने नरेंद्र मोदी को मैदान में उतार कर फूंका, नीतीश कुमार को लगा कि मोदी की खिलाफत कर वह बिहार की कुल 17 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में कर लेंगे। लेकिन इस बीच राजद प्रमुख लालू यादव ने मुस्लिम वोटरों में नीतीश कुमार की अवसरवादी राजनीति की पोल खोल चुके थे। राजनीति ने अचानक करवट ली और चारा घोटाले में जेल में बद लालू को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी। हालांकि लालू के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध जारी है, लेकिन जेल से बाहर निकलकर राजद का कांग्रेस से गठबंधन कराने और फिर पुराना चुनावी समीकरण मुस्लिम-यादव (माई) के सियासी समीकरण को जगा दिया। नीतीश कुमार लालू की राजनीति और मोदी के प्रति सहानुभूति लहर में पिछड़ गए और जिस मुस्लिम वोट के लिए उन्होंने भाजपा से बैर मोल लिया वो मुस्लिम वोट भी जेडीयू से छिटक गया। यही वजह है कि लालू की पार्टी राजद नीतीश की जेडीयू से कहीं आगे निकल रही है और उम्मीद जताई जा रही है कि इस चुनाव में जेडीयू तीसरे नंबर की पार्टी रह जाएगी।

गठबंधन के दौर में अकेले नीतीश
जून, 2013 में जब नीतीश ने भाजपा से नाता तोड़ा तो उसके पीछे कांग्रेस की तरफ से मिल रहे कथित इशारे को एक अहम वजह मानी गई थी। नीतीश कुमार यह कहते रहे हैं कि जो भी पार्टी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देगी, जेडीयू उसके साथ होगी। जून में जेडीयू का भाजपा से रिश्ता टूटने के बाद केंद्र सरकार ने बिहार को स्पेशल पैकेज देने के लिए कुछ कोशिशों भी शुरू की थीं। कांग्रेस के कुछ नेता उन दिनों जेडीयू के साथ गठबंधन की बात उठा रहे थे। लेकिन कांग्रेस आलाकमान की तरफ से कभी भी कोई ठोस प्रस्ताव जेडीयू के बड़े नेताओं के सामने पेश नहीं किया गया। जेडीयू सूत्रों का कहना है कि नीतीश कांग्रेस की तरफ से पहल का इंतजार करते ही रह गए। इस बीच, भाजपा ने रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया। वहीं, लालू की राजद और कांग्रेस के बीच भी समझौता हो गया। इस तरह से बिहार में जेडीयू अकेली रह गई। यह किसी से छिपा नहीं है कि बिहार में नीतीश की सरकार को जनादेश भाजपा-जेडीयू गठबंधन को मिला था ना कि अकेले जेडीयू को। नीतीश इस सियासत को समझने में भूल कर गए और लगातार पिछड़ते चले गए।

बहरहाल, लोकसभा चुनाव-2014 का चुनाव परिणाम नीतीश कुमार के अनुकूल नहीं होने जा रहा है। बिहार के गांव-गांव में नमो-नमो की गूंज सुनाई दे रही है। लोग यह भी कहते सुने जा रहे हैं कि विधान सभा चुनाव में नीतीश को भले वोट दे देंगे, लेकिन इस चुनाव में तो देश के लिए प्रधानमंत्री चुनना है सो अबकी बार तो भाजपा को ही वोट देना है। लेकिन बात इतने तक ही सिमटकर नहीं रहने वाली है। जानकारों का मानना है कि अगर दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी तो बिहार की नीतीश सरकार में जबरदस्त भूचाल आएगा और जेडीयू के कुछ विधायक पार्टी में बगावत कर सरकार को गिरा सकते हैं। ये बागी विधायक साल 2015 में विधानसभा चुनाव का इंतजार नहीं करेंगे। नीतीश कुमार को अब इस खतरे से निपटने की तरफ ध्यान देना होगा।

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