देख तमाशा दिल्ली का| Arvind Kejriwal

देख तमाशा दिल्ली का

तमाशा, तमाशाई और तमाशबीन सभी बढ़ते जा रहे हैं। आजकल ना जाने, क्या-क्या तमाशा नहीं बन जाता। भारतीय लोकतंत्र भी इससे अछूता नहीं। जी हां! देश की राजधानी दिल्ली का हाल भी आजकल कुछ ऐसा ही है। साल-2013 का आखिरी महीना। कोहरे और कंपकंपाती ठंड को चीरती राजनीतिक गरमाहट ने सर्दियों का तो मानो क्रेज ही खत्म कर दिया है।

4 दिसंबर को याद कीजिए। लोगों ने बड़े ही उत्साह से दिल्ली विधानसभा चुनाव के तहत नई सरकार को चुनने के लिए अपना जनादेश दिया। चार दिन बाद जनादेश ईवीएम मशीन से बाहर क्या निकला, शुरू हो गया तमाशा। इस तमाशे में मुख्य रूप से तीन किरदार उभरकर सामने आए- आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल, भारतीय जनता पार्टी के डॉ. हर्षवर्धन और दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी। तीसरे किरदार के रूप में पार्टी का नाम इसलिए क्योंकि इसके नेता और दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को 'आप' नेता अरविंद केजरीवाल ने 25000 से अधिक मतों से हराकर उन्हें इस तमाशे से ही बाहर कर दिया और पार्टी आठ सीटों में सिमट कर रह गई। इसलिए तीसरे किरदार के रूप में दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी का नाम शामिल किया गया है। लेकिन ध्यान रहे आठ सीटों के साथ कांग्रेस ने शतरंज की जो बिसात बिछाई है, उसने तमाशे का रोमांच जरूर बढ़ा दिया है दिल्ली की सर्दी में।

दिल्ली विधानसभा चुनाव के जो परिणाम सामने आए उसके मुताबिक जनादेश किसी एक पार्टी के पक्ष में नहीं जाता है। मतलब यह कि एक बार फिर से चुनाव का जनादेश। राजनीति की नैतिकता तो कम से कम यही संदेश दे रही है। आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो भारतीय जनता पार्टी 31 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरकर सामने आई। नवोदित आम आदमी पार्टी 28 सीटें जीतकर दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी और सिंगल डिजीट में आठ सीटों के साथ कांग्रेस पार्टी तीसरे स्थान पर। शिरोमणि अकाली दल, जनता दल यूनाइटेड और निर्दलीय को एक-एक सीटें हासिल हुईं। फिर शुरू हई सरकार बनाने की कवायद। सरकार बनाने के दौड़ से कांग्रेस पहले ही बाहर निकल चुकी थी और फिर बचे दो दल- भाजपा और आम आदमी पार्टी।

भाजपा और आप के राजनीतिक मिजाज पर गौर करें तो चूंकि भाजपा को सरकार बनाने के लिए जादुई अंक से तीन सीटें कम थीं, लिहाजा सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते सरकार बनाने का न्योता मिलने के बावजूद भाजपा विधायक दल के नेता डॉ. हर्षवर्धन ने सरकार बनाने से मना कर दिया। क्योंकि विचारधारा की जमीन पर कांग्रेस और भाजपा का एक मंच पर आना संभव नहीं था। फिर बारी आई आम आदमी पार्टी की। आप नेता अरविंद केजरीवाल पहले ही कह चुके थे कि आम आदमी पार्टी सरकार बनाने के लिए न तो किसी से समर्थन लेगी और न ही किसी को समर्थन देगी। बावजूद इसके कांग्रेस ने केजरीवाल के उपराज्यपाल के पास पहुंचने से पहले अपने आठ विधायकों के समर्थन की चिट्ठी उपराज्यपाल के पास भेज दिया ताकि आम आदमी पार्टी सरकार बना सके। केजरीवाल ने सरकार बनाने के लिए 10 दिन का वक्त मांगा जिसकी मियाद सोमवार को पूरी हो रही है।

इस दौरान आप ने 18 मुद्दों पर भाजपा और कांग्रेस से उनकी राय मांगी और फिर दोनों दलों की राय को जनता से भी जनता से भी एसएमएस और परचों के जरिए राय मांगी कि आम आदमी पार्टी को कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनानी चाहिए या नहीं। जैसी की उम्मीद थी, जनमत आम आदमी पार्टी के सरकार बनाने के पक्ष में उतरती दिख रही है। दरअसल जनादेश भले ही किसी एक पार्टी के पक्ष में नहीं है, फिर भी वह आम आदमी पार्टी की सरकार दिल्ली में देखना चाहती है। जनता तीसरे विकल्प के तौर में आप को दिल्ली में आजमाना चाहती है ताकि आगामी लोकसभा चुनाव में राजनीति की नई दिशा तय हो सके। तमाशा खत्म होने की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। सोमवार को अरविंद केजरीवाल को यह तय करना ही होगा कि वह सरकार बनाएं या फिर नए सिरे से चुनाव मैदान में जाएं।

इसमें कोई दो राय नहीं कि आम आदमी पार्टी और टीम केजरीवाल ने लोकतंत्र की परिभाषा (जिसकी दशा और दिशा बिगड़ रही थी) को फिर से स्थापित किया है। दिल्ली की जनता ने स्थापित राजनीति के खिलाफ जो मत दिया है उससे एक चीज तो तय मानिए, सड़क पर बेशक विधानसभा न बैठती हो, लेकिन दिल्ली की जनता ने अब विधानसभा में सड़क के आम आदमी को बैठने का जनमत जरूर दिया है। उसने माना कि सड़क पर चलने वाला ही समाज की बुनियादी जरूरतों और जन कल्याणकारी राजनीति को समझ सकता है। तय मानिए, लोकसेवा ही लोकतंत्र का राजनीतिक धर्म है। राजनीति उतनी बुरी नहीं होती, जितना स्वयंभू राजनेता उसे बना देते हैं। जो स्थापित सांसद चाहे वो सत्तारुढ़ कांग्रेस या फिर विपक्ष में बैठी भाजपा या अन्य दलों के हों, जंतर-मंतर पर जमा हुई आम आदमी को संसद की दंभी दुहाई देते थे, आज कम से कम दिल्ली की जनता ने उन्हें जरूर सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया है।

बहरहाल, हम ये तो तय नहीं कर सकते कि दिल्ली में सरकार बनी तो और नहीं बनी यानी दोबारा से चुनाव हुआ तो दोनों ही परिस्थितियों में किसे फायदा होगा और किसे नुकसान। ये जनादेश का मामला है। जनादेश को लेकर कोई भी अपने स्तर पर अंतिम फैसला या भविष्यवाणी नहीं कर सकता, क्रिकेट के खेल की तरह। वरना किसे अनुमान था कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली में 28 सीटों पर जीत मिलेगी। लेकिन जनादेश ऐसा आया। सब अपने-अपने तरीके से अंधेरे में तीर मार रहे थे। लेकिन, चलते-चलते मेरी राय यही है कि अगर आम आदमी पार्टी को सरकार बनाने का मौका मिला है तो अरविंद केजरीवाल को सरकार बनानी चाहिए। समर्थन कांग्रेस दे रही है या भाजपा इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आखिर जिस व्यवस्था परिवर्तन का वादा कर आम आदमी पार्टी चुनावी राजनीति के मैदान में उतरी है, उसे पूरा तो तभी किया जा सकेगा जब आप की सरकार बने। और आप नेता अरविंद केजरीवाल तो इस मामले में किस्मत के धनी निकले कि जनादेश भी मिला, कांग्रेस का समर्थन भी और उसके ऊपर सरकार गठन के लिए जनमत सर्वेक्षण का नतीजा भी। तो फिर देर कैसी? तमाशा कुछ मिनटों का ही अच्छा होता है, घंटों और दिनों में परिवर्तित हो जाए तो फिर नुकसान ही नुकसान। लोकतंत्र और राजनीति की सेहत के लिए तो यह कतई ठीक नहीं।

(The views expressed by the author are personal)

comments powered by Disqus