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अंबेडकर के सपनों को साकार करेंगे मोदी?

तमाम सर्वे बताते हैं कि देश की सत्ता बदलने वाली है। जनता सत्ता की चाबी नरेंद्र मोदी के हाथों में सौंपना चाहती है। इस लोकसभा चुनाव में मोदी के बूते भाजपा को जबर्दस्त सफलता की उम्मीद है। इस उम्मीद को पूरा करने के लिए समाज के सभी तबकों का भरपूर समर्थन भी मिल रहा है। अगड़ी जातियों, पिछड़ा वर्ग के अलावा दलितों ने भी मोदी में भरोसा जताया है। अब सवाल यह उठता है कि अगर मोदी देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो क्या आजादी के 67 साल बाद भी हाशिए पर पड़े 20 करोड़ दलितों का उत्थान हो पाएगा? यानी मोदी बाबा साहेब डॉ. भीम राव अंबेडकर के सपनों को साकार कर पाएंगे?

अंबेडकर की 123वीं जयंती के अवसर पर उनके सिद्धांतों और विचारों का जिक्र करना लाजिमी है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के समूल नाश को माना था। उनका कहना था कि तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार। उन्होंने कहा था कि जातिवादी समाज के समूल नाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं, लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते। अंबेडकर समग्र समाज की उन्नति चाहते थे। उन्होंने शिक्षा के महत्व को समझा तथा उसको बढ़ावा दिया।

आजादी के बाद देश में करीब 60 सालों तक कांग्रेस का शासन रहा है, परन्तु दलित हमेशा उपेक्षा की शिकार रही है। दलितों का बड़ा तबका आज भी आर्थिक और राजनैतिक रूप से समृद्ध नहीं हो पाया है। हालांकि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में 15 प्रतिशत सीटें दलितों के लिए आरक्षित की गई हैं। इन आरक्षित सीटों की बदौलत दलित नेता राजनीति के मुख्यधारा से जरूर जुड़े, लेकिन दलित समाज जाति प्रथा जैसे दंश से बाहर निकालने में असर्मथ रहे। दलितों के दिग्गज नेताओं में राम विलास पासवान, मीरा कुमार और मायावती ने राष्ट्रीय राजनीति में अहम छाप छोड़ी है। इतना ही नहीं ये नेता यदाकदा केंद्रीय सरकार का हिस्सा भी रहे हैं। लेकिन इन्होंने भी न तो आर्थिक रूप से और ना ही सामाजिक रूप से अपने समाज को ऊपर उठाने में कोई कारगर कदम उठाया, सिर्फ अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए दलितों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया। अंबेडकर की कसमें खाने वाले ये नेता सत्ता से चिपके रहकर सिर्फ दलितों को ठगने का काम किया है।

हम 21वीं सदी में जी रहे हैं, लेकिन आज भी छुआछूत की प्रथा जारी है। दक्षिण भारत के कई मंदिरों में दलितों को प्रवेश नहीं करने दिया जाता है, दलित समुदाय के दुल्हे को घोड़ी पर नहीं चढ़ने दिया जाता, होटलों में दलितों के लिए अलग से बर्तन रखे जाते हैं। डॉ. अम्बेडकर ने 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा की बैठक में कहा था कि सामाजिक और आर्थिक गैर-बराबरी भारत के लिए चुनौती है। दलितों और पिछड़ों की जिंदगी में जो भी बदलाव आए हैं, वो सिर्फ आरक्षण की वजह से हैं। आरक्षण के चलते दलितों को सरकारी नौकरियों और राजनीति में जगह देनी पड़ी है। देश में जिस रफ्तार से कई क्षेत्रों का निजीकरण हुआ है, उससे सरकारी नौकरियां घटकर नगण्य रह गई हैं। प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण नहीं है। क्या ऐसे में दलितों और शोषितों के उत्थान की कल्पना की जा सकती है? शिक्षा का भी निजीकरण कर दिया गया है। प्राइमरी स्कूल से लेकर उच्च शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में निजीकरण का बोलबाला है जिससे दलित तबका अर्थ के अभाव में शिक्षा से भी वंचित रह जाता है। फिर भी चुनावों में उनके मुद्दे सियासी चर्चा और चुनावी वादों में ज्यादा नजर नहीं आ रहे हैं।

अब तक ठगा सा रहने वाला दलित तबका इस बार नरेंद्र मोदी से आस लगाए बैठा है। पिछड़ी जाति से आने वाले मोदी अगर देश की बागडोर संभालते हैं तो उनके ऊपर सबसे बड़ी जिम्मेदारी शोषितों और दलितों के कल्याण के लिए कारगर कदम उठाने की होगी। भारत तभी विकसित देश कहलाने का हक रखेगा, जब तक निचला तबका आजादी का स्वाद न चख ले। निश्चित रूप से इस चुनावी साल का यह बड़ा सवाल है, ‘मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी अगर देश की सत्ता में आती है तो भाजपा के घोषणा पत्र ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के तहत नरेंद्र मोदी सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक और आर्थिक रूप से पिछड़े दलितों को समानता का अधिकार दिला पाएंगे और क्या ऐसा कर के नरेंद्र मोदी दलितों के मसीहा बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर के सपनों को साकार कर पाएंगे?’

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