सहजता, सादगी का बेमिसाल मिश्रण...। सौंदर्य की अपठित रुपरेखा और भावनाओं की उन लकीरों में ऐसा सम्मोहन जो टकटकी बांधकर देखने और सुनने को विवश करता था।

सौंदर्य और अभिनय की 'आंधी' थी सुचित्रा

सहजता, सादगी का बेमिसाल मिश्रण...। सौंदर्य की अपठित रुपरेखा और भावनाओं की उन लकीरों में ऐसा सम्मोहन जो टकटकी बांधकर देखने और सुनने को विवश करता था। चेहरे के उमड़ते भावों में अद्भुत सौंदर्य की अटखेलियां करती वह लहरें भी थी जो यह बताती थी कि अदाकारी और खूबसूरती का मिश्रण इसी को कहते हैं। कुदरत की इस नक्काशी की शायद सबसे बड़ी खूबी यही थी कि यहां सौंदर्य के चाशनी में अभिनय डुबोया और डुबा हुआ था जो हर बार कुछ नया करता और अपनी नए भावों को अंकुरित कर अभिनय की अवरिल धारा प्रवाहित करता।

सुचित्रा ने बॉलीवुड और बंगाली फिल्मों में 'चित्रपठ' की ऐसी परिभाषा लिखी जो उन्हें कई मायनों में शीर्ष पर शुमार करता है। बिमल रॉय की मशहूर फिल्म 'देवदास' में पारो के रुप में उन्होंने अदाकारी की ऐसी परिभाषा लिखी जिसे चुनौती देने के लिए किसी आंधी की जरूरत थी। 1975 की सबसे कामयाब फिल्मों में शुमार आंधी की इस 'आंधी' को भूलना मुश्किल है। याद कीजिए तेरे बिना जिंदगी से कोई ...गाने के दौरान वह सीन जब संजीव कुमार उनसे यह कहते है कि यह चांद जो है ना दिन में नहीं सिर्फ रात में ही निकलता है। इस गाने और सीन में देखकर ऐसा लगता है कि आंधी की नायिका आरती की जिंदगी गमों के समंदर में फंसकर रह गई है। शायद यह गम उनके साथ जिंदगी में ताउम्र चस्पां हो गया।

आंधी फिल्म विवादित साबित हुई थी जिसके बारे में यह कहा जाता है कि वह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन पर बनी थी। क्योंकि कथित तौर पर सुचित्रा का किरदार तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलता-जुलता था। फिल्म पर प्रतिबंध लगा और इमरजेंसी हटने के बाद जब आंधी रिलीज हुई, जिसे उस वक्त हर वर्ग के दर्शकों का भरपूर समर्थन मिला। फिल्म 1975 के सुपर डुपर हिट फिल्मों में शुमार की जाती है। आंधी में सुचित्रा की अदाकारी आज भी याद की जाती है।

आंधी फिल्म का गीत तेरे बिना जिंदगी से कोई ...उनके जीवन को एक तरह से पूरा बयां करता है। पति दिबानाथ से पटरी नहीं बैठी। दिबानाथ अमेरिका चले गए और 1969 में एक दुर्घटना में उनकी असामयिक मौत हो गई। इसके बाद सुचित्रा ने कभी शादी का नहीं सोचा। खुद को तन्हाइयों के बीच कैद कर लिया। लगभग 35 साल से भी ज्यादा वक्त तक उन्होंने कोलकाता में बेलागंज सरकुलर रोड के चार अपार्टमेंट्स के एक फ्लैट में खुद को बंद रखा। वो अपने घर में ही ज़्यादातर वक़्त बिता रही थीं। उन्हें लंबे समय से सार्वजनिक तौर पर नहीं देखा गया। ऐसी खबरें आई थी कि साल 2005 में उन्होंने प्रतिष्ठित दादा साहब फाल्के पुरस्कार लेने से भी इनकार कर दिया था क्योंकि वो किसी को नज़र नहीं आना चाहती थीं। उनकी तुलना अक्सर हॉलीवुड की ग्रेटा गार्बो से की जाती थी जिन्होंने लोगों से मिलना जुलना छोड़ दिया था ।

अपनी सुंदरता और अदाकारी के सम्मोहन से सुचित्रा ने बंगला फिल्मों को बेहद रोमांटिक बनाया। अपने प्रिय नायक उत्तम कुमार के साथ उन्होंने बीस बरसों तक दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। रोमांटिक किरदार को निभाने में उनका कोई सानी नहीं था इसलिए सुचित्रा की ज्यादातर फिल्मों में उनके चेहरे के क्लोज-अप्स का ज्यादा इस्तेमाल किया है।

हिन्दी सिनेमा के दर्शकों के लिए सुचित्रा की पहचान सिर्फ सात फिल्मों से हैं। सबसे पहले बिमल राय की फिल्म देवदास (1955) में उन्होंने पार्वती (पारो) का रोल किया और फिल्म को यादगार बनाया। उनकी प्रसिद्धि का आलम यह था कि दुर्गा पूजा के दौरान देवी लक्ष्मी और सरस्वती की प्रतिमाओं के चेहरे सुचित्रा के चेहरे की तरह बनाए जाते थे ।

सुचित्रा ने अपने करियर की शुरूआत 1952 में बंगाली फिल्म ‘शेष कोथाय’ से की थी । उन्हें 1955 में बिमल राय की हिन्दी फिल्म ‘देवदास’ में अभिनय के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था । इस फिल्म में उन्होंने ‘पारो’ की भूमिका निभाई थी । इसमें उनके साथ दिलीप कुमार थे । साल 1978 में रिलीज हुई बांग्ला फिल्म 'प्रणय पाश' के बाद उन्होंने फिल्मों से संन्यास ले लिया। इसके बाद वो सार्वजनिक जीवन से दूर हो गई थीं। उसके बाद इन्होंने अपना पूरा जीवन अपने परिवार को दिया। आज उनकी दो पोतियां रिया और राइमा सेन फिल्म अभिनेत्री हैं।

सुचित्रा सेन के निधन के बाद उनकी बेमिसाल अदाकारी का इतिहास यूं तो सुनहले पन्ने पर दर्ज हो गया है। लेकिन उनके एकाकी जीवन में चले जाने के कारण और अनसुलझी गुत्थियां सवालों के घेरे में हमेशा बनी रहेंगीं।




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