Varanasi - City of Lord Shiva

शिव की नगरी में हर-हर गंगे

जानेमाने अमेरीकी लेखक मार्क ट्वेन ने लिखा है- बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से भी पुराना है, किंवदंतियों से भी प्राचीन है, और इन सबको इकटट्ठा कर दें तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है। यह देश के उन चुनिंदा शहरों में शुमार होता है जहां पौराणिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक विरासत कुदरत के अनमोल धरोहरों के बीच सदियों से पुष्पित-पल्लवित हो रहे हैं। काशी की प्राचीनतम होली बारात को यहां के हिंदू-मुस्लिम मिलकर निकालते हैं। गंगा-जमुनी तहजीब की यह एक बेमिसाल कड़ी है, जो आज भी बरकरार है। तभी दुनिया के सबसे प्राचीन शहर को उत्सवों का शहर कहते हैं जहां जन्म ही नहीं बल्कि मृत्यु भी एक उत्सव में शुमार होता है।

अपने किशोरावस्था के कुछ महीने मुझे इस शिव की नगरी में बिताने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। एक लंबा अरसा हो गया था। स्वामी विवेकानंद फिल्म में गायक येसुदास द्वारा गाया वो गीत- चलो मन जाए अपने घर...। ये व्याकुलता मन की थी या फिर मेरी इच्छा लेकिन इतना तय था कि मैं उस बनारस के 'रस' में एक बार फिर से डूबना चाह रहा था। गंगा की लहरों के साथ तैराकी की अठखेलिया करना चाह रहा था। मस्ती के उस रंग में खुद को रंगना चाह रहा था जहां का हर रंग होली की रंगोली का निर्माण करता नजर आता है। इसी मस्ती और अल्हड़पन से रूबरू होने की इच्छाओं के बीच मैं बनारस जा पहुंचा।

सबसे पहले मैं जा पहुंचा काशी विश्वनाथ मंदिर, जो देश के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। ऐसी पौराणिक मान्यता है कि काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिग किसी मनुष्य की पूजा, तपस्या से प्रकट नहीं हुआ, बल्कि यहां निराकार परमेश्वर ही शिव बनकर विश्वनाथ के रूप में साक्षात प्रकट हुए। मान्यता यह भी है कि जिस जगह भगवान शंकर का ज्योतिर्लिग स्थापित है वह जगह लोप नहीं होती और वह जस का तस बनी रहती है। कहा यह भी जाता है कि जो श्रद्धालु इस नगरी में आकर भगवान शिव का पूजन और दर्शन करता है उसको समस्त पापों से मुक्ति मिलती है। यह मंदिर ना सिर्फ भोले बल्कि साक्षात मोक्ष का प्रतीक है। भगवान शंकर ने कहा भी है कि काशी शरणागति की वह अविरल धारा है जिसमें व्यक्ति अपनी चिंताओं को चित (परास्त) करता है। त्रिगुणातीत होकर जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है।

काशी विश्वनाथ मंदिर में काफी भीड़ थी। लेकिन भोले शांत भाव में विराजमान जीवन की उस स्थिरता को इंगित कर रह थे जो दिल्ली जैसे भागती-दौड़ती जिंदगी के बीच हासिल कर पाना बेहद मुश्किल है। भोले का रूप बार-बार बदल रहा है। कोई श्रद्धालु उन्हें बेलपत्र के साथ जल से डुबोता है तो कोई शिवलिंग पर दूध की धारा प्रवाहित करता है। इस स्थान की यह भी मान्यता है कि यह सदैव बना रहेगा और अगर धरती पर प्रलय भी आता है तो इसकी रक्षा के लिए भगवान शंकर इस स्थान को अपने त्रिशूल पर धारण कर लेंगे और प्रलय के टल जाने पर काशी को इसके स्थान पर रख देंगे। तभी यह कहते हैं काशी भगवान शंकर के हृदय में है जो उनके त्रिशूल पर स्थित है यानी उसका वास है। हर-हर-महादेव- बम-बम भोले का जयकारा मंदिर के विशाल घंटे के सुर में सुर मिलाकर उनकी स्तुति करता नजर आता है। इसी परिसर में मन्नत के तहत कई लोग पूजा भी कराते हुए नजर आए। ऐसे में शंखनाद भी हो रहा था। फिर तो ऐसा लग रहा था जैसे शंख, घंटियां और जयकारों का साथ निर्गुण ब्रह्म के त्रिगुणातीत स्तुति का भान करा रहा हो। त्रिगुणातीत होना (सत-रज और तमोगुण से परे होना) इतना आसान तो नहीं लेकिन भक्ति की यह अविरल धारा में बहना अपने वास्तविक स्वरूप के बेहद करीब होने जैसा है।

काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिग के संबंध में भी कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार जब भगवान शंकर पार्वती जी से विवाह करने के बाद कैलाश पर्वत रहने लगे तब पार्वती जी इस बात से नाराज रहने लगीं। उन्होंने अपने मन की इच्छा भगवान शिव के सामने रख दी। अपनी प्रिया की यह बात सुनकर भगवान शिव कैलाश पर्वत को छोड़ कर देवी पार्वती के साथ काशी नगरी में आकर रहने लगे। इस तरह से काशी नगरी में आने के बाद भगवान शिव यहां ज्योतिर्लिग के रूप में स्थापित हो गए। तभी से काशी नगरी में विश्वनाथ ज्योतिर्लिग ही भगवान शिव का निवास स्थान बन गया।

गंगा नदी के तट पर बसे इस शहर के मिजाज में मस्ती और अल्हड़पन की झलक खूब देखने को मिलती है। अलसाई सुबह की छंटा का दीदार करने के लिए वाराणसी से बेहतर शायद ही कोई जगह हो। शाम ए अवध और सुबहे-बनारस का जिक्र इतिहास के पन्नों में भी मिलता है। यानी अगर अवध की शाम खूबसूरती की मिसाल है, तो बनारस की सुबह भी बेमिसाल है। यह बात किसी से छिपी नहीं कि गंगा की बहती धारा, उसका मधुर कल-कल स्वर, यहां स्थित मंदिरों में सुबह-शाम होने वाली आरती, शंख-घंटियों की ध्वनि श्रद्धालुओं को यहां बरबस ही खींच लाती है।

मेरे सामने सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि मेरे पास पूरा एक दिन भी नहीं बल्कि सिर्फ कुछ घंटों का वक्त ही था। दुर्भाग्य यह रहा कि मैं जा पाया भी तो सिर्फ एक दिन के लिए। बाबा विश्वनाथ के दर्शन में लंबी कतार थी लिहाजा लगभग दो घंटे का वक्त लग गया। तबतक सूरज अस्ताचल की तरफ बढ़ चला था। यह वह समय था जब गोधूलि बेला का आरंभ हो रहा था और कुछ समय बाद सूरज चांद को अपनी रोशनी देकर रातभर के लिए ओझल होने वाले थे। अब मुझे सामने बह रही गंगा स्नान के साथ गंगा आरती की भी अनुभूति करनी थी।

वाराणसी को घाटों का शहर भी कहा जाता है जो गंगा आरती के लिए प्रसिद्ध है। यूं तो यहां आरती कई घाटों पर होती है लेकिन अस्सी घाट पर रोजाना होनेवाली गंगा आरती का दृश्य अद्भुत होता है। गंगा आरती के दौरान एक बात तो सच में अद्भुत है कि जब मंत्रोच्चार के बीच यह आरती होती है तो उसकी प्रतिध्वनि आध्यात्म के एक ऐसे अध्याय का आरंभ करती है जब लगता है कि इसका अंत ना हो। सबकुछ अनवरत ऐसा ही चलता रहा। शाम ढलती है तो चांद की धुंधली परछाई गंगा की लहरों में दिखती है। कुहासा तो नहीं लेकिन कुहासे जैसी छंटा कुदरत और पर्यावरण की सार्थकता बयां करती है। इन बातों और गंगा की लहरों की बीच ऐसी स्थिति का वर्णन कर पाना बेहद मुश्किल है।

गंगा आरती के बीच पूजा के थालों पर रखी रूई की बत्तियां अंधकार को चीरकर उजाला फैला रही होती है। लगा जैसा दीवाली आ गई। लंबी दूरी तक पूजा के कई थाल पर जल रही बत्तियां, मंदिरों में बज रही घंटियां और शंखनाद करते शंख। अद्भूत ऊर्जा का अद्भुत स्वरूप और हां गंगा आरती के दौरान दीये जगमागकर अपनी रोशनी मां गंगा को समर्पित कर रहे थे। गंगा आरती की रोशनी के बीच साक्षात गंगा अठखेलियां कर रही लहरों पर सवारी कर रही थी। इन लहरों पर प्रतिबिंबित हो रहा घाटों का दृश्य अद्भुत था। इस दौरान भक्ति भाव का सैलाब चरम पर होता है और वह इसमें शामिल होकर ही इसका अनुभव किया जा सकता है।

कुछ घंटों में वाराणसी के इस अनुभव को अपने साथ समेटकर ले जाने का वक्त हो चला था। लगा कुछ और दिन रहने का मौका मिल जाता। कुछ छूटने और पाने के बीच मन का महाभारत भी कुलांचे भर रहा था। लेकिन कम वक्त में ही सही लेकिन बनारस का कुछ रसपान तो मैंने कर ही लिया। इस रस को पूरी तरह समाहित तो भगवान शिव ही कर सकते हैं क्योंकि काशी उन्हीं की नगरी हैं जिसमें उन्होंने खुद को समर्पित किया हुआ है। शायद तभी तनाव से कोसों दूर बेपरवाह मस्ती के आलम में डूबे रहने वाले शहर बनारस के बारे में कहा जाता है:-

जो मजा बनारस में
वो न पेरिस में न फारस में।

और इसी बनारस के बारे में यह भी तो कहते है- मिट्टी ही जहां की पारस है उस शहर का नाम बनारस है।

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