nanhe' guide,mountabu,माउंटआबू, टूरिस्ट गाइड, संजीव कुमार दुबे

नन्हें गाइड की पीड़ा कौन सुनेगा

बाल दिवस। 14 नवंबर को हर साल मनाया जाने वाला वो दिन जब हम भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को याद करते हैं। यह दिन इस बात का भी प्रतीक माना जाता हैं कि चाचा नेहरू को बच्चों से बहुत प्यार था और वह चाहते थे कि देश का हर बच्चा और युवा अपने बेहतर भविष्य के लिए जोशो-खरोश से भरपूर हो।

देश में आजादी के 65 साल बाद भी गरीबी तो नहीं मिटी लेकिन हां बहस-मुबाहिसों के बीच नए-नए आंकड़ों का आना जरूर जारी है। लेकिन यह एक कड़वा सच है कि भारत की गरीबी की चक्की में करोड़ों बच्चे भी पिस रहे हैं। उनका बचपन उनसे कोसों दूर हो चुका है। क्योंकि उनके बचपन पर हालात और वक्त की ऐसी मार पड़ी है कि अब वो गरीबी के बेड़ियों में जिंदगी भर के लिए जकड़ गये हैं। इनके लिए योजनाएं कागजों पर जरूर बनती है, करोड़ों रुपये फूंके जाते हैं, लेकिन इनके हालात में तब्दीली नहीं आती।

राजस्थान का इकलौता हिल स्टेशन माउंटआबू। अपने बेशुमार टूरिस्ट डेस्टिनेश की वजह से यह सैलानियों को अपनी ओर खींचता है। यहां घूमते-घूमते कई जगहों पर निगाह जाती है। कुछ बच्चे तोतली जबान में शायरी कर रहे हैं। सैलानियों को माउंटआबू की खासियत बता रहे हैं। कुछ के चेहरे पर मायूसी है कि उन्हें सुबह से कोई ग्राहक मिला नहीं है तो कुछ सैलानियों से गाइड लेने की याचना कर रहे हैं ताकि वह कुछ पैसे कमा सकें। कुछ सैलानियों को मसखरी सूझती है तो उन्होंने बच्चों से कुछ और करने को कहा तो बच्चे कविता पाठ करने लगते हैं और शायरी के रंग से महफिल को जमाने की कोशिश करते हैं।

कुछ लोगों के लिए यह भले ही मनोरंजन और मसखरी का साधन तो हो सकता है। लेकिन आप इन बच्चों को पीड़ा को समझेंगे तो शायद आपकी आंखों से आंसू आ जाएंगे। ये एक ऐसी बेबसी की दास्तां है जिसकी पीड़ा गरीबी से शुरू होकर वहीं जाकर खत्म हो जाती है। ये भंवर उस गरीबी का है जहां बचपन उम्र के पड़ाव से डिलीट हो जाता है।

माउंटआबू में इन बच्चों को नन्हे गाइड के नाम से पुकारा जाता है। ये वो नन्हें गाइड है जिनकी उम्र 15 साल से ज्यादा नहीं लेकिन ये नन्हें गाइड ना सिर्फ गाइड है बल्कि कवि और शायर भी है। माउंटआबू में ऐसे कई नन्हें गाइड अपने परिवार का खर्चा चलाते हैं। अगर ये नहीं कमाए तो इनके घर का चूल्हा भी नहीं जले। हालात की मार और वक्त ने इन्हें कम वक्त में बहुत कुछ सिखा दिया है कि लेकिन ये लोग हर मुसीबत से लड़ते हुए कम वक्त में पहले ही परिपक्व हो चले है। लगभग 200 से भी ज्यादा ऐसे नन्हें गाइड यानी छोटे बच्चे अपने परिवार की आजीविका चला रहे हैं।

तोतली जुबान में बहुत कुछ करने की कोशिश। अनपढ़ होते हुए भी बहुत कुछ याद है। माउंटआबू के टूरिस्ट स्पॉट के बारे में बारीकि से जानकारी है। हैरानी होती है कि हर चीज इन बच्चों को भला कैसे याद हैं। चाहे वो दिलवाड़ा जैन मंदिर के खंभे हो या फिर सनसेट प्वाइंट की सीढ़ियां।

ये मासूम बच्चे शायरियां भी गढ़ते है। कवि बनकर कविताएं भी सुनाते है और सैलानी उसका मजा लेते हैं, तालियां बजाते हैं। माउंटआबू में यहां के आठ साल से लेकर 15 साल तक के बच्चे टूरिस्ट गाइड का किरदार निभाते हैं। ये बच्चे पढ़े लिखे नहीं है लेकिन परिवार की रोजी-रोटी चलाने के लिए ये अभी से ही लग गए हैं। इन्हें देखकर लगता है कि ये कोशिश बचपन को छुपाने की है या फिर हालात से लड़ने की। बचपन गुम हो गया है क्योंकि गरीबी ने बचपन पर अपना हक जमा लिया है।

यहां के पत्रकार अनिल कुमार ऐरन का कहना है कि इन बच्चों से जुड़ी एक त्रासदी है कि ये बच्चे नन्हे टूरिस्ट गाइड बनकर अपना और अपने परिवार का पेट जरूर पाल रहे हैं लेकिन ये बच्चे शिक्षा से महरूम हैं। ज्यादातर परिवार के पिता शराब और बुरी लत की वजह से उन्हें इस पेशे में धकेल देते हैं।

लेकिन जो उम्र बच्चों के खेलने और पढने की होती है उस उम्र में ये बच्चे अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं। इन बच्चों की पीड़ा इनके चेहरे से झलकती है। कुछ घरों मे तो ये बच्चे पैसे देते है लेकिन वह पैसा उनके पिता लेकर शराब पी जाते हैं। ये बच्चे पढना चाहते है लेकिन टूरिस्ट गाइड के काम से इतनी फुर्सत इन्हें मिलती नहीं कि ये कुछ कर सके। इन बच्चों के चेहरे से इनका दर्द बयां होता है लेकिन इन बच्चों को इस बात की खुशी है कि ये परिवार का लालन पालन कर रहे है। इन्हें इस बात का गम नहीं है कि इनका बचपन इनके नन्हे गाइड बनने में कहीं गुम हो गया है। यहां नन्हे गाइड की संख्या 200 से भी ज्यादा है। इस पेशे में एक बार जो आया वह यही का होकर रह गया।

माउंटआबू के सनराइज की तरह इन बच्चों की दिनचर्चा रोजाना शुरू होती है जो सनसेट प्वाइंट के सूर्यास्त के बाद खत्म हो जाती है। कोई छुट्टी नहीं। जिंदगी चल रही है जिसमें ढेरों दर्द है लेकिन हौसला यही कि परिवार का भरण पोषण करना है।

हमारे देश में बाल मजदूरी की समस्या बड़ी है जिसका समाधन ढूंढ पाने में सरकार अबतक नाकाम रही है। लेकिन लेकिन माउंटआबू के नन्हें गाइड की पीड़ा उनके चेहरे से तो झलकती है लेकिन सुननेवाला कोई भी नहीं है। इन बच्चों की यह ख्वाहिश जरूर है कि कोई तो हो जो उनकी पीड़ा महसूस करे और उनके लिए कुछ करे।

चाचा नेहरू भी आज जिंदा होते तो इनकी हालत देखकर बेहद दुखी होते। गरीबी का यह विकराल स्वरूप हालात की उन बेड़ियों में जकड़ गया है जिससे आगे का रास्ता या फिर जिंदगी इन बच्चों को नहीं मालूम।


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