Last Updated: Friday, December 20, 2013, 01:11
हाल में चार राज्यों में विधानसभा चुनावों में करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस की चिंताएं बढ़ना स्वाभाविक हैं। आखिर हो भी क्यों न, क्योंकि कांग्रेस को इतनी बुरी पराजय का अनुमान संभवत: कतई नहीं था। इन झटकों से कांग्रेस अब तक उबरती नहीं दिख रही है। इसका आभास इस बात से होता है कि कांग्रेस का कोई भी बड़ा नेता इस मसले पर टिप्पणी करने से परहेज करते नजर आ रहे हैं।
कुछ महीनों के बाद यानी अगले साल अप्रैल-मई के महीनों में कांग्रेस को आम चुनाव का सामना करना है और देश भर के कांग्रेसी नेता इस बात से सकते में हैं।
विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रति जनता के रुझान के बाद पार्टी को अब यह डर सताने लगा है कि परिणाम कतई अनुकूल नहीं होगा। गाहे बगाहे कांग्रेस के कुछ बड़े नेता इस बात को अपने बयानों में स्वीकार भी कर चुके हैं। अब इसे बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का असर कह लें या कांग्रेस के प्रति जनता की खींझ, लेकिन नुकसान दोनों ही मोर्चों पर कांग्रेस को ही हुआ है।
कांग्रेस के कई नेताओं ने तो यह स्वीकार भी किया कि साल 2014 में होने वाले आम चुनाव से पहले मिली पराजय ने पार्टी को विचलित करके रख दिया है। हालांकि कांग्रेस नेता शायद अपना दिल बहलाने के लिए दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पराजय के बाद विभिन्न कारणों को जिम्मेवार ठहरा रहे हैं, मगर पार्टी के प्रति जनता की बेरुखी से वे अंदर ही अंदर हिले हुए हैं। क्योंकि इन्हीं जनता के सामने उन्हें आम चुनाव में फिर जाना होगा। डर इस बात का है कि इन चारा राज्यों में जनता ने जो जनाधार दिखाया, कहीं वैसा ही परिणाम देश के अन्य राज्यों में न आ जाए। इसी बात को लेकर कांगेस के भीतर मंथन का दौर शुरू हो चुका है।
चाहे लोकपाल विधेयक को पारित करना हो या भारतीय राजनयिक दुर्व्यवहार मामले में त्वरित कार्रवाई, यह संभवत: इस बात का संकेत करते हैं कि कांग्रेस पार्टी डैमेज कंट्रोल में जुट गई है, उसे अपनी मौजूदा छवि की चिंता कुछ ज्यादा ही सताने लगी है। आम चुनाव से महज कुछ माह दूर कांग्रेस अब तक अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित नहीं कर पाई है। इस बात का दबाव कांग्रेसी भलीभांति महसूस कर रहे हैं। तभी बीते दिनों यह बात उठी कि कांग्रेस जनवरी माह में अपने नए नेतृत्व के नाम का ऐलान कर सकती है। वैसे भी बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा के बाद कांग्रेस पर दबाव बढ़ गया था। ऊपर से देश भर में मोदी के नाम पर लोगों के मिल रहे समर्थन से कांग्रेस के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई हैं। ऐसे में कांग्रेस को दोनों मोर्चों पर ही जूझना पड़ रहा है। कांग्रेस के नेता भले ही सार्वजनिक तौर पर यह कहें कि नरेंद्र मोदी उनके लिए कोई चुनौती नहीं हैं, पर दबी जुबान में वे सभी स्वीकार करने लगे हैं कि यदि ये आलम रहा तो आम चुनाव में पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है।
इसके अलावा कई अन्य मसले हैं, जो कांग्रेस का बुरी तरह पीछा कर रही हैं। भ्रष्टाचार, महंगाई, गरीबी, बेरोजगारी, विदेश नीति आदि ऐसे गंभीर मुद्दे हैं, जिनको लेकर कांग्रेस की काफी किरकिरी हो चुकी है। इनसे निपटना भी कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है।
हालात यह हो गए है कि प्रदेश स्तर के कांग्रेस नेताओं को भी आने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर चिंता सताने लगी है। इनमें से कुछ का यह भी मानना है कि बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी (नरेंद्र मोदी) वास्तव में एक बड़ा खतरा हैं। दबी जुबान में कांग्रेस नेता तो यह भी कहते हैं कि चुनावों के दौरान मोदी फैक्टर को कतई खारिज नहीं किया जा सकता। जिस तरह से वे जनप्रिय हुए हैं और उनकी रैली में लोगों की अपार भीड़ जुटती है, उससे संकेत साफ है कि कांग्रेस की धरातल पर स्थिति क्या है। यदि लोग कांग्रेस से खफा न होते तो विधानसभा चुनावों के दौरान इस तरह का परिणाम सामने नहीं आता। ऐसे में कांग्रेस के लिए जरूरत इस बात की है कि वे नरेंद्र मोदी के सामने किसे खड़ा करते हैं और उससे पार्टी को कितना लाभ मिल पाएगा।
बीजेपी ने जहां मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अपनी सत्ता बरकरार रखी, राजस्थान में रिकार्ड कायम करते हुए कांग्रेस से सत्ता छीनने में कामयाब रही। वहीं, दिल्ली में भी पार्टी सबसे बड़ा दल बनकर उभरी। दिल्ली में कांग्रेस की शर्मनाक पराजय ने पार्टी को अंदर से हिलाकर रख दिया। वैसे भी चुनावों में गैर जरूरी मुद्दे ज्यादा देर तक नहीं टिकते। ऐसे में कांग्रेस हाईकमान को अब कड़े उपाय करने चाहिए ताकि आगे ऐसी दुर्गति न हो। चूंकि अहम मुकाबला यानी आम चुनाव अब कुछ माह में ही होने वाला है। जाहिर तौर पर हाल के चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए सचेत करने वाले हैं। अब देखना यह होगा कि कांग्रेस इससे कितना सबक सीखी है और किस हद तक सतर्क हो पाई है। निश्चित तौर पर कांग्रेस को हर मोर्चे पर नए सिरे से रणनीति बनाने के साथ ही ज्यादा मेहनत करनी पड़ेगी।
इस हार से कांग्रेस शासित प्रदेशों में पार्टी कार्यकर्ताओं में निराशा का संचार हुआ है और उनका मनोबल टूटा है। ऐसे में कांग्रेस के रणनीतिकारों और पार्टी हाईकमान के सामने यह भी एक बड़ी चुनौती होगी कि कार्यकर्ताओं के हौंसले को कैसे बनाए रखा जाए। साथ ही ऐसी कौन सी जादू की छड़ी घुमाई जाए कि अलग थलग से पड़े कांग्रेस नेताओं और कार्यकर्ताओं के बीच तारतम्य स्थापित किया जा सके। यदि मोदी की बढ़ती लोकप्रियता के परिप्रेक्ष्य में इसे देखा जाए तो कांग्रेस को यह चिंता ज्यादा सताने लगी है। चूंकि मोदी के मुकाबले फिलहाल उनके पास वैसा कोई जनप्रिय नेता नजर नहीं आ रहा है। यदि होता तो दिल्ली में चुनावों के दौरान कांग्रेस उपाध्यक्ष की एक रैली के दौरान जनता जनार्दन नदारद नहीं रहती और दिल्ली की मुख्यमंत्री को हाथ जोड़कर जनता से वहां रुकने के लिए गुहार नहीं लगाना पड़ती। ऐसी ही कुछ बानगी अन्य जगहों पर भी दिखी, जिससे कांग्रेस के आला नेताओं के माथे पर बल पड़ने लगे।
हालांकि यह दावे के साथ नहीं कहा जा सकता है कि हाल के चुनाव परिणामों का लोकसभा चुनाव पर असर नहीं पड़ेगा। जिन मसलों को लेकर चूक हुई है, उसे यदि दुरुस्त नहीं किया गया तो ऐसी पराजय कहीं भी हाथ आ सकती है। हालांकि आम चुनाव में मुद्दे राज्यों से इतर हो सकते हैं, पर हार का यह संकेत समग्रता में बहुत कुछ परिलक्षित करता है। अब सवाल यह भी उठता है कि क्या इस पराजय के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी या पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी को जिम्मेवार ठहराया जा सकता है। यदा कदा कांग्रेस के कमजोर नेतृत्व पर जो सवाल उठता है, क्या पार्टी उससे अपना मुख मोड़ सकती है?
जाहिर तौर पर चुनाव परिणाम निश्चित रूप से गंभीर चिंता का कारण है, लेकिन इसकी जिम्मेवारी से कांग्रेस के आलाकमान बच नहीं सकते हैं। चार राज्यों में इस पराजय की उम्मीद शायद कोई कांग्रेसी नेता नहीं कर रहे थे। आंध्र प्रदेश में राज्य के बंटवारे के मसले पर भी पार्टी में विभाजन हो गया है और तेलगाना के बाहर के नेताओं ने पार्टी के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं के खिलाफ जमकर भड़ास निकालनी शुरू कर दी है। ऐसे में कांग्रेस का यह दांव कहीं पार्टी के लिए उलटा न पड़ जाए।
ऐसे में आंध्र प्रदेश में पार्टी के सामने एक गंभीर समस्या उभरकर खड़ी हो गई है।
कई तरह के आरोपों में घिरी कांग्रेस इस समय संकट में नजर आ रही है। चुनाव में मिली लगातार तीसरी हार से पार्टी नेता हार का ठीकरा बड़े नेताओं पर फोड़ रहे हैं। पार्टी में गुटबाजी चरम पर पहुंच गई है और कांग्रेस की अंदरुनी कलह सड़क पर आ गई है। ऐसे में कांग्रेस को संगठन स्तर पर मजबूती लाने और अंदरुनी गुटबाजी से निबटने के साथ-साथ नए सिरे से रणनीति बनानी होगी ताकि आम चुनाव में पार्टी को इतना गंभीर नुकसान न उठाना पड़े।
(The views expressed by the author are personal)